Wednesday, December 30, 2009

मंजिलें और भी हैं...

किसी ने कहा आशुतोष जी ने हिंदुस्तान में जमकर अपनी पीठ थपथपाई है. जरा पढिएगा. आज सुबह उठते ही २८ दिसम्बर का हिंदुस्तान निकाला और पढने लगा. आखिरी लाइन तक पहुँचते पहुँचते कई सवाल कुलबुलाने लगे थे. सोचा आखिर कब हम अपनी पीठ थपथपाना बंद करेंगे. खुद को शाबाशी देकर क्या करेंगे. २६\११ में तो सबसे पहले कि होड़...किसी नए सुराग में तो सबसे पहले कि होड़. आखिर कब हम देश को देश समझेंगे..कब इसे बाज़ार समझना बंद करेंगे. आखिर क्यूँ हम नक्सालियों के बीच जाकर उनसे बात करके ये कहते हैं कि ये खबर सिर्फ हमारे पास है, क्या यही है मीडिया का काम, क्या सही कर दिया हमने सिस्ट. अभी तो रुचिका को ही न्याय पूरी तरह नहीं मिला है, क्या इतना ही था हमारा काम. मैंने कभी सोचा नहीं था कि ये एक पेशा है, हम लोगों तक लोगों के बीच कि खबरें पहुंचाते हैं तो किसी पे उपकार नहीं करते हैं. पत्रकारिता का लक्ष्य इतना छोटा भी नहीं होना चाहिए जितना आशुतोष जी के लेख में लगा. अभी कई मील के पत्थर रखे जाने हैं. काफी काम हुआ है, इसमें कोई दो राय नहीं. पर यह भी सच है कि अभी तो सफ़र कि शुरुआत भर है. इतनी जल्दी खुश होना शायद ठीक नहीं. हमें इस लोकतंत्र को संभालना है. अपनी दीवार में दीमक नहीं लगने देने हैं (जो कि काफी हद तक लग चुके हैं). यह भी सच है कि देश के हर कोने में कैमरा और कलम नहीं पहुँच सकती पर क्या यह नामुमकिन है. जगह की वाकई कमी है, पर न्याय पर हर भारतीय का हक है. देश को कोसना और कोसते रहने भर से काम चलने वाला नहीं है, वो पान कि गुमटियों पर खड़े लोगों को ही करने दीजिये तो बेहतर होगा. अभी हमारी मुहिम पूरी नहीं हुई है, पहले इसे अंजाम तक पहुँचाना है. और ये भी सोचना है कि हमें १९ साल क्यों लग गए हरियाणा कि एक रुचिका को खोजने में जबकि उसका शोषण और किसी ने नहीं सूबे के कप्तान ने ही किया था. वो मर जाती है, १९ साल बाद उसकी दोस्त कि मेहनत रंग लती है. राठोड़ को थोड़ी ही सही पर सजा मिलती है और वो कोर्ट से मुस्कुराते हुए निकलता है. क्यूंकि उसे पता है, कानून और राजनेता उसकी जेब में हैं. वो हँसी हमारे हलक में फंस जाती है...और हम उसकी पोल खोल देते हैं.. लेकिन जरा सोचिये ऐसी कितनी ही रुचिका हैं जिनकी सिसकियाँ एक कमरा भी नहीं भेद पातीं..उनका क्या होता है...लोग कुछ भी कह देते हैं लेकिन उन्हें न्याय कि आस दूर तक नजर नहीं आती...ऐसे राठोड़ हमारे बीच हैं. हमारे भी भीतर हैं...उन्हें मार पाए तो जानिए उस लड़की को इन्साफ मिलेगा जिसकी गवाह वो खुद न होगी. ये हमारे लिए वाकई शर्म की बात है और सोचने की भी कि आखिर वो आज जिन्दा क्यों नहीं है जबकि उसके साथ हम सब खड़े हैं. शायद उसे १९ साल पहले इस साथ कि कहीं ज्यादा जरुरत थी जब उसे स्कूल से निकाला गया था, जब उसके भाई को दरिंदगी से पीता गया था और जब उसके पिता को नौकरी से हाथ धोना पड़ा था. अब राह बनानी है, उसपर ताउम्र सफ़र करना है. आशुतोष जी आपको तो हम जैसे युवाओं के लिए नजीर पेश करनी चाहिए, इस तरह की बातों में उथलापन झलकता है, हमें तो गहराई तक पहुंचना है, नहीं तो हममें और पान की दुकान पर सिस्टम को गरियाकर आँखें मूँद लेने वाले में क्या अंतर रह जाएगा.

Monday, December 7, 2009

तब जिन्दगी मेरा इन्तज़ार करेगी और मैं……

मैं दो कदम चलता और एक पल को रुकता मगर………..
इस एक पल जिन्दगी मुझसे चार कदम आगे बढ़ जाती ।
मैं फिर दो कदम चलता और एक पल को रुकता और….
जिन्दगी फिर मुझसे चार कदम आगे बढ़ जाती ।
यूँ ही जिन्दगी को जीतता देख मैं मुस्कुराता और….
जिन्दगी मेरी मुस्कुराहट पर हैरान होती ।
ये सिलसिला चलता रहता…..

फिर एक दिन मुझे हंसता देख एक सितारे ने पूछा………
” तुम हार कर भी मुस्कुराते हो ! क्या तुम्हें दुख नहीं होता हार का ? “
तब मैंनें कहा…………….
मुझे पता है कि एक ऐसी सरहद आयेगी जहाँ से आगे
जिन्दगी चार कदम तो क्या एक कदम भी आगे ना बढ़ पायेगी,
तब जिन्दगी मेरा इन्तज़ार करेगी और मैं……
तब भी यूँ ही चलता रुकता अपनी रफ्तार से अपनी धुन मैं वहाँ पहुंचूंगा…….
एक पल रुक कर, जिन्दगी को देख कर मुस्कुराऊंगा ……….
बीते सफर को एक नज़र देख अपने कदम फिर बढ़ा दूंगा ।
ठीक उसी पल मैं जिन्दगी से जीत जाऊंगा ………
मैं अपनी हार पर भी मुस्कुराता था और अपनी जीत पर भी……
मगर जिन्दगी अपनी जीत पर भी ना मुस्कुरा पाई थी और अपनी हार पर भी ना रो पायेगी...

(ये मेरी रचना नहीं है....कहीं मिली, मुझे इसे देख आइना सा लगा। और मैंने इसे यहाँ रख लिया...)

Wednesday, November 25, 2009

किसे सबसे ज्यादा दर्द है...

कभी कभी मन में एक सवाल उठता है की इस दुनिया में सबसे ज्यादा दर्द किसे है। अपाहिज युवा को, बच्चों से हारे हुए एक बुजुर्ग को या किसी और को... दुनिया के हर कोने में गया, हर गरीब की आंखों में देखा और घर लौटते वक्त एक माँ से मिला। एहसास हो गया कि यही है वो जिसकी तलाश में मैं इधर उधर भटक रहा था। न जाने कितनों की आंखों में झाँका होगा मैंने पर वो दर्द नहीं दिखा जो उस माँ की आंखों में था। शुरुआत से अंत तक उसने सिर्फ़ दर्द ही तो सहे हैं...पहले बच्चे को ९ महीने कोख में रखा, उसे पला पोसा और दुनिया में अपना वजूद बनाना सिखाया और एक दिन उसी बच्चे ने कह दिया तुम तो गवांर हो...पति ने कह दिया कि तुमने मेरी ज़िन्दगी बरबाद कर दी...तुमसे शादी न की होती तो मैं चैन से रहता...माँ ने भी ख़ुद को कोसा...ख़ुद को मारा और आंसू बहाकर अगली सुबह फ़िर सबकी सेवा में जुट गई। बच्चे ने खाना नहीं खाया तो उसने भी खाना नहीं खाया...देर रात तक जगती रही की बच्चा पढ़ क्यों नहीं रहा है...पति क्यों नहीं आए....सास और ननद ने भी उसे फटकारा होगा...जिस बच्चे को चलना सिखाने के लिए उसने बिना थके मीलों का सफर तय किया होगा, आज उस बच्चे को माँ के साथ चलने में शर्म आती है...जिस बच्चे के लगातार एक ही सवाल पूछने पर माँ ने उसे गले से लगा लिया होगा वही बच्चा माँ के सवालों को सुनते भड़क उठता है...कहता है अपना काम करो... सुबह से लेकर रात तक उसने किचन में अच्छा खाना पकाने के लिए मेहनत की लेकिन पति ने कह दिया की तुम तो खाना बनाना ही भूल गई...उसकी ख़ुद की ख्वाहिशें बच्चों और पति तक सिमट कर रह गईं । उसे सबकी चिंता है पर उसकी चिंता किसे है...उसके बाल पकने लगें तो बच्चे कह देते हैं की अब तो तुम बूढी हो रही हो...उसकी एक अदद साड़ी की फरमाइश पति को बड़ी लगती है...वहीँ वो सबकी ख्वाहिशों को सीने से लगाती है...रोज़ दुत्कारी जाती है लेकिन ममता में जरा भी कमी नहीं दिखाती...किसे सबसे ज्यादा दर्द है...

कभी कभी हमें अपनी माँ की आंखों में उसकी ख्वाहिशें तलाशनी चाहिए...वो भी यही करती है...माँ का जरा सा ख्याल उसे ज़िन्दगी की तमाम खुशियाँ दे सकता है....क्योंकि वही दर्द बड़ा नहीं जो दिखता है...कुछ दर्द ऐसे भी होते हैं जो ज़िन्दगी भर सालते रहते हैं...

Sunday, November 1, 2009

को एजूकेशन मिली होती तो....

बात जब भी लड़कियों पे पड़ने वाली निगाह कि होती है तो न जाने क्यों मेरे दिमाग में अपनी ज़िन्दगी के वो बारह साल फिर से गुजरने लगते हैं जो सरस्वती विद्या मंदिर बिताये. खूब संस्कार कि बात कि जाती थी वहां, हमने सीखे भी बहुत से. पर एक सवाल हमेशा सिर उठाने लगता है कि क्या ये सीख पाए कि एक लड़की क्या होती है. उससे कैसे बात कि जाती है...दोस्ती नाम कि भी एक चीज़ होती है. उन संस्कारों का क्या फायदा जब आप यही न जान पाएं कि दुनिया कि सबसे अनमोल चीज़ यानि स्त्री की विवेचना कैसे की जाये. मैं वो दिन कभी नहीं भूल सकता जब पहली बार हमारे टीचर्स ने बताया था की हाई स्कूल में को एजूकेशन होगी. हम ख़ुशी कम मना रहे थे, नर्वस ज्यादा थे. समझ नहीं आ रहा था कि कैसे रिअक्ट करेंगे. खैर, पढाई पूरी करने के बाद दुसरे स्कूल में दाखिला ले लिया, वहां भी को एजूकेशन नहीं थी. ख़ास फर्क नहीं पड़ना था क्यूंकि उन दो सालों में खासा मेहनत करनी थी. फिर लखनऊ विश्वविद्यालय में दाखिला लिया और सीखा कि लड़कियों से कैसे बात चीत की जाती है. पहले साल तो काफी दबे दबे से रहे. फिर कई बदलाव आये. खैर, विषय से भटक गया. आज भी जब पुराने दोस्तों से बात होती है तो एक बात सब कहते हैं..यार ज़िन्दगी में एक गर्ल फ्रेंड की कमी है बस...कुछ तो ये भी कह देते हैं...बनवा दो. मनो कोई दलाल हूँ. फिर सोचता हूँ कि भला उनकी क्या गलती है. घर वालों से कुछ कह नहीं सकते, मोहल्ले में किसी लड़की से नज़रें मिला नहीं सकते, सो सड़कों पर ही लड़कियों के पीछे घूमकर खुद को खुश कर लेते हैं. ये उनकी मजबूरी भी है और उनके आस पास का माहौल भी. कभी हद तक सोच के इस पिछडे होने कि वजह उनकी वो ग्रूमिंग है. जब तक ऐसा सिस्टम रहेगा, लोग यूँ ही नज़रों का इस्तेमाल करते रहेंगे. और ये हालत खासकर यूपी और बिहार जैसे प्रदेशों में ही है. जहाँ लड़कियों के साथ पढने से लड़के बर्बाद समझे जाते हैं और लड़कियों के साथ भी ऐसा ही है. इसीलिए जैसे ही आजादी मिलती है, लोग मुनेरका के मामले जैसी हरकतें करते हैं,
शायद ज़िन्दगी भर एक नॉन को एजूकेशन स्कूल में बिताने वालों के साथ ये स्थिति ज्यादा आती है. मैं उन दोस्तों से माफ़ी मांगते हुए ये बताना चाहता हूँ की कुछ तो वेश्याओं तक पहुँच चुके हैं, सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्हें एहसास नहीं हुआ की लड़की शारीरिक संतुष्टि के अलावा भी मायने रखती है...

उन्हें एक ही नज़र से देखती है हर निगाह...

कस्बे में मुनेरका मामले पर हो रही बहस पर नजर पड़ी। दिमाग में वो तसवीरें घूमने लगीं जब मैं दिल्ली और मुंबई गया था। दोस्तों, लोगों की एक एक बात दिमाग में फ़िर दौड़ने लगीं। लिखते हुए शर्म आ रही है पर लड़कियों का जो चरित्र चित्रण यहाँ किया गया था वो वाकई शर्मनाक और एक बेहूदा सोच का परिचायक था। मैं दिल्ली पहली बार गया था, जानने की इच्छा भी थी कि आख़िर कैसा होता है रेड लाइट एरिया। और उससे जुड़े तमाम पहलुओं को जानने की इच्छा थी। लेकिन परवरिश कुछ ऐसी थी कि कभी किसी लड़की को उस निगाह से देखने की हिम्मत नहीं हुई न ही कभी ऐसे किसी एरिया में गया मुझे अपनी सीमाओं का आभास था। पर मन में कहीं न कहीं वो इमेज जरुर थी जो मैं यूपी से लेकर वहां गया था। लोगों कि निगाहों में झांकता तो वो किसी लड़की के कपडों में झांकती मिलतीं। मैं ये नहीं कह सकता कि वो यूपी के थे या कहीं और के।

एक दिन बस से अपने रिश्ते दार के घर सरोजनी नगर जा रहा था तभी एक बुजुर्ग ने किसी लड़की को छूने कि कोशिश की, या शायद छू दिया था, वो लड़की बरस पड़ी। मेरी नजर पड़ी तो लड़की के कपड़े थोड़े तंग थे और बुजुर्ग उनके पीछे खड़े गलियां बक रहे थे। थोडी देर में हर निगाह लड़की पर थी और लड़की को बस से उतरना पड़ा। अगले दिन मैं सरोजनी नगर मार्केट में निकला तो कुछ लोगों ने बताया वहां जो लड़कियां खड़ी हैं वो चलने को तैयार हैं, कुछ इशारे होते हैं और मैंने कुछ लड़कों को उनकी तरफ़ इशारे करते देखा भी। मुनेरका में मेरे दोस्त रहते हैं, उनसे बात होती है तो वो भी कुछ ऐसा ही बताते हैं। उनकी बातों से भी नॉर्थ ईस्ट की लड़कियों की इमेज कुछ ऐसी ही मालूम पड़ी। सच मैं नहीं जनता पर ये जरुर जनता हूँ कि सारा खेल मर्द के हवस का है। हर लड़की को गन्दी निगाह से देखते हैं। काफी हद तक लड़कियां जानती भी हैं। इसके लिए वो किसी का सहारा लेती हैं तो वो टैक्सी कहलाती हैं। सच है। दोयम दर्जे की सोच का नतीजा है सब।

मुंबई में जो वाकया हुआ वो और भी शर्मनाक था। और ये हरकत एक पढ़े लिखे और समझदार व्यक्ति ने की थी। मैं किसी सिलसिले में कुछ लोगों से मिलने गया था। वहां यूपी के भी कुछ लोग थे। मेरी उनसे ठीक ठाक जान पहचान हो चुकी थी। थोडी देर वो कहीं गायब रहे। थोडी देर बार लौटे। उन्होंने जाने कब एक लड़की से होटल में साथ चलने की बात कह दी, और बड़े गर्व से कहानी बताई। उनके शब्द आज भी कानों में हैं, 'वो ऐसे देख रही थी जैसे...............मैंने पूछ लिया तो शरमा गई.' सोचा जा सकता है कि क्या हालत होती होगी उनकी हर दिन जब वो इस अरबों के देश में एक मुकाम कि तलाश में निकलती हैं....?

लड़की को पता नहीं क्या समझा जाता है यहाँ, मर्द की निगाह अगर गन्दी है तो वो नॉर्थ ईस्ट की हो या मुंबई और दिल्ली की, हर लड़की आवारा नजर आती है। अगर ऐसा न हो तो लोगों की हिम्मत न हो किसी लड़की को छूने की। पर ऐसा होता है। एक लड़का जब घंटों फ़ोन पर लगा रहता है तो मां बाप भी कुछ नहीं कहते पर वही काम जब एक लड़की करती है तो वो आवारा हो जाती है. मुझे तो इस पेशे से जुड़े उन लोगों पर भी शर्म आती है जिन पर सोशल रेस्पोंसिबिलिटी आम लोगों से कहीं ज्यादा है हर वो भी अपनी नजर का इस्तेमाल करने से नहीं चुकते... वो भी इस काम में जोर शोर से लगे हुए हैं... ज्यादा कहने कि जरुरत नहीं..सब समझदार हैं। उनका बस चले तो....जाने दीजिये..

Tuesday, October 20, 2009

वो अजीब एहसास

रात के दो बज रहे थे शायद, ऑफिस से वापस लौट रहा था, इस वक्त इंदिरा नगर के लिए जल्दी ऑटो नहीं मिलते इसलिए बादशाह नगर तक एक साथी के साथ आया और वहां ऑटो का वेट करने लगा। काफी देर इंतज़ार करने के बाद आखिरकार मुझे अगली सीट पर बैठना पड़ा। मैं यहाँ बैठने से बचता हूँ क्योंकि यहाँ बैठना खतरे से खली नहीं होता और दूसरा मीटर पीठ में काफी चुभता है। खैर, मैं बैठ गया। लेखराज से इंदिरा नगर के लिए ऑटो मुड़ा ही था कि एक बुजुर्ग किसी तरह सड़क पार करके आए और ऑटो वाले से बोले बैठा लो, जगह पहले ही नहीं थी। मुझसे उनकी हालत देखी नहीं गई और मैं ड्राईवर के दूसरी ओर बैठ गया। शायद उतनी जगह में एक पैर डालना भी मुश्किल था पर उनकी हालत देखकर उन्हें सड़क पर किसी दूसरी ऑटो का इंतज़ार करने के लिए छोड़ने के एहसास से तो बेहतर था मैं किसी तरह उसमें दुपक के बैठता। उसके बाद जब तक घर के पास नहीं पहुँच गया मैं यही सोचता रह गया की मैंने कोई परोपकार किया है या ये हमारी ड्यूटी होनी चाहिए। दरअसल जब हम स्कूल में थे तो रोज डायरी में लिखना होता था कि आज क्या परोपकार किया और हम ऐसे काम करने कि तलाश में रहते थे॥ अचानक वो मोड़ आ गई जहाँ मुझे उतरना था और मैंने उनको देखा और ऑटो वाले को पैसे देकर मुड़ गया। एक अजीब सा संतोष था। शायद कुछ असली किया था इसलिए। वैसे तो ज़िन्दगी ही दिखावा लगने लगी है...ऐसे लम्हे हमें इंसान होने का अहसास कराते हैं...ड्यूटी हो या उपकार..क्या फर्क पड़ता है। और मैं चैन की नींद सोया..

Thursday, October 8, 2009

फ़िर याद आ गया वो बचपन

आज फ़िर गली में बच्चों के खेलने की आवाज़ आई
और हमको याद गया वो बचपन
जब हम...
कभी चिल्लाते थे, कभी गुनगुनाते थे
बचपन के आसमां पर, तारों से झिलमिलाते थे
गिरते थे, उठते थे और झट से मुस्कराते थे
भैया की आंखों से अपने आंसू छिपाते थे
पापा की पॉकेट से पैसे चुराते थे
मम्मी को चुपके से जाकर बताते थे
एक के सिक्के को हफ्तों चलाते थे
खो जाता था तो आंसू बहाते थे
छोटे को सताते थे, भूत से डराते थे
फ़िर, मम्मी की गोदी में ख़ुद सो जाते थे
हर रात परियों से मिलने हम जाते थे
उठकर सुबह बड़े से टब में नहाते थे
बारिश में जब हम कश्ती बनाते थे
मोहल्ले भर में नाव चलाते थे
आज याद आ गया वो बचपन
मास्टर जी के आने से पहले हम जब
रोज सोने का बहाना बनाते थे
आज फ़िर याद आ गया वो बचपन
जब हम जो थे वो ही नज़र आते थे ....

Friday, October 2, 2009

मजबूरी का नाम गाँधी

गाँधी जयंती है आज, हर अखबार और टेलिविज़न चैनल अपने तरीके से बापू की जिंदगी में झाँक रहा है। किसी ने युवाओं से जोड़ा है तो कोई उनकी उपलब्धियों का बखान कर रहा है। दोनों ही तरीके सही हैं। तर्कसंगत भी। शायद प्रासंगिक नहीं। मुझे तो कम से कम ऐसा लगता है। आख़िर हम साठ साल से भी ज्यादा समय से कुछ ऐसी बातें उनकी हर जयंती पर करते आए हैं। यही सोच कर मैंने अपने दफ्तर में गुजारिश की कि क्यों न इस बार किसी और पहलु पर बात कि जाए। मेरे दिमाग में बचपन से एक बात भरी थी...मजबूरी का नाम गाँधी। किसने, कब और कैसे भरी ये बात मेरे दिमाग में, मुझे नहीं पता, मैं जानना भी नहीं चाहता पर हाँ ये जरुर जानना चाहता हूँ कि आख़िर ये बात बनी कैसे। मेरे जैसे कितने ही युवाओं ने इस बात को सैकड़ों बार दोहराया होगा पर शायद ही किसी ने सोचने कि कोशिश कि हो कि आख़िर ऐसा क्यूँ है। मैंने सोचा कि इस पर एक स्टोरी होनी चाहिए। बॉस को पसंद भी आया। स्टोरी में क्या लिखा जाएगा, इस पर बात हो गई। कल मेरा वीकली ऑफ़ था सो मैंने घर पर था। आज सुबह का बेसब्री से इंतजार था कि हम आज कुछ अलग करेंगे, पर अखबार देखा तो मूड ख़राब हो गया। याद आए बापू शीर्षक लगा था पहले पन्ने पर, अन्दर के पन्ने खोलकर पढने का मन ही नहीं किया। हम जरा भी अलग नही करना चाहते हैं । जब उसके बारे में कुछ अलग लिखने से डरते हैं तो जिंदगी में उनके जैसा काम क्या ख़ाक करेंगे. सबसे बातें बुनवा लीजिये, आसमान बुन देंगे. पर ढेला भर काम नहीं किया जाता. ये पूरे समाज की समस्या है. कोई आगे नहीं आना चाहता, खासकर किसी ऐसे काम के लिए जिससे कोई भलाई हो सके. सबको पैसा भरना है बस. जहाँ पैसा मिलेगा वहां नंगे नाचने को भी तैयार हो जायेंगे.
दरअसल कोई गाँधी को जानना नहीं चाहता, बस उन्हें गरिया कर सबका मन भर जाता है। सब सुनी सुने बातों पर यकीं कर लेते हैं। कभी ये सोचने की कोशिश नहीं की जाती कि आख़िर कब तक हम यूँ ही सिर्फ़ कही सुनी बातों को अपनी अगली पीढी को देते रहेंगे। हमारे पास एक अच्छा मौका था, हमने गवां दिया। खैर, गाँधी जयंती पर असल गाँधी को जान लिया जाए, इससे बड़ी बात और कुछ नहीं हो सकती। फ़िर वो कोई भी हो, बापू भी खुश हो जायेंगे। उसकी आत्मा को शान्ति मिल जाएगी।

मैं गाँधी भक्त नहीं हूँ। लेकिन मैंने भी उनको अपने बचपने में काफी गरियाया है। जब सोचा कि क्यूँ गरियाता हूँ तो उनके बारे में पढ़ा है। अलग अलग मतों को पढ़ा है, और काफी हद तक उनको समझा है।

Tuesday, September 29, 2009

पोस्टमार्टम...भूल चूक माफ़...

एक बहुत ही जाना माना क़स्बा है, नई सड़क पर। शायद आप उस सड़क से गुजरे हों। खैर, वैसे तो वहां अक्सर ही हलचल रहती है, देश के बड़े बड़े तुर्रम खां यहाँ आते हैं और यहाँ के जमींदार कि तारीफों के पुल बांधते हैं। मैंने भी बांधे हैं पर जब मुझे पसंद आया। आज मैं वहां से गुजर रहा था कि एक नई हलचल पर नजर पड़ी। मैंने सोचा, जरा देखा जाए कि माजरा क्या है, पता चला यहाँ फ़िर एक रचना पर तारीफों के पुल बाँध रहे हैं, मुझे लगा हर बार कि तरह इस बार भी मजेदार रचना होगी। मैंने पढ़ना शुरू किया, पहले में जिस्ट समझ में आ गया पर सोचा चलो पूरी रचना पढ़ ली जाए। गिरते पड़ते जब ख़त्म हुई तो समझ नहीं आया कि जमींदार साहब लिखना क्या चाहते थे, लगा कि जबरदस्ती सिर्फ़ लिखने के लिए लिख दिया। विचार परिपक्व नहीं रहा होगा, तभी इतना बहकाव था। खैर, मैं उनकी भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचाना चाहता इसलिए मैं सीधे मुद्दे पर आता हूँ।
दरअसल उन्होंने एक जगह कुछ ऐसा लिखा है....

'अपनी हर उपलब्धि में हम पहली बार सीना तानते हैं। फिर अपनी चाल में मस्त हो जाते हैं। यह मुल्क अतीत से लेकर वर्तमान और भविष्य तक में गौरव के क्षण तलाशता दिखता है।..........वर्ल्ड क्लास और सुपर पावर का बोध। कितने सालों से हम बनने की कोशिश में लगे हैं। हद हो गई।'

पर मैं कहता हूँ कि अरे सर जी, हद मुल्क ने नहीं की है। हद तो हम और आप जैसे पत्रकारों ने की है जो मुल्क की किसी उपलब्धि को लेकर २4 घंटे के स्पेशल प्रोग्राम बना डालते हैं। पता चलता है हफ्ते भर तक उनके फौलो अप चलते रहते हैं, किस लिए। सब अपनी बनाते हैं जनाब। अखबारों को पाट देते हैं पूरी उपलब्धि के गौरवगान से। और आम आदमी वही देखता है जो उसे टीवी और अख़बार में परोस के दिया जाता है। उसी से वो अपनी सोच बनाता है।

अगर इतना ही बोध है तो क्या जरुरत है इन ख़बरों को लेकर उड़ने की... न उड़िए... यही होता आया है। मुल्क नहीं चिल्लाता है कि मैंने कोई अनोखा काम किया है, हम आप गाते हैं। और दूसरी बात बुरा मत मानिएगा पर सुपर पावर... जबरदस्ती का पोस्ट मालूम पड़ता है। जहाँ तक आई कार्ड की बात है, तो एक बार पढ़ना बेहतर होगा की वो है किस लिए, मिलेगा तो सबको ही।

जमीदार साहब से मेरा कोई बैर नहीं, न ही मेरी औकात है उनसे उलझने कि पर मेरे मन में जो भी आया मैंने यहाँ कह दिया...मैं उनसे उम्र और अनुभव दोनों में अदना हूँ पर यहाँ अपने मन कि बात रख सकता हूँ...फ़िर भी भूल चूक माफ़...

Friday, September 25, 2009

द लास्ट लियर विद टियर

इंसान की भी न जाने कैसी कैसी desires होती हैं. यही रुलाती है और यही हमें हसने का मौका देती है, यही ऊँचे आसमान सा कद करने की ताकत देती है और यही सीख भी समेत लेती है, फ़िर भी हम कुछ सीख को आखिरी नहीं होने देते, वो जिंदगी की पहली सीख सरीखी होती हैं।
इसी ने मुझे आज द लास्ट लियर देखने के लिए मजबूर कर दिया। दरअसल काफी दिनों से रोजाना एक फ़िल्म देखता हूँ, वजह नहीं जनता और सच पूछिए तो जानना भी नहीं चाहता। हर फ़िल्म मेरे अन्दर के छिपे कलाकार को कोसती है। कई ख्याल पनपते हैं और पानी के बुलबुलों की तरह फूट जाते हैं। आज कुछ ऐसा ही हुआ। मकबूल, हैरी और सिद्धार्थ। हर किरदार की गहराई नापने में फ़िल्म कब रुला गई, पता ही नहीं चला। जगे तो पता चला आंखों के आंसूं पलकों से बातें कर रहे हैं, अजीब अहसास था। शायद काफी दिनों बाद आंसुओं की गर्मी महसूस की थी। उनकी जलन फ़िल्म के बीते कई सीन्स को पलट कर देखने पर मजबूर कर रही थी। और हर सीन मुझसे ख़ुद में झाँकने को कह रहा था, फ़िर सोचा कि आख़िर ये फ़िल्म परदे पर लोगों को पसंद क्यों नहीं आई होगी। जवाब भी ख़ुद ही मिल गया, मेरी तरह हर इंसान को आंसुओं से दिल्लगी तो नहीं ही होगी। कम ही लोग ऐसी फिल्मों को देखकर उनमें जी पाते हैं। फ़िर शायद ये भी एक वजह हो सकती है। अमिताभ जैसे अभिनेता वाकई दुनिया में कम ही हैं। उन्हीं ने मुझे इस फ़िल्म को देखने के लिए खींचा है। desire से ही इंसान बनता है। चलना सीखता है और चलाना भी....हर किसी के लिए इसमें कुछ सीखने को है, पर हाँ जरूरी नहीं की ये आपकी आखिरी सीख हो।

(और हाँ, ये मेरी प्रतिक्रिया है, मैंने फ़िल्म की समीक्षा लिखने की कोशिश नहीं की है। कुछ अहसासों को यहाँ उडेलने की कोशिश की थी पर इस दौरान शायद वो एहसास फ़ोन की वजह से फीका पड़ गया। पर वो भी तो मेरी desire का ही हिस्सा है)

Saturday, August 22, 2009

Peep into yourself?

Hi everyone,
This is my first attempt to write an article in English. I don’t know whether it is going to be just OK. But I fear of insult and I fear that people will tease me with my grammar or words I use. However, I have made my mind to write this one.

Today I was in Lucknow University for some personal work. I went to the “Prashasanik Bhavan” and asked a person as to where shall I submit a certain form. He said, that he didn’t knew n told me to ask someone else. I moved to the second window. Again, the same question, the reply was bit different. He first said, “Bagal wali khidki pe Pandey ji se milo. Wo hi jama karte hain” I moved to the third window. Answer was, “Pandey ji nai aaye hain…kal aana.” I asked, is there no who has been substituted with to do his work. From top to bottom, he stared at me, as if I had committed a sin by asking that question. After a pause he replied, “for one day…there is no need. Date has not been announced yet, so better you come after 25th August.”

I was wondering as to why he replied in that particular manner. And then I thought of those days from my past, when I was making a documentary. The focus of the documentary was the basic education system of India. I went to a primary school of Indira Nagar. After convincing the teachers I started shooting with my friends. I wanted to ascertain whether the system is corrupt or is it the students who do not want to study. There are many schemes to provide education to every child of the country, but the will is to do the same seems to be missing. Teachers and officials find it more convincing to play blame games rather than doing something fruitful.

Individuals today are taking their duties for granted. The “Chalta hai” attitude is deep rooted in the minds of all. Two teachers for 200 students can never be a fair equation. Everyone talks about corruption and reforms at a large scale but no individual is doing his\her work honestly. Same condition is there in every department of India. It is because of this, that the development of the country is suffering badly. Throughout the documentary, during my conversations with the students about their dreams, i did not come across a single student who thought of something beyond tailoring or their paternal work. There was one student who dared to dream big. But the very next moment his uncertainty of not being able to study after 8th class came to the fore.

I think, if everyone gets his\her work done honestly within the set time frame, there will be no problem. Not even a single reform will be needed. But for that, a strong will is what we need. After reading the whole write up I expect you to say I will do my work honestly within the set time, instead of saying the write up is ok or not. Ask yourself, whether you are honest towards your work or not. Peep into yourself and make some better conclusions. That is what is the need of OUR country at this hour.

Wednesday, August 19, 2009

लुढ़कते शब्द और मीडिया की बागडोर

पत्रकारिता बहुत तेजी से बदल रही है। सकारात्मक रूप में कहें तो इसका तेजी से विकास हो रहा है। हाँ भैया, विकास तो हो ही रहा है। इस विकास में बड़ा योगदान है पी आर कम्पनियों का। दिन दहाड़े प्रेस कांफ्रेंस करते हैं। इसमे मुझे कोई आपत्ति नहीं है। उसमें कई ऐसे भी कार्यक्रम भी होते हैं जिनमें पत्रकार बंधुओं को अंग्रेजी शराब थमा दी जाती है। गिफ्ट के नाम पर, मनो शराबियों की प्रेस कांफ्रेंस हो। इसके पीछे कोई भी आशय हो, मुझे लगता हैं भाई लोग इसे लेकर पत्रकारिता को बिकाऊ बना रहे हैं। ख़ुद लुढ़कते हुए दफ्त जाते हैं और वैसे ही लुढ़कते हुए शब्दों से ख़बर लिख देते हैं। और जब बात होती है तो कहते हैं हम तो डेमोक्रेसी के चौथे स्तम्भ हैं। लडखडाते ईमान और शब्दों से ये चले हैं डेमोक्रेसी का भार उठाने। कुछ भी हो, पी आर के भाई लोग बधाई के पात्र हैं। क्या चलन शुरू किया है, मेरी नजर में इस चलन से लोगों को पत्रकारिता को आइना दिखाने का भी मौका मिल गया है। लेकिन एक बात समझ से परे है कि आख़िर ये पियक्कड़ कैसे संभालेंगे इसका बोझ। कहीं ऐसा तो नहीं की इनकी हालत भी उस मजदूर की तरह हो गई है जिसे दारो पिए बिना काम नहीं होता। अगर ऐसा है तो दारू के सामने अपनी आबरू संभाले खड़ी है ये मीडिया। बचा सको तो बचा लो' अभी ऐड हावी है कल दारू हावी हो जाएगी। ख़बर नै पीपी लिखी जाएगी। सच खो जाएगा...

Tuesday, August 18, 2009

...जो दिल के काफी करीब हैं

दिन सलीके से उगा, रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही

चंद लम्हों को ही बनाती हैं मुसव्विर आँखें
जिंदगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही

इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही

फासला चाँद बना देता है हर पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही

शहर में सब को कहाँ मिलाती है रोने की फुरसत
अपनी इज्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही

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दीवार--दर से उतर के परछाइयां बोलती हैं
कोई नहीं बोलता जब, तनहाइयां बोलती हैं

परदेस के रास्ते में लुटते कहाँ हैं मुसाफिर
हर पेड़ कहता है किस्सा, पुरवाइयां बोलती हैं

मौसम कहाँ मानता है तहजीब की बंदिशों को
जिस्मों से बाहर निकल के अंगडाइयां बोलती हैं

सुनने की मोहलत मिले तो आवाज़ है पतझडों में
उजड़ी हुई बस्तियों में आबादियाँ बोलती हैं

--निदा फाजली

Monday, August 10, 2009

...तो मुहब्बत नहीं मिलती

दिल में ना हो जुर्रत तो मुहब्बत नहीं मिलती
खैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती

कुछ लोग यूं ही शहर में हम से भी खफा हैं

हर एक से अपनी भी तबीयत नहीं मिलती

देखा था जिसे मैंने कोई और था शायद
वो कौन है जिस से तेरी सूरत नहीं मिलती
हंसते हुए चेहरों से है बाज़ार की जीनत
रोने को यहाँ वैसे भी फुर्सत नहीं मिलती
-निदा फाजली

Sunday, July 19, 2009

History Mystery


Abraham Lincoln was elected to Congress in 1846.
John F. Kennedy was elected to Congress in 1946.

Abraham Lincoln was elected President in 1860.
John F. Kennedy was elected President in 1960.

Both were particularly concerned with civil rights.
Both wives lost their children while living in the White House.


Both Presidents were shot on a Friday.
Both Presidents were shot in the head


Now it gets really weird.

Lincoln 's secretary was named Kennedy.
Kennedy's Secretary was named Lincoln .
Both were assassinated by Southerners.
Both were succeeded by Southerners named Johnson.

Andrew Johnson, who succeeded
Lincoln , was born in 1808.
Lyndon Johnson, who succeeded Kennedy, was born in 1908.


John Wilkes Booth, who assassinated Lincoln , was born in 1839.
Lee Harvey Oswald, who assassinated Kennedy, was born in 1939.

Both assassins were known by their three names.
Both names are composed of fifteen letters.


Now hang on to your seat.

Lincoln was shot at the theater named 'Ford.'
Kennedy was shot in a car called '
Lincoln ' made by 'Ford.'

Lincoln was shot in a theater and hi s assassin ran and hid in a warehouse.
Kennedy was shot from a warehouse and his assassin ran and hid in a theater.

Booth and Oswald were assassinated before their trials.


And here's the kicker...

A week before
Lincoln was shot, he was in Monroe , Maryland
A week before Kennedy was shot, he was with Marilyn Monroe.


Hey, this is one history lesson most people probably will not mind reading!

INCREDIBLE
1) Fold a NEW PINK $20 bill in half...


2) Fold again, taking care to fold it exactly as below 3) Fold t he other end, exactly as before

4) Now, simply turn it over...

What a coincidence! A simple geometric fold creates a catastrophic premonition printed on all $20 bills!!!
COINCIDENCE? YOU DECIDE


As if that wasn't enough. Here is what you've seen...

Firstly The Pentagon on fire...


Then The Twin Towers.

TRIPLE COINCIDENCE ON A SIMPLE $20 BILL
It gets even better!! 9 + 11=$20!!


Sunday, July 12, 2009

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या हो


ओ री दुनिया, ओ री दुनिया, ऐ दुनिया
सुरमई आंखों के प्यालों की दुनिया ओ दुनिया
सुरमई आंखों के प्यालों की दुनिया ओ दुनिया
सतरंगी रंगों गुलालों की दुनिया ओ दुनिया
सतरंगी रंगों गुलालों की दुनिया ओ दुनिया

अलसाई सेजों के फूलों की दुनिया ओ दुनिया
अंगड़ाई तोड़े कबूतर की दुनिया ओ दुनिया
ऐ कुरवत ले सोई क़यामत की दुनिया ओ दुनिया
दीवानी होती तबीयत की दुनिया ओ दुनिया
ख्वाहिश में लिपटी ज़रूरत की दुनिया ओ दुनिया
है इंसान के सपनों की नीयत की दुनिया ओ दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है

ममता की बिखरी कहानी की दुनिया ओ दुनिया
बहनों की सिसकी जवानी की दुनिया ओ दुनिया
आदम के हवास रिश्ते की दुनिया ओ दुनिया
है शायर के फीके लफ्जों की दुनिया ओ दुनिया
गालिब के मौमिन के ख्वाबों की दुनिया ओ दुनिया
मजाजों के उन इंक़लाबों की दुनिया
फैज़े फिरको साहिर उमक्दुम मील की जोकू किताबों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
पलछिन में बातें चली जाती हैं
रह जाता है सवेरा वो ढूंढे
जलते मकान के बसेरा वो ढूंढे
जैसी बची है वैसी की वैसी , बचा लो ये दुनिया
अपना समझ के अपनों के जैसी उठा लो ये दुनिया
छिटपुट सी बातों में जलने लगेगी बचा लो दुनिया
कट पिट के रातों में पलने लगेगी बचा लो ये दुनिया
ओ री दुनिया ओ री दुनिया वो कहते हैं की दुनिया
ये इतनी नहीं है सितारों के आगे जहाँ और भी है
ये हम ही नहीं हैं वहां और भी हैं
हमारी हर एक बात होती वहां है
हमें ऐतराज़ नहीं है कहीं भी
वो आई जामिल पे सही है
मगर फलसफा ये बिगड़ जाता है जो
वो कहते हैं आलिम ये कहता वहां इश्वर है
फाजिल ये कहता वहां अल्लाह है
काबुर ये कहता वहां इस्सा है
मंजिल ये कहती तब इन्सां से की
तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया
ये उजडे हुए चंद बासी चिरागों
तुम्हारी ये काले इरादों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या हो

साभार गुलाल

Thursday, July 9, 2009

सफर में धूप तो होगी....

सफर में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
इधर उधर कई मंजिलें हैं जो चल सको तो चलो
बने बनाये हैं सांचे जो ढल सको तो चलो
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिराकर अगर तुम संभल सको तो चलो
यही है ज़िन्दगी कुछ ख्वाब चंद उम्मीदें
इन्ही खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो
हर एक सफर को है महफूज़ रास्तों की तलाश
हिफज़तों की रवायत बदल सको तो चलो
कहीं नहीं कोई सूरज धुआं धुआं है फिजा
ख़ुद अपने आप से बहार निकल सको तो चलो...
(ये वो मरहम है जो मुझे उस वक्त मिल गया था जब मैं चलना सीख रहा था, किसी महान शख्सीयत ने लिखा है। शायद निदा फाज़ली )

Wednesday, June 3, 2009

जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए

कितना खूबसूरत गाना है न ये। वाकई। इस गाने की सिर्फ़ इस लाइन को अपनी जिंदगी से जोड़ के देखिये मजा आ जाता है। लगता है कि आजाद पंछी हैं हम, न कोई बंदिश है न ही कोई ठहराव। सिर्फ़ अनंत आकाश है और सपनों को परवाज़ मिल गए हैं। ख़ास बात है कि इन्हे कोई कतरने वाला भी नहीं है...आसमान अपना है और उड़ान की कोई सीमा नहीं है। सोचिये सिर्फ़ इतना सा बदलाव आ जाए तो कितना सुख मिलता है।
मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, या कहिये ऐसा ही एहसास हुआ। और सारी टेंशन छू मंतर हो गई। लगा जैसे प्यार में असीम ताकत है, इसके आगे कोई दुःख का अस्तित्व नहीं है । सारी परेशानियाँ बस यहाँ आकर थम जाती हैं, और धीरे से खुशी चेहरे पर वापस आ जाती है। सही कहा गया है कि आपको कितना भी क्यों न पता हो, कोई दूसरा वही बात कहता है तो असर करती है। मुझे एक सबक मिला। सबको लेना चाहिए। तभी जिंदगी का कोई मतलब है। एक जिंदगी है जिसे हम संवार सकते हैं।
किसके चेहरे पे उदासी रंग लाती है।
ये जालिम दुनिया ही खूब सताती है॥
हमारे चेहरे पर भी हँसी खिल के आती है, जब
एक अदनी सी खुशी भी झिलमिलाती है॥

Saturday, May 30, 2009

संवेदनशीलता, मैं और बिग बैंग

ये यूनिवर्स भी तो धूल की तरह है... न कुछ नया है न कुछ पुराना। बिग बैंग फिर कुछ कण, कुछ क्षण फिर ब्लैक होल. फिर एक और बिग बैंग. जीवन का यही फसाना है एक धुंध से आना है एक धुंध में जाना है.

जब भी इसे पढ़ता हूँ शरीर में अजीब सी ताकत का एहसास होता है। लगता है की मैं भी कहाँ छोटी छोटी बातों में उलझ जाता हूँ। बस एक बिग बैंग और जिंदगी नए ट्रैक पर होगी। न कुछ नया होगा न कुछ पुराना। नया होगा...ब्लैक होल। और कुछ कद जो इधर से उधर होंगे. फ़िर भी लंबा सफर तय करना है। कई राहों पर चलना होगा, नए मील के पत्थर रखने होंगे। इसके लिए ऐसे कई बिग बैंग हो जायें तो क्या!

लेकिन सवाल ये है की हम धुंध की विवेचना किस रूप में करें। इस धुंध में न जाने कितने मतलब छिपे हैं। मैं तो एक धुंध से निकलकर प्रकाश पुंज में जाना चाहता हूँ। फ़िर ये भी तो एक प्रकाश पुंज है। सीखने को हर लम्हे ने कुछ न कुछ दिया है न। फ़िर धुंध कैसा?
शायद सोच और व्यवहार का।
सोच में भी धुंध है...देखिये तो हर अज्ञानता भरा वाक्य धुंध का ही तो पर्याय है... और वोही व्यव्हार में झलकता है जो की बहुत दर्द देता है।
क्यों न इस धुंध के असल मतलब को तलाश के अपनी जिंदगी के बचे- कुचे दिनों को तराशा जाए....
जिंदगी को मुस्कराने दिया जाए... न जाने कल हो न हो॥

Monday, May 25, 2009

अपनी इज्जत अपने हाथ

एक जानने वाले हैं मेरे। काफी गरम मिजाज। कुछ दिन पहले कुछ बात चली। मजाक मजाक में उनकी आवाज़ थोडी व्यंगात्मक और तल्ख़ हो गई. लगा जैसे उनके दिल की बात बहार गई। उसमें काफी तड़प थी, लगा जैसे वो नहीं उनकी कसमसाहट बोली। कहा 'कल फ़िर झूट से सुबह की शुरुआत होगी, वोही तेल लगना होगा, चार पुलिस वालों को गरियाकर खुश हो जायेंगे। सोचेंगे बड़े पत्रकार हैं।' क्या यही स्तर रह गया है पत्रकारिता का? क्या हर पत्रकार कमोबेश ऐसा ही सोचता है?
यह सोचना जरुरी है...कहीं हम अपने लिए ही तो गड्ढा नही खोद रहे हैं। हम सबको अपनी सीमा बनानी होगी....

Friday, April 24, 2009

कोशिशें जरी रहेंगी..



काफी दिनों से एक कोशिश कर रहा था। एक नेक काम करने की। देश के लिए कुछ करने की ठानी थी। सोचा था ये शुरुआत बदलाव लाएगी। देश की सोच बदलेगी और न जाने क्या क्या। बस एक हफ्ते पहले की बात है। ऑफिस में यूँ ही कुछ बात चली। एक विचार आया। वोटर अवारेनेस कम्पैन का। गांव में काम किया ही हुआ था तो सोचा शहर में भी कर ले जायेंगे और रिजल्ट अच्छे होंगे। पर हमने सोचा कि हम सिर्फ़ युवाओं को ही जागरूक करने का काम करेंगे। बस उसी शाम बात की और अपने एक साथी के साथ जी जान से लग गए इस काम में । अगले दिन बैठे और रात ३ बजे तक प्रोपोसल बनाया की कुछ स्पांसर मिल जायेंगे। देश के लिए तो बहुत लोग आगे आयेंगे ऐसा सोचकर अगली सुबह से लोगों को फ़ोन लगना शुरू कर दिया, एक नामचीन हस्ती से भी बात कर ली ताकि युवा जमा हो जायें और हमारा संदेश सब तक पहुँच जाए। बातें चल रही थी, पहली शाम तक लगा सब कुछ धमाकेदार अंदाज़ में होगा। फ़िर कुछ और लोगों से बात करने की हिम्मत मिली, दौड़ भाग की, लोगों के दफ्तर गए, मिले, अपना प्लान समझाया, कईयों को फ़ोन कर करके खूब समझाया..सबने तारीफ की....
.... पता नहीं खुदा को क्या मंजूर था , और हमारा इवेंट नही हो सका, मन टूट सा गया। लगा जाने क्या कमी रह गई। सारी मेहनत बेजान सी लगने लगी। फ़िर पिछले ७ दिनों में आए बदलाव पर गौर फ़रमाया, लगा अभी तो शुरुआत है, बहुत लंबा सफर तय करना है। फ़िर ऐसी चोटें ही तो मजबूती देंगी। लगता है कि सब कुछ मुमकिन है ज़िंदगी की
इस किताब में। इसकी कहानी हम ख़ुद लखते हैं। अच्छे शब्द वाक्यों में तब्दील होंगे और किताब में जान आ जाएगी। लेकिन इस कोशिश (जो साकार थी पर परिणाम नही मिले) कई कोशिशों के लिए प्रेरित करेगी।
और एक दिन मैं इस देश कि तस्वीर बदलूंगा।

Thursday, April 2, 2009

मैं आजाद होना चाहता हूँ


आज न जाने कैसे उस ब्लॉग पर गया। जखम ताजे हो गए। हर बार मेरे मन में कुछ सवाल उठते जब भी मैं किसी नए काम की शुरुआत करता। काफी दिनों से अपने अन्दर के उस जिज्ञासु पगले को एक बंद अंधेरे कमरे में कैद कर रखा था। आज तेज हवाओं ने उस दरवाजे की खिड़की खोली और आवाजें जोर जोर से बहार आने लगीं। फ़िर वही सवाल, किसके लिए काम कर रहे हो? अच्छा ये सब करके क्या पाओगे? तुम तो शान्ति चाहते थे न तो किसी ऐसी जागे क्यों नहीं जाते जहाँ तुम्हे कोई नही जनता? अपने लिए कब जीना शुरू करोगे? कब तक अपने दिमाग को सिर्फ़ जी हुजूरी और बाबूगिरी में लगोगे? ऐसे न जाने कितने सवाल बारी बारी दिमाग पर खटखटा रहे हैं... शोर हद से ज्यादा बढ़ता है तो कोशिश कर रहा हूँ क्यों न ये सवाल जवाब हमेशा की तरह यही कहकर टाल दिए जाएं की जिंदगी अपने लिए जी तो क्या किया? लगता है की कहीं स्वार्थी समाज की सोच से प्रभावित तो नहीं हो रहा हूँ। माँ बाप ने यही सोचा होता तो कहाँ होते हम? जिन्होंने बेशुमार प्यार लुटाया उनके लिए एक जिंदगी कुर्बान ही सही...पर ऐसी भी क्या जिंदगी जिसमे कदम कदम पर धोखा है और रास्तों पर सिर्फ़ और सिर्फ़ झूठ के ढेर लगे हैं....
ये जिंदगी भी अजीब है और उससे भी कहीं अजीब हैं ये मेरे सवालों का बेतरतीब सफर। हर बार मेरे लिए सन्यास का रास्ता प्रशस्त करने का मौका ढूंढ़ता है पगला। लेकिन सच कहूँ तो ये सवाल काफी संजीदा हैं...नहीं ये तो बचकाने सवाल हैं..होंगे। पर मेरे पास कोई जवाब नहीं। शायद जिंदगी का एक दिन ऐसा भी होगा जब मैं इन सवालों का दिल खोल जवाब दूँगा। मैं उदास नहीं, लिखने के बाद वैसे ही जिऊंगा जैसा दुनिया में चलता है। पर मौका मिला तो...देखते हैं।
शब्बखैर। । ।
कुछ ऐसा ही लिखा जाता है जब मन की आवाज़ शब्द में तब्दील होती जाती है...

Friday, March 27, 2009

चलते चलते यूँ ही कुछ मिल गया है....

'एक ही काम है जयो तुम्हें करना चाहिए - अपने में लौट जाओ। उस केन्द्र को ढूंढो जो तुम्हें लिखने का आदेश देता है। जानने की कोशिश करो कि क्या इस बाध्यता ने तुम्हारे भीतर अपनी जड़ें फैला ली हैं ? अपने से पूछो कि यदि तुम्हें लिखने की मनाही हो जाए तो क्या तुम जीवित रहना चाहोगे ?...अपने को टटोलो...इस गंभीरतम ऊहापोह के अंत में साफ-सुथरी समर्थ 'हाँ'' सुनने को मिले, तभी तुम्हें अपने जीवन का निर्माण इस अनिवार्यता के मुताबिक करना चाहिए।'
ये एक मशहूर लेख़क रिल्के की कही बात है।

Thursday, March 12, 2009

पाकिस्तान में वर्ल्ड कप होगा


सुना है कि पाकिस्तान में क्रिकेट वर्ल्ड कप होने वाला है। बहुत खुशी हुई जानकर! आप सभी जानते होंगे कि अफगानिस्तान को प्यार आया है। कुछ भी कहिए पर नजारा काफी खुबसूरत होगा। क्यो? आपकी क्या राय है। सोच रहा हूँ कि कौन कौन सी टीम हिस्सा लेंगी। आपको अंदाजा है? शायद इन दोनों मुल्कों को ही अंदाजा होगा। फ़िर भी मुझे लगता है कि वर्ल्ड के सभी आतंकवादी संगठनों की टीमें होंगी। अल कायदा, अल मुजाहिद्दीन और न जाने कितने और... अपने मुल्क की टीम भी जाएगी..सिमी की टीम। मैच रेफरी तो डी कंपनी के आला दाऊद भाई ही करेंगे। अच्छा किसी बॉलर ने उंगली दिखाई या कोई कमेन्ट कर दिया तो क्या होगा। थर्ड अंपायर की जरुरत नहीं होगी। २-४ ऐ के ४७ चलेंगी और हो जाएगा काम। मैन ऑफ़ द मैच क्या मिलेगा॥ किसी पत्रकार की लाश या किसी जगह बम धमाके। मैच ऑफ़ द सीरीज़...खैर कुछ नया अपडेट मिला तो बताऊंगा...तब तक इंतज़ार कीजिए...

Saturday, February 7, 2009

यादों पे धूल जम गई थी, आज हटाई तो खूब निकले मेरे एहसास

आज फ़िर उस कस्बे की सैर की,
वहां अजीब सी रूमानियत और चुभन का एहसास हुआ।
वहां कुछ सवाल थे, मेरे जेहन में तुंरत कुछ पंक्तियाँ आने लगी।
शायद उस चुभन का जवाब...
पुरानी यादों में हर लम्हा तो खुशगवार नहीं था
हर दोस्त दिलदार तो नहीं था
मिले कई और बिछडे भी कई पर बचपने का अहसास कहीं खो सा गया था
एक मुकम्मल राह की तलाश में
न जाने कितने दोस्तों को खोया
उन्होंने नहीं समझा
हमारी मजबूरी ने समझने न दिया
फ़िर भी याद आते हैं वो दिन
वो वक्त जिसपे हमारा बस था
वो शामें जो खुश थी
मुस्कुराती थी
और हमारी हर ख्वाहिश समझ जाती थी
जिस वक्त की कोई मांग नहीं थी
न ही कोई दोस्ती किसी मतलब की मोहताज थी
याद आती हैं वो शामें
जब हम बिना कुछ कहे दोस्ती के लिए लड़ जाते थे
घर लौटते हुए खेलने के लिए मुड़ जाते थे
न सवाल थे और न जवाब पाने की हसरत
फ़िर आज
कितना बदला बदला सा है सब
एक पल कोई अपना लगता है
तो दूसरे पल उसी दोस्ती पर कोफ्त होती है
न जाने ऐसी क्यों हो गई दोस्ती
कहीं साफगोई खो तो नहीं गई?
या हम जरुरत से ज्यादा सोचने लगे
या यूँ समझिये
ज़िन्दगी में एक मुकम्मल राह और मुकाम की तलाश में
दोस्तों के बगैर
हमें बडबडाना आ गया है
शायद ये ज़िन्दगी की खेल है
उसे भी इस बहने अपना मन बहलाना आ गया है....

Tuesday, January 20, 2009

खोजते रहिए जवाब, सवालों से मिलेगा मुकाम.


याद कीजिए, जब आपने बोलना सीखा था. पहला शब्द क्या कहा था? जाहिर सी बात है मां या पापा ही बोला होगा. फिर हर बात पर सवाल पूछने का सिलसिला शुरू हुआ होगा, जिसका अहसास हमें भले ही ना हुआ हो पर मम्मी-पापा हर किसी रिलेटिव से यही कहते थे मेरा बच्चा तो बहुत सवाल पूछता है. उस वक्त हर एक बात के लिए हमारे जेहन में सवाल होते थे. रोड पर घूमते वेंडर्स और हॉकर्स हों या फिर मंदिर में पूजा करते पुजारी, सबके लिए हमारे पास सवाल होते थे. हम चाहते थे कि सच जवाब मिले, जो संतुष्ट करे.
जैसे-जैसे हमारा शरीर विकसित होता है और हम बाहर की दुनिया को देखने-समझते हैं, ढेरों सवाल भी खुदबखुद अपना वजूद पुख्ता करते जाते हैं. कभी सवाल टीचर्स की मार का सबब बनते हैं तो कभी शाबाशी भी दिलाते हैं. पर जहां तक मेरी समझ है, सवाल जिंदगी के लिए बहुत अहम होते हैं. जब तक सवाल हैं, जिंदगी जीने की एक वजह रहती है और अगर सवाल खत्म हो जाएं तो शायद जिंदगी में रस कम हो जाता है. सवाल ही हैं जो तरक्की का रास्ता दिखाते हैं, राहों पर आने वाली प्रॉब्लम्स से जूझने की हिम्मत देते हैं. यकीन मानिए जवाबों की तलाश बहुत ही एडवेंचरस होती है, कभी डूबिए सवालों में, उसका मजा कुछ और ही है.

Sunday, January 11, 2009

अ जर्नी टु हेप्पीनेस


ये नया साल मेरे लिए किसी पुराने साल की ही तरह है। हाँ, हर बार थोड़ा देर से लिखता था इस बार कुछ ज्यादा ही व्यस्तताएं रहीं। वक्त भाग रहा था, हम भी इसे पकड़ने की कोशिश में अपनी रफ्तार बढ़ा रहे थे। देर कर दी। सोचा था पहली तारीख को ही कलम तोड़ दूंगा। पर ये मानव स्वभाव मुझ पर भी हावी है। आलस की कोई सीमा नही है। कभी विचारों को एक रूपता न दे पाने की वजह से नही लिखा तो कभी सोच क्यों न कोई अच्छा विचार आए तो इस नए साल की शुरुआत करूँ। बहरहाल, नए साल में मैं कूद पड़ा हूँ नई उमंग और ख़ुद से किए कुछ नए वादों के साथ। आज कल काफी कुछ करने का मन करता है। रोज नए क्रिएटिव विचार खदबदाते हैं। सोचता हूँ दुनिया में अपना भी एक मुकाम होगा। वो भी मुकम्मल। फ़िर ये मुकाम यूँ ही तो हासिल होगा नहीं। सोच रहा हूँ क्यों न अपनी जरूरतों को भूल कर अपनी मेहनत को दूसरी दिशा दूँ। कभी कैट क्वालीफाई करने का ख्याल आता है तो कभी कुछ और करने का। जानते हैं क्यों। क्युकी मुझे खुशियों की तलाश है। काफी कुछ कर रहा हूँ , कुछ शुरू करने की भी सोच रहा हूँ। फ़िर पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मन करता है कि अगर कुछ बन गया तो मैं भी एक बुक लिखूंगा। नाम रखूँगा अ जर्नी टु हेप्पीनेस।ऐसा ही कुछ सोच रहा था कि एक मूवी देखने को मिली। उसका नाम भी मेरी होने वाली किताब के नाम से मिलता जुलता था। सोचा क्यों न देखी जाए। हो सकता है अपने मतलब की हो। बस देख डाली। देख कर उठा तो काफी देर तक कुछ सोच नहीं पाया। शायद उस मूवी का हेंग ओवर उतरा नहीं था। फ़िर सोचता हूँ कि अभी तो काफी तय करना है। बड़ा कोई यूँ ही नही बन जाता। मैं तो फ़िर भी बहुत खुश हूँ। मुझे टुकडों में दुःख मिले हैं उस इंसान को एक साथ सब झेलना पड़ा। लेकिन रिस्कतो लेना ही पड़ेगा। शायद तभी मेरी किताब को टर्निंग पॉइंट मिले। फ़िर अभीतक जितना समेट है उसमे सिर्फ़ और सिर्फआंसुओं का रस ही तो है। इंतज़ार और सही लेकिन वादा रहा हम भी कुछ करेंगे..मेरी आत्मकथा क्जरुर पढिएगा। तब तक के लिए काफी कुछ लिखना है, काफी कुछ पढ़ना है। रोना है, हसना है और एहसासों को जिन्दा रखना है...
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