Saturday, June 26, 2010

अगले जनम मोहे दिल न दीजो...(ऑनर किलिंग, एक जाहिल सोच और हम )



न जाने कब से दिखावे के लिए खून बहाया जा रहा है। उसे विभिन्न तर्कों के माध्यम से सही भी ठहराया जा रहा है। बीते कुछ वर्षों में इसे अच्छा सा मॉडर्न नाम भी मिल गया है। ऑनर किलिंग। लगता है कोई गौरवान्वित करने वाला मिशन है, शायद यही वजह है कि मंदीप, अंकित और नकुल जैसे युवा बड़ी शान से अपनी बहन और उसके पति का खून बहा देते हैं। एक पूरा समाज इसे सही ठहराता है। इस समाज के युवा वर्ग के चेहरे पर तेज को देखकर लगता है ये बहुत खुश हैं। कल ये भी कुछ ऐसा करने में गर्व महसूस करेंगे। इनके परिवार या समाज की किसी लड़की ने प्रेम किया तो ये उसे भी मोनिका और शोभा की तरह मार देंगे।

फिर...उसके बाद क्या? क्या वो पर्व मनाएंगे? उत्सव मनाएंगे? क्या करेंगे वो? क्या करेगा वो समाज? क्या प्रेम होने से रोक लेगा? क्या दिल को धड़कने से रोक लेगा? क्या भावनाओं में कोई परिवर्तन कर पाएगा? क्या माओं को बिटिया जनने से रोक लेगा? क्या अपनी बहन-बेटी की आँखें किसी दूसरी जात वाले से मिलने से रोक लेगा? क्या ये मुमकिन होगा? नहीं तो खून बहाता रहेगा ये समाज. माएं सहमेंगी और दुआ करेंगी कि अगले जमन वो बिटिया न जनें. लेकिन उस पर उनका बस कहाँ. वो इतना तो जरुर कहेंगी कि कम से कम अगले जनम मोहे दिल न दीजो.

ये निराशावादी है लेकिन क्या करूँ? मेरे शब्दों में इतनी ताकत नहीं कि ये इस समाज को बदल सकें. फिर, हमारे जैसे बहुत से लोग ही जब इस समाज के रीत रिवाजों का समर्थन कर रहें हैं तो ये काम और भी असंभव लगता है. आये दिन बहस छिड़ती है और होते होते वो पुरुष बनाम स्त्री हो जाती है. कुछ महाशय उन रूढ़िवादियों का समर्थन करते हैं जिन्हें अपनी कथित इज्जत से इतना लगाव् है कि वो उसके लिए अपनी बच्ची की जान भी ले सकते हैं. यहाँ मेरा मन मुझसे एक सवाल पूछता है कि वो पिता अपनी हवस कि उपज को maarta है या अपनी बेटी को? जवाब हत्या खुद बी खुद बता देती है. एक न्यूज़ चैनल पर कल इसी मुद्दे पर बहस छिड़ी थी. कुछ महिलाएं ऑनर किलिंग का विरोध कर रही थी, एक पुरुषवादी और इज्जतवादी ने जवाब दिया कि अगर सोच महज दिखावा होती है तो कपड़े उतार कर घूमिये. और न जाने कैसे अनाप शनाप तर्क दिए. ये सोच कहाँ से पनपती है, ये तो मैं नहीं जानता लेकिन इतना जरुर कह सकता हूँ कि ये सोच देश को गर्त में ही ले जाएगी.

हम सब को ये सच मान लेना चाहिए कि प्यार जात और गोत्र देखकर नहीं किया जा सकता. न ही ये रंग देखता है. ये जिस्म भी नहीं देखता. जिन क्षेत्रों में ये घटनाएँ हो रही हैं, उनका हाल किसी से छिपा नहीं है. वो पैसे वाले हो सकते हैं, लेकिन उनकी शिक्षा का स्तर जगजाहिर है. इसलिए हमें ऐसी सोच को तूल नहीं देना चाहिए. इसी में हमारे भविष्य की भलाई है. बल्कि हम सबको अपने अपने तरीके से इन लोगों का विरोध करनाहोगा ताकि ये इस जाहिल सोच को आगे न ले जा पाएं।

Thursday, June 24, 2010

२५ साल बाद हंगामा है क्यूँ बरपा...



भोपाल त्रासदी को २५ बरस से भी ज्यादा बीत चुके हैं। इस दौरान बहुत लोग अमर हुए। कुछ जिन्दा रहते हुए और कुछ मरने के बाद। रघु राय जीतेजी अमर हो गए तो वो बच्चा और वो बूढ़ा मर कर अमर हो गए जिन्हें रघु ने अपने कैमरे से देखा। इसके अलावा एंडरसन और कुछ दोषी भी अमर हो गए। साल २०१० भी जीते जी अमर हो रहा है। भोपाल त्रासदी के लिए। मुझे तो लगता है कि इस बरस हर कोई अमर हो जाना चाहता है। हर कोई इस त्रासदी की गंगा में डूबकी लगाना चाहता है। क्या पक्ष, क्या विपक्ष, क्या मीडिया, क्या समाज सेवी और क्या आन्दोलनकारी। सब कोई ये मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहते। न जाने इस बरस ऐसा क्या हुआ है...ये शोध का विषय है। आखिर पूरा देश अचानक भेड़ चाल क्यूँ चलने लगा...

देश की न्यायपालिका ने २५ बरस बाद जो न्याय दिया है, उसके बाद असली न्याय की मांग हो रही है। अदालत की कार्यवाही के पूरी होने के बाद दोषियों के खिलाफ सबूत न जाने किस बिल से निकल रहें हैं। वो प्रदर्शनकारी निकल रहें हैं, पीड़ित निकल रहें हैं, झंडे निकल रहें हैं, बैनर निकल रहें हैं जिन्हें हर दिन, हर घंटे, हर महीने और हर साल निकलना चाहिए था। समाजसेवी भी इस बरस जगे हैं। मीडिया के बारे में क्या कहूँ। आज इनके पास २५ साल पुराना विडिओ फुटेज है। हर वो कागज है जो दोषियों को २५ बरस पहले सलाखों के पीछे पहुंचा सकता था। क्यूँ किया गया इतने बरसों तक इंतज़ार। कोई बताये मुझे। आखिर क्यूँ २५ साल बाद अदालत का फैसला आता है। २५ साल यानि एक गरीब की आधी जिंदगी। आखिर किसलिए? क्या फायदा होगा इसका? क्या मकसद है इसके पीछे?

समझ नहीं आता की आखिर ये सब लोग इतने बरस किस मांद में सो रहे थे। ये कैसी नींद थी जो इतने बरस बाद टूटी है। ९१ साल का एंडरसन आ भी जाएगा इस देश में तो क्या कर लोगे उसे फांसी पर लटका कर। उसकी मौत से क्या उन बुजुर्गों को उनके परिवार वाले मिल जाएँगे जो दिसंबर की उस रात तड़प तड़प कर भोपाल की सड़कों पर मर गए। या लाखों लोगों को आँखें, फेफड़े और ख़राब हो चुके अंग वापस मिल जाएँगे। क्या १३२० करोड़ से उन लाखों लोगों को वो जिंदगी मिल जाएगी जो दिसंबर, १९८४ से पहले थी। जो जवाब मुझे मालूम है, शायद वही जवाब उस माँ का होगा जिसने अपने जवान सपने को अपनी गोद में मरते देखा होगा।

लेकिन इस सवाल का क्या करूँ, जो मुझे बीते एक महीने से परेशान कर रहा है। कौन है इसके पीछे? किसके इशारे पर ये अमरत्व पाने का खेल हो रहा है? अगर ये खेल नहीं तो और क्या है? सिलसिलेवार ढंग से ये जो हो रहा है, वो काफी अजीब है। आखिर ८४ में भी दिग्गज पत्रकार थे, खबरें लिख सकते थे। उस समय क्यूँ नहीं लिखा गया कुछ। उस बरस न सही, उसके एक बरस, दो बरस...दस बरस, पंद्रह बरस बाद ही कुछ लिखा गया होता। इस बरस ही क्यूँ। कहाँ गए वो पत्रकार। कुछ भी हो, जो कुछ भी हो रहा है बहुत ही संदिग्ध है और इसमें सच का आभास तनिक भी नहीं है।

Wednesday, June 16, 2010

ये हैं जनाब ''बटन''...


बड़े बुजुर्ग हमेशा कहते रहें हैं कि एक दिन ये विज्ञान हम सबकी मजबूरी बन जाएगा। इसका एक एक अविष्कार हमें अपने इशारे पर नचाएगा। हम नाचेंगे, बसंती की तरह। कोई वीरू ये कहने के लिए भी नहीं होगा कि इन कुत्तों के सामने मत नाचना..। ऐसे ही एक अविष्कार से मैं आपकी मुलाक़ात करता हूँ। सोच कर देखिये, ये जनाब न हों तो हमारा क्या होगा। दिन-रात और शाम, सब कुछ अधूरी होगी।

ये हैं जनाब बटन, इनसे तो आप सबका परिचय होगा। ज़िन्दगी में सब कुछ बटन ही तो है। ये जनाब न हों तो कैसे जिएंगे हम लोग। दुनिया रुक जाएगी। न सुबह का पता चलेगा, शाम भी आकर गाजर जाएगी और हम बेखबर रह जाएँगे।

सुबह से शाम तक मैं इसकी जरुरत देखता हूँ तो डर लगता है। बिस्तर से उठते ही मोबाइल का बटन दबाकर मैसेज और मिस कॉल चेक न करें तो पेट बेचैन हो जाएगा। ट्वायलेट की लाइट जालाने का बटन नहीं दबा तो प्रेशर नहीं बनेगा। किचेन में रखे चूल्हे का बटन न दबा तो चाय नहीं बनेगी और दिन भर खुद को और दूसरों को मजबूरन परेशां करना पड़ेगा। नाश्ता नहीं बनेगा। मिक्सी का बटन नहीं दबा तो मैंगो शेक और मिल्क शेक नहीं मिलेगा। प्रेस का बटन जनाब रूठ गए तो शर्ट भी शर्म के मरे सिकुड़ जाएगी। पैंट भी...

खैर, भूखे प्यासे घर से निकले और गाड़ी के बटन जनाब गुस्सा गए तो घिसिये चप्पल। ऑटो और बस में भी बटन जनाब का राज है। हाँ, रिक्शा और साईकिल ख़ुशी के मरे फूले नहीं समाएँगे। दफ्तर में लिफ्ट में भी बटन जनाब की हुकूमत। सीढियां गिनते गिनते सारे क्रिएटिव आइडिया फुर्र हो जाएँगे। एसी का बटन नहीं चला तो शरीर का पोर पोर रोने लगेगा। कंप्यूटर के बटन महाराज तो महान हैं, इनकी शान में गुस्ताखी हुई तो ये दुनिया सर पर उठा लेंगे। दुनिया ठहर जाएगी। सेंसेक्स से लेकर हवाई जहाज तक सब जमीन पर धड़ाम।

न मोबाईल चलेगा न कंप्यूटर, न ब्लॉग लिख पाएँगे न चिड़िया उदा पाएँगे। फेसबुक में चेहरा भी नहीं देख पाएँगे। न खबर, न ख़बरदार। न फक्ट्री न धुआं. न मिसाइल न न्यूक्लियर। न लड़ाई न मौत। न राजनीति न बिजनेस. सिर्फ जंगल राज। सब कुछ प्राकृतिक। हम सब आदिवासी हो जाएँगे कुछ ही दिनों में। अपनी जड़ों की ओर। अपने अतीत की ओर। प्रकृति खुश हो जाएगी। खूब फूल खिलेंगे। उनकी मुस्कान भी असली होगी. ताजी हवा सरसराएगी।

बीती तीन सदियों का खेल यूँ ही धरा का धरा रह जाएगा। लेकिन हम इंसान हैं। दुनिया की सबसे खूंखार उत्पत्ति। हम फिर दिमाग लगाएंगे। विज्ञान को नई राह देखेंगे। बटन का बाप बनेंगे। अबकी दुनिया 'तार तार' कर देंगे। लेकिन वो तार भी एक दिन रूठ गया तो क्या होगा....फिर वही। हम मानव बन जाएँगे। कुछ दिन के लिए ही सही। फिर किसी अवतार की जरुरत नहीं होगी। किसी २०१२ किसी अत्याधुनिक फिक्शन फिल्म की जरुरत नहीं होगी। न करियर की मार होगी न झूठ की परतें। काश ऐसा होता...लेकिन फिर वो डर पनपता है तो कैसा होता। क्या मैं जी पता उस काल में जहाँ से हम खुद को निकल कर यहाँ लाये। ये सोच यूँ ही लड़ते रहेंगी। खैर, आप हम मजा लेते हैं हमारे बटन जनाब की कहानी का। देखिये, इन्हें खफा मत होने दीजिएगा।
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