Wednesday, December 15, 2010

कभी...

कभी, दिल कुछ भी सुनता नहीं,
जब है जरूरी तभी
तब रोता है फिर कभी...

कभी...ये सांस रुक जाएगी
गर वो जो खो जाएगी
तब होगी गम की ख़ुशी

ओ कभी, मिल जाएगी जिंदगी
जब आएगी हर ख़ुशी
तब होगा हर पल हसीं...

कभी...वो दिन भी आ जायेगा
जब सब सुधर जाएगा
तब दिल भी मिल जाएगा

कभी, मैं दिल को समझाऊंगा
बस कर भी दिल की लगी
चोट तुझको है कल लगी...

फिर कभी, मैं दिल से बतलाऊंगा
जल जाने दे मुझको भी
गर ऐसी है ज़िन्दगी...

Thursday, December 9, 2010

...आखिर हमनें ऐसा क्या किया

लम्हे पकड़ते, कुछ तुमसे कहते
पहले ही तुमने हमें भुला दिया
आखिर हमनें ऐसा क्या किया

ज़िन्दगी साथ बुनते, वक़्त की धुनें सुनते
पहले ही तुमने मुंह मोड़ लिया
आखिर हमने ऐसा क्या किया

बागबां बनाते, सपने सजाते
पहले ही तुमने ना कह दिया
आखिर हमने ऐसा क्या किया

कितने रतजगे, कितने फलसफे
पल भर में तुमने सबको भुला दिया
आखिर हमने ऐसा क्या किया

कितनी कशिश, कितने रंजोगम
फिर से तुमने यूँ सहला दिया
आखिर हमने ऐसा क्या किया...
-----------------निखिल श्रीवास्तव

Sunday, December 5, 2010

...झूठ बोलकर

मैं सच की रौशनी बिखेरने में ही लगा रहा,
तमाम लोग बन गए महान झूठ बोलकर।

मेरी ख़ुशी बिछुड़ कर मुझसे चैन कैसे पा गई,
किसी ने भर दिए थे उसके कान झूठ बोलकर।

बढ़ा न पाया कोई अपनी शान झूठ बोलकर,
मगर वो छू रहें हैं आसमान झूठ बोलकर।

कभी तो सच्ची बात कर, कभी तो सबसे प्यार कर,
चली है किसकी उम्रभर दुकान झूठ बोलकर।

हकीक़तों से मुंह मोड़ने का मशविरा न दो मुझे,
तुम ही चलाओ अपना खानदान झूठ बोलकर।
(महेंद्र कुमार श्रीवास्तव)

जनता हूँ सच नहीं बोल पाओगे,
हमें मत बहलाओ झूठ बोलकर।

बड़ी बड़ी बातें कहते हो हर जगह,
इतिहास तो मत बनाओ झूठ बोलकर।

किसी को तनहा छोड़ने से पहले,
अपना तो न बनाओ झूठ बोलकर।

हाथ की लकीरें रातों रात नहीं बदलती,
हमें नींद से न जगाओ झूठ बोलकर।
(निखिल श्रीवास्तव)

Sunday, November 14, 2010

प्यार, अधूरा मैं और समाज



समाज शब्द से नफरत सी होने लगी है। इसने मेरे सारे सपनों को बिखेर दिया है। इसे ऐसा करने से रोकने की कोशिश बहुत की लेकिन सारी कोशिशें नाकाम जाती रहीं। इसीलिए आज बहुत से सवाल हैं। जवाब नहीं मिल रहा और न ही कोई रास्ता नजर आ रहा है जो मेरी दुविधा के हल से मुझे मिलाये।

ये कैसा समाज है? ये किसका समाज है? और इस समाज का क्या काम है? ये समाज किसे क्या देता है? इस समाज से किसका कितना जीवन संवरता है? प्रेम का ठेकेदार क्यूँ है ये समाज? समाज के सामने प्रेम क्यूँ हारने लगता है? हम समाज के निरर्थक और दकियानूसी तानों से बचने के लिए क्यूँ अपने बच्चों की खुशियों का गला ख़ुशी ख़ुशी घोंट देते हैं? और ऐसे मां बाप को क्या संज्ञा दी जानी चाहिए जो प्रेम विवाह रोकने के लिए अपने बच्चों को जान से मार देने पर उतारू हो जाते हैं ?

उस लड़की का क्या कसूर है जो अपने मां बाप की ख़ुशी के लिए अपनी ज़िन्दगी कुर्बान कर रही है? उस लड़के का क्या कसूर जिसने अपनी प्रेमिका को ही धड़कन समझ लिया? उस लड़के का क्या कसूर प्रेम को प्रथाओं से ऊपर समझा? दोनों का क्या कसूर जो उन्होंने समझ लिया कि वक़्त के साथ लोगों की सोच भी बदल जाती है? और दोनों के जुदा हो जाने से समाज को क्या मिलेगा? क्या समाज वाह वाही करेगा उस मां बाप की? सम्मानित करेगा उस परिवार को जिसने एक अंधे और बहरे समाज के लिए दो जिंदगियों का गला घोंट दिया?

किसे दोष दूँ, ये भी मैं समझ नहीं पा रहा हूँ. दिमाग सवालों का घर बन गया है। प्रेम के सुनहरे ख्वाबगाह को तहस नहस होते देखना कितना दुखदाई है इसे बयां करना भी बेहद मुश्किल है। भावनाओं के सामने शब्द इतने अदने लग रहे हैं कि उन्हें लिखने का भी मन नहीं। लेकिन क्या करूँ, इस समाज को ऐसे ही प्यार का क़त्ल करते और नहीं देख सकता। आज मैं समझ सकता हूँ विरह क्या है। आज मैं महसूस कर रहा हूँ कि वियोग क्या है। और कतई नहीं चाहता कि प्रेम यूँ ही घुट घुट कर मरता रहे। वो भी एक ऐसी सोच के सामने जिससे किसी का भला नहीं। जो सिर्फ और सिर्फ नफरत और दर्द को जन्म दे वो सही कैसे हो सकता है? कब तक हम समाज की व्यर्थ रुढियों के सामने घुटने टेकते रहेंगे। आखिर कब तक...

सुना था प्रेम बहुत शक्तिशाली होता है। पर क्या यह इतना कमजोर होता है जितना की आज मुझे प्रतीत हो रहा है...

Saturday, September 25, 2010

कॉमनवेल्थ न कराकर देश की तस्वीर बदल सकते थे...

एक बार इनसे पूछा होता कि उन्हें बेटन चाहिए या अच्छी एजुकेशन।

शर्म नहीं आई इन्हें देश की इज्जत को मिटटी में मिलाकर

ये बच्चे जवाहर लाल नेहरु स्टेडियम के बाहर हैंइनकी शिक्षा के बारे में ही सोचा होता

कॉमनवेल्थ गेम्स चर्चा में है पहली बार भारत में हो रहा है करीब सत्तर हज़ार करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं ख़ास बात ये है कि ये अब तक का सबसे महंगा कॉमनवेल्थ गेम है इसमें हो रहे घोटाले भी उजागर किये जा रहे हैं आएदिन सवाल उठ रहा है कि क्या भारत ये खेल कराने के लिए तैयार था ऐसे ही सवालों ने सोचने पर मजबूर किया कि क्या इस वक़्त की सबसे बड़ी जरूरत कॉमनवेल्थ गेम्स ही थी? क्या यही एक तरीका है जिससे हम आज विश्व पटल पर अपना नाम सुनहरे अक्षरों में अंकित करवा सकते हैं (सभी जानते हैं कि हमें कितनी प्रसिद्धि मिल रही है इस आयोजन के लिए) ? क्या और तरीके नहीं हैं विश्व के सामने एक मिसाल बनकर उभरने के? क्या सुरेश कलमाड़ी, ललित भनोत और चंद लोग इतने ताकतवर हैं कि सरकार इनके आगे नतमस्तक होकर हाँ में हाँ मिला देती है? क्या ऐसे ही लोग तय करेंगे हमारे देश का भविष्य?

हर दिशा से इन सारे सवालों का जवाब एक ही आता है...कतई नहीं। पूरा विश्व जनता है कि हम एक विकासशील देश हैं। आज जरूरत है अपने आधारभूत ढांचे को मजबूत करने की। गेम्स कहीं भागे नहीं जा रहे हैं। चार या आठ साल बाद हम दमदार तरीके से गेम्स को घर लाते (बिना दूसरे देशों को पैसे दिए) तो क्या दिक्कत थी। इस बीच हम शिक्षा पर अगर इतना ही पैसा खर्च करते और इनती ही तेजी से काम करते जितना आजकल गेम्स और भारत की लाज बचने के लिए सरकार कर रही है तो हम बहुत बेहतर स्थिति में होते।

प्राथमिक शिक्षा का क्या स्तर है, ये किसी से छिपा नहीं है। सोचा जा सकता है कि (2009-10) में शिक्षा का निर्धारित बजट इस गेम के आयोजन की राशि का आधा भी नहीं है ( 31,036 करोड़ रुपये)। इतने पैसे से हम शिक्षा की तस्वीर बदल सकते थे, पर ऐसा नहीं किया गया। कभी ये नहीं सोचा गया होगा कि हमारे देश में एमआईटी, कैम्ब्रिज और हार्वर्ड जैसा शिक्षा संस्थान क्यूँ नहीं है। सिब्बल साहब ने नहीं सोचा होगा कि विज्ञान के क्षेत्र में आखिर हम अग्रिणी क्यूँ नहीं बन पा रहे? क्यूँ हमारे देश के अव्वल युवा विदेशों के नौकर बनना पसंद करते हैं? क्यूँ हम शिक्षा व्यवस्था को पारदर्शी और मजबूत नहीं बना पा रहे? क्यूँ ये नौबत आती है कि अचानक हमारी कुम्भकरणी नींद टूटती है और हम फरमान जारी कर देते हैं ४४ डीम्ड विश्वविद्यालयों की मान्यता रद्द कर देने का? क्यूँ हम नहीं सोचते कि केवल १५% बच्चे ही हाईस्कूल क्यूँ जा पाते हैं? बाकी ८५% बच्चे कहाँ हैं? यूनेस्को की रिपोर्ट क्यूँ कहती है कि ''India has the lowest public expenditure on higher education per student in the world''? क्यूँ हम दुनिया को देखकर भी सबक नहीं ले पा रहे। इन सभी सवालों का जवाब था हमारे पास, लेकिन तब एक ऐसे गेम को रास्ता दिया गया जिसका कोई आधार ही नहीं था अपने देश में। सारा पैसा चंद लोगों के पेट रूपी गटर में गया और हम फिर वहीं के वहीं खड़े रह गए। चंद दिनों के खेल के बाद कुछ दिनों तक हिसाब किताब किया जाएगा। मुनाफा और घटा गिनाया जाएगा और फिर शुरू हो जाएगा हमेशा की तरह रोना। हमारे पास संसाधन नहीं हैं, कहकर नेता पल्ला झाड़ लेंगे। मीडिया चीखता रहेगा। पर क्या फरक पड़ेगा? कुछ नहीं। एकदम नहीं।

अगर ईमानदारी से शिक्षा की उन्नति के लिए प्रयास किया जाता तो सत्तर हज़ार करोड़ से कहीं कम में हम गाँव गाँव की तस्वीर बदल देते। जो पैसा बचता उससे कम से कम एक चौथाई देश में स्वास्थ्य की उन्नत सुविधाएं मुहैया कर ली जाती. उसका फायदा भले ही हमें तुरंत नहीं मिलता लेकिन हम जल्दी ही दुनिया के अग्रणी देशों से कन्धा मिला लेते, लेकिन फिर वही बात आ जाती है। फायदा। सबको तुरंत फायदा चाहिए था। देश की फिक्र किसी को थी ही नहीं।

मैंने बहुत ही सतही तौर पर कॉमन ''वेल्थ'' गेम्स के आयोजन की तुलना अपने देश की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता से की है। इसपर एक ब्रॉडशीट अखबार के कई पन्ने भरे जा सकते हैं। न जाने हम और क्या क्या कर सकते थे। लेकिन...
अब पछताए होत क्या, जब सिस्टम चुग गया देश हैट्स ऑफ टु आवर सिस्टम जय हिंद, जय भारत

(यहाँ ये साफ़ कर देना चाहता हूँ कि मैं इन गेम्स का विरोधी नहीं हूँ। मेरा विरोध इस लिए है क्यूंकि ७० हजार करोड़ मामूली रकम नहीं। इस पैसे का दुरुपयोग होते हुए कोई भी भारतीय नहीं देख पाएगा. जो लोग कलमाड़ी और लुटेरे नेताओं की सोच से प्रभावित हैं, उन्हें कुछ भी सोचने की इजाजत है।)

Sunday, September 19, 2010

उत्तर प्रदेश का एक गाँव..नाम गुम गया


कल पूरा दिन उत्तर प्रदेश के एक गाँव में गुजरा। शहर की सड़कों से गुज़रते हुए मैं बेसब्री से गाँव के खड़न्जों वाली सड़क और पगडंडियों का इंतज़ार कर रहा था। वो मिलतीं उससे पहले ही मेरी तमन्ना पूरी होने लगी। लेकिन गाँव अभी काफी दूर था। मीलों तक का सफ़र खडंजानुमा सड़क पर जारी रहा और फिर एक गाँव आया। लोग हमें देखते ही कयास लगाने लगे कि हम या तो सरकार की तरफ से आये हैं या किसी प्रधान के प्रचार के लिए। खैर, हमारा काम एकदम अलग था।

हमने उनसे बातचीत शुरू की, उन्हें अपना मकसद समझाया और चल दिए गाँव के भीतर। हमें एक एक घर जाना था, परिवार के लोगों से बात करनी थी और कुछ तथ्य जुटाने थे। लोगों से बातचीत शुरू हुई, कुछ लोग बहुत खुश हुए तो कुछ हमें समझना ही नहीं चाहते थे। ऐसे दुत्कारा मानो हम कोई सरकारी मुलाजिम या किसी पार्टी के प्रचारक थे। उनका गुस्सा जायज़ था, इसलिए हम सुनते और समझाते रहे। मैं गाँव के दूसरे सिरे की ओर चल दिया, वहां कई घरों में गया। वहीं एक प्रधान के उम्मीदवार का भी घर था. वो भी इत्तेफाक से मिल गया. उससे भी बातचीत की. वो बात कमोबेश जल्दी समझ गया. फिर शुरू हुआ पूछताछ का सिलसिला. उसकी पत्नी का नाम पूछा तो बेटा भी तपाक से बोल पड़ा, लेकिन तब तक बाप कुछ और नाम बता चुका था। दोनों एक दूसरे को देखने लगे, और मैं उन दोनों को देखने लगा. समझ नहीं पाया कि माज़रा क्या है. वजह पूछी तो बताया गया, नाम बदल लिया। फिर सवाल किया तो सकुचाते हुए उस ग्रामीण ने कहा कि वोटर लिस्ट में जो नाम आया है वही रख दिया है मालकिन का नाम।

खैर, मेरे समझाने का कोई फायदा नहीं था, सच तो ये था कि महिला का नाम ३५ साल कि उम्र में बदल चुका था। अब वो भी खुद को नए नाम से ही पहचानने की कोशिश कर रही थी। आगे बढ़े तो ऐसे कई मामले सामने आये। प्रदेश और देश में गाँव की तस्वीर साफ़ नजर आने लगी। ये भी समझ में आ गया कि आखिर इसके पीछे वजह क्या है, और कौन जिम्मेदार है. गाँव के ही एक साथी से पूछा तो उसने कहा कि, गाँव वालों को तो जानकारी नहीं है, लेकिन जिन्हें इस बात की जानकारी थी वो भी तो प्रधानों के घर बैठकर गलत सलत नाम लिख जाते हैं। अब जो नाम वोटर लिस्ट में आ गया वही नाम हो गया।

अँधेरा गहराने तक मेरा काम और गाँव की यात्रा भी तो खत्म हो गई, साथ के एक पत्रकार से कहा कि अपने जिले संवाददाता से ये खबर करने को कहिये। उन्होंने भी बड़ी गर्मजोशी से मंजूरी दी लेकिन एक सवाल बार बार उठता रहा कि उसके खबर लिखने से भी क्या होगा? ऐसे कितने लोग होंगे यहाँ जिन्हें अपना असली नाम याद होगा? कितने ऐसे होंगे जिन्होंने अपना सही नाम हमें नहीं बताया होगा? कितने गाँव के लोग अपना नाम बदल चुके होंगे? हो सकता है अगले सेन्सस में फिर नाम बदल जायें। कोई कमलावती, इरावती बनकर फिर राजकुमारी बन जाए।

Tuesday, August 17, 2010

जो चल सको तो चलो...

अचानक निदा फ़ाज़ली की एक नज़्म याद आई...जो कुछ इस है...
सफ़र में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में, तुम भी निकल सको तो चलो...

बस यही गुनगुना रहा था की कुछ ख्याल मेरे मन से भी निकल कर इसी रास्ते पर चल दिए...
कुछ इस तरह...
घर छोड़ने की भी जमानत है,
कीमत चुका सको तो चलो.
तक्दीरियों की सियासत है,
समझ सको तो चलो.
यहाँ बोलने वालों की कहाँ जरूरत,
बुत बनकर जी सको तो चलो.
हार मानने के ख्याल को घर में ही,
दफना के चल सको तो चलो.
खंजरों से जमीं पर मीलों का सफ़र है,
हौसला बुलंद कर सको तो चलो.
कब्रों का शहर औ रुआसा सा शोर है,
जुम्बिश में तरन्नुम ला सको तो चलो.
यहाँ हार पर रोने की मनाही है,
सिसकियाँ और आंसू छिपा सको तो चलो.
जमाना सर झुकाने को बोलेगा,
हर मोड़ पर रूह को समझा सको तो चलो.
ईमान और इमानदारों का,
क़त्ल कर आगे बढ़ सको तो चलो.
गर नहीं हो ये सब...
गर नहीं मुमकिन ये सब....
तो..
वफ़ा छोड़ दो, वफाई छोड़ दो,
सर उठा के चलो, सर उठा के चलो.
लौटने का ख्याल भूलकर,
रवायतें बदलने का दम भर सको तो चलो.
हर कब्र करेगी इंतज़ार तेरा,
सलामती का ख्याल दिल से निकाल सको तो चलो.
रातों में नींद मयस्सर नहीं हो गर,
रतजगों से यारी कर सको तो चलो.
शायर न बनो, साकी का सहारा न लो,
बिन पिए बहकने की अदा सीख सको तो चलो.
हजारों टिमटिमाती, चमकीली, औ नशीली राहों को छोड़,
अलहदा राह बना सको तो चलो.
धक्का न दो, न गिराओ किसी को,
अपना कन्धा मदद को आगे बढ़ा सको तो चलो.
ऐशो आराम को भूलो, मोहब्बत को भूलो,
मुफलिसी में जीकर मुस्कुरा सको तो चलो.
बेलगाम सियासत और सियासतदारों पर,
लगाम लगाने का माद्दा जुटा सको तो चलो.
औ गर हो भरोसा मुकद्दर पे, ईश्वर, यीशु या अल्लाह पे,
तो घर बैठो, तुम न चलो, एकदम न चलो.

भारतवासियों के नाम, एक भारतीय का पैगाम


ऐ भारतवासियों...
देखो, आज फिर तुम आजाद हो,
सड़क पर बेपरवाह थूकने के लिए,
तुम आजाद हो,
अपने मजबूत बाजुओं से भीख मांगने के लिए,
तुम आजाद हो,
किसी राहगीर महिला पर नजर डालने के लिए,
तुम आजाद हो,
हर गरीब को गिराने के लिए
और तुम आजाद हो,
मां को गाली बनाने के लिए
तुम बिल्कुल आजाद हो,
गांधी, नेहरू, सुभाष और भगत को धिक्कारने के लिए
तुम आजाद हो,
जाति और धर्म पर बंगले बनाने के लिए
तुम आजाद हो,
मंदिर, मस्जिद और गुरद्वारे के नाम पर खून बहाने के लिए,
तुम आजाद हो,
ईश्वर और अल्लाह को खूनी बनाने के लिए
तुम तो आजाद हो,
एक विनाशकारी सोच के लिए मरने और मारने के लिए
तुम आजाद हो,
अपने वतन को सड़ा-गला बतलाने के लिए
फिर भी तुम आजाद हो
भारतमां की औलाद कहलाने के लिए
और सियासतदां आजाद हैं,
भूखे आवाम को वादों की रोटी खिलाने के लिए
वो आजाद हैं,
जति-जनगणना से जनता की प्यास बुझााने के लिए
वो आजाद हैं,
दलित को दलित बनाने के लिए
और तुम आजाद हो
चंद वारों से टूट जाने के लिए
जरा सोचो,
तुम यूं भी तो आजाद हो,
अपने नाम से जाति हटाने के लिए
तुम यूं भी तो आजाद हो,
इस मुल्क में भारत बसाने के लिए
तुम यूं भी तो आजाद हो,
इसे खूबसूरत स्वर्ग बनाने के लिए,
तुम यूं भी तो आजाद हो,
वेंटिलेटर पर पड़ी आजादी को फिर से जिलाने के लिए
और तुम आजाद हो,
भारत को ब्रह्माण्ड नायक बनाने के लिए
मैं भी आजाद हूं,
यूं ही सिरफिरों सा बड़बड़ाने के लिए
समझो तो बढ़ो आगे
इस आजादी को मुकम्मल बनाने के लिए।
इस आजादी को मुकम्मल बनाने के लिए।।

वो तो बीमारी में भी मुस्कुराहट दे गया...

कुछ दिन पहले मुझे आसमान बहुत बीमार सा दिखा, पूरा बदन नीला पड़ा हुआ था। ठीक वैसे ही जैसे सलफास खाने के बाद हम इनसानों का होता है। बादल जल्दी-जल्दी उसपर सफेेद पट्टियां रख रहे थे। गाढ़ी गाढ़ी और बड़ी बड़ी पट्टियां देखकर बार-बार लग रहा था कि कहीं आसमान को कुछ गम्भीर बीमारी तो नहीं हो गई। हवा भी जोर-जोर से इधर से उधर भाग रही थी मानो प्रकृति ने किसी बहुत ही दुर्लभ औषधि को लाने का काम सौंपा हो और हवा उसे खोज न पा रही हो। कभी वो मेरे दरवाजे से भीतर घुसकर कुछ खोजकर वापस लौट जाती तो कभी खिड़की से अंदर झांककर ही फुर्र हो जाती। मुझसे आसमान, बादलों और हवा की ये बेचैनी देखी नहीं जा रही थी। मन हुआ कि चलो बाहर चलकर देखते हैं कि आखिर माजरा क्या है। बाहर निकलकर देखा तो दूर देशों के बादल भी तेजी में हवा के साथ भागे चले आ रहे थे।

आसमान में दूर तक नजरें दौड़ाईं तो एक भी पंछी उससे खेलता नजर नहीं आया। अब तो मैं और भी सशंकित हो गया कि आखिर आसमान को हुआ क्या है। इस दौरान कभी उसका नीलापन हल्का पड़ता तो कभी गाढ़ा होने लगता। समझ नहीं आया कि उसे आखिर क्या बीमारी है जो हर कुछ दिन बाद उभर आती है। कुछ देर तक इस भागदौड़ को यूं ही देखता रहा, इस उम्मीद में कि जल्दी से कोई वैद्य बढ़िया सी औषधि लेकर आ जाए और आसमान के इस मर्ज का इलाज कर दे। अब तक आसमान का दर्द मानो मेरे शरीर में उतर चुका था, हवाओं और बादलों की बेचैनी भी मुझमें आ चुकी थी।


कुछ देर बाद मैं फिर निकला तो देखा कि बादल गुस्से में हैं और उन्होंने सूरज की रोशनी का रास्ता रोक दिया मानो धरती पर मौजूद हम इनसानों से कह रहे हों कि अगर तुम लोगों ने हम पर सितम जारी रखा तो हम ये रोशनी हमेशा के लिए रोक देंगे। तभी पास की छत पर एक परिवार दिखाई दिया। उनके चेहरे पर अजीब सी खुशी थी। बच्चे दोनों हाथ ऐसे फैलाए हुए थे मानो वो आसमान को गले लगाना चाहते हों, उस हवा को अपनी मुठ्ठी में कैद कर लेना चाहते हों, उन बादलों की सवारी करना चाहते हों जो आकाश में फैली हजारों तरंगों के बेतरतीब जाल के बीच से निकलकर खुद भी कई हिस्सों में कटे जा रहे थे। अब तक सूरज भी परदेस जाने की तैयारी करने लगा। तभी अलग अलग दिशाओं से कुछ और बादल आते दिखे। मेरा डर और भी बढ़ गया।


आसमान का नीलापन अब सफेद पट्टी से भरने लगा था। कहीं हल्की तो कहीं गाढ़ी गाढ़ी। ये परदेसी बादल कभी करीब आते तो कभी दूर जाते और फिर करीब आते और आपस में कुछ फुसफुसा कर अपनी अपनी जगह ले लेते। शायद वो एक दूसरे को इनसानों की हरकतें बता रहे थे। शायद वो बता रहे थे कि हर तरफ जश्न मनाया जा रहा है। वो एक दूसरे को बता रहे थे कि किस तरह हम धरती वाले चौपाटी, नरीमन प्वांइट, कनॉट प्लेस, इंडिया गेट के सामने जमा होकर आसमान के इस दर्द पर जश्न मना रहे हैं। इसीलिए आसमान में बादल कभी उदास चेहरे सी शक्ल में नजर आते तो कभी उनके माथे की त्योरियां कस जातीं।


इतने में हवा और भी तेज हो गई। उसने कई दरवाजे खटखटाए, कई खिड़कियों पर दस्तक दी, सड़कों पर इधर-उधर भागी भगी फिरी। कारों में, बसों में ट्रेनों में, हर जगह उसने लोगों को हिलाया मानो वो सबसे मदद मांग रही हो। मगर सबने अपने मुंह फेर लिए और शीशे चढ़ा लिए और हवा उन चेहरांें और शीशों से बार-बार टकराने के बाद निराश लौट गई। वो मेरे पास भी दोबारा आई। इस बार मैंने उसकी आंखों में आंखें डालकर पूछना चाहा...


इतनी परेशान क्यों हो...उसने मेरे चेहरे पर जोर से झाोंका माराजानता हूं नाराज हो पर ये तो...मैं...फिर वो पीछे निकल गई मेरे कमरे मेंमदद कर सकता हूं....पीछे से धक्का देकर वो दरवाजे को जोर से झटकते हुए बाहर निकल गईमैं उसके पीछे भागा...अरे सुनो, सुनो, सुनो तो सही...बाहर निकला तो पैरों के नीचे कुछ गीला सा महसूस कियावो रो रही थी...आसमान की हालत और भी नाजुक हो गई थी।


उपर देखा तो आसमान का नीलापन और गहरा रहा था और अब उसमें कालापन झलक रहा था। पट्टियां भी काली पड़ने लगी थीं। मैं भी अपने आंसूं दबाए किसी चमत्कार का इंतजार कर रहा था। मेरी भी उम्मीद कम होने लगीं। लोगों की खुशियां देखकर फैक्ट्रियों से निकलने वाला धुआं और तेज और गहरा हो गया। युवा भी सिगरेट के छल्ले बनाकर आसमान को भेजने लगे और मन ही मन खुश होने लगे इस सो कॉल्ड खुशगवार मौसम में।


अब आसमान का सब्र टूट गया शायद...मैं उपर देख ही रहा था कि मेरी आंख में एक मोटी सी बूंद आकर गिरी और मेरा आंसू बन गई। धीरे-धीरे ये आंसू तेज होने लगे। हवा भी कहीं थमकर सिसकियां भरने लगी, इन आंसुओं में खुद को पागल की तरह भिगोने लगी और शोक मनाने लगी। मैंने अपनी बालकनी से गुंजरते उसे पकड़ने की एक और कोशिश की मगर हाथ लगे उसके चंद आंसूं...मेरे भी आंसू आसमान के आंसुओं में घुल मिल गए। रात भर आसमान, बादल और हवाएं रोती रहीं, बरसती रहीं, भिगोती रहीं धरती को, सींचती रहीं धरती को। रोकर भी प्रकृति के हम दुश्मनों को मुस्कुराहट देती रहीं।


मैं भी आंसू सुखाकर सो गया। सुबह उठकर देखा तो आसमान पर बादल फिर हल्की हल्की मरहम पट्टी करके अपने अपने वतन लौट रहे थे...निराश से...ये सोचते हुए कि कल उनका आसमान भी यूं ही रोएगा और दुनिया जश्न मनाएगी...फिर उनमें से एक बादल सहसा खुश हुआ मानो वह कह रहा हो कि हम बीमार होकर भी उनको मुस्कुराहट दे गए...वो हमारा दर्द न समझे भी तो क्या...पर मैं क्या करता, मैं तो अरबों में एक चींटी से भी अदना ठहरा। काश इस दर्द को करोड़ों ने महसूस किया होता, लेकिन ये सच नहीं, जानता हूं, इसीलिए मुगालते नहीं पालता, पूरी कायनात के आंसू किसी को नहीं दिखे तो मेरी कहानी क्या खाक दुनिया बदल देगी।

Saturday, June 26, 2010

अगले जनम मोहे दिल न दीजो...(ऑनर किलिंग, एक जाहिल सोच और हम )



न जाने कब से दिखावे के लिए खून बहाया जा रहा है। उसे विभिन्न तर्कों के माध्यम से सही भी ठहराया जा रहा है। बीते कुछ वर्षों में इसे अच्छा सा मॉडर्न नाम भी मिल गया है। ऑनर किलिंग। लगता है कोई गौरवान्वित करने वाला मिशन है, शायद यही वजह है कि मंदीप, अंकित और नकुल जैसे युवा बड़ी शान से अपनी बहन और उसके पति का खून बहा देते हैं। एक पूरा समाज इसे सही ठहराता है। इस समाज के युवा वर्ग के चेहरे पर तेज को देखकर लगता है ये बहुत खुश हैं। कल ये भी कुछ ऐसा करने में गर्व महसूस करेंगे। इनके परिवार या समाज की किसी लड़की ने प्रेम किया तो ये उसे भी मोनिका और शोभा की तरह मार देंगे।

फिर...उसके बाद क्या? क्या वो पर्व मनाएंगे? उत्सव मनाएंगे? क्या करेंगे वो? क्या करेगा वो समाज? क्या प्रेम होने से रोक लेगा? क्या दिल को धड़कने से रोक लेगा? क्या भावनाओं में कोई परिवर्तन कर पाएगा? क्या माओं को बिटिया जनने से रोक लेगा? क्या अपनी बहन-बेटी की आँखें किसी दूसरी जात वाले से मिलने से रोक लेगा? क्या ये मुमकिन होगा? नहीं तो खून बहाता रहेगा ये समाज. माएं सहमेंगी और दुआ करेंगी कि अगले जमन वो बिटिया न जनें. लेकिन उस पर उनका बस कहाँ. वो इतना तो जरुर कहेंगी कि कम से कम अगले जनम मोहे दिल न दीजो.

ये निराशावादी है लेकिन क्या करूँ? मेरे शब्दों में इतनी ताकत नहीं कि ये इस समाज को बदल सकें. फिर, हमारे जैसे बहुत से लोग ही जब इस समाज के रीत रिवाजों का समर्थन कर रहें हैं तो ये काम और भी असंभव लगता है. आये दिन बहस छिड़ती है और होते होते वो पुरुष बनाम स्त्री हो जाती है. कुछ महाशय उन रूढ़िवादियों का समर्थन करते हैं जिन्हें अपनी कथित इज्जत से इतना लगाव् है कि वो उसके लिए अपनी बच्ची की जान भी ले सकते हैं. यहाँ मेरा मन मुझसे एक सवाल पूछता है कि वो पिता अपनी हवस कि उपज को maarta है या अपनी बेटी को? जवाब हत्या खुद बी खुद बता देती है. एक न्यूज़ चैनल पर कल इसी मुद्दे पर बहस छिड़ी थी. कुछ महिलाएं ऑनर किलिंग का विरोध कर रही थी, एक पुरुषवादी और इज्जतवादी ने जवाब दिया कि अगर सोच महज दिखावा होती है तो कपड़े उतार कर घूमिये. और न जाने कैसे अनाप शनाप तर्क दिए. ये सोच कहाँ से पनपती है, ये तो मैं नहीं जानता लेकिन इतना जरुर कह सकता हूँ कि ये सोच देश को गर्त में ही ले जाएगी.

हम सब को ये सच मान लेना चाहिए कि प्यार जात और गोत्र देखकर नहीं किया जा सकता. न ही ये रंग देखता है. ये जिस्म भी नहीं देखता. जिन क्षेत्रों में ये घटनाएँ हो रही हैं, उनका हाल किसी से छिपा नहीं है. वो पैसे वाले हो सकते हैं, लेकिन उनकी शिक्षा का स्तर जगजाहिर है. इसलिए हमें ऐसी सोच को तूल नहीं देना चाहिए. इसी में हमारे भविष्य की भलाई है. बल्कि हम सबको अपने अपने तरीके से इन लोगों का विरोध करनाहोगा ताकि ये इस जाहिल सोच को आगे न ले जा पाएं।

Thursday, June 24, 2010

२५ साल बाद हंगामा है क्यूँ बरपा...



भोपाल त्रासदी को २५ बरस से भी ज्यादा बीत चुके हैं। इस दौरान बहुत लोग अमर हुए। कुछ जिन्दा रहते हुए और कुछ मरने के बाद। रघु राय जीतेजी अमर हो गए तो वो बच्चा और वो बूढ़ा मर कर अमर हो गए जिन्हें रघु ने अपने कैमरे से देखा। इसके अलावा एंडरसन और कुछ दोषी भी अमर हो गए। साल २०१० भी जीते जी अमर हो रहा है। भोपाल त्रासदी के लिए। मुझे तो लगता है कि इस बरस हर कोई अमर हो जाना चाहता है। हर कोई इस त्रासदी की गंगा में डूबकी लगाना चाहता है। क्या पक्ष, क्या विपक्ष, क्या मीडिया, क्या समाज सेवी और क्या आन्दोलनकारी। सब कोई ये मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहते। न जाने इस बरस ऐसा क्या हुआ है...ये शोध का विषय है। आखिर पूरा देश अचानक भेड़ चाल क्यूँ चलने लगा...

देश की न्यायपालिका ने २५ बरस बाद जो न्याय दिया है, उसके बाद असली न्याय की मांग हो रही है। अदालत की कार्यवाही के पूरी होने के बाद दोषियों के खिलाफ सबूत न जाने किस बिल से निकल रहें हैं। वो प्रदर्शनकारी निकल रहें हैं, पीड़ित निकल रहें हैं, झंडे निकल रहें हैं, बैनर निकल रहें हैं जिन्हें हर दिन, हर घंटे, हर महीने और हर साल निकलना चाहिए था। समाजसेवी भी इस बरस जगे हैं। मीडिया के बारे में क्या कहूँ। आज इनके पास २५ साल पुराना विडिओ फुटेज है। हर वो कागज है जो दोषियों को २५ बरस पहले सलाखों के पीछे पहुंचा सकता था। क्यूँ किया गया इतने बरसों तक इंतज़ार। कोई बताये मुझे। आखिर क्यूँ २५ साल बाद अदालत का फैसला आता है। २५ साल यानि एक गरीब की आधी जिंदगी। आखिर किसलिए? क्या फायदा होगा इसका? क्या मकसद है इसके पीछे?

समझ नहीं आता की आखिर ये सब लोग इतने बरस किस मांद में सो रहे थे। ये कैसी नींद थी जो इतने बरस बाद टूटी है। ९१ साल का एंडरसन आ भी जाएगा इस देश में तो क्या कर लोगे उसे फांसी पर लटका कर। उसकी मौत से क्या उन बुजुर्गों को उनके परिवार वाले मिल जाएँगे जो दिसंबर की उस रात तड़प तड़प कर भोपाल की सड़कों पर मर गए। या लाखों लोगों को आँखें, फेफड़े और ख़राब हो चुके अंग वापस मिल जाएँगे। क्या १३२० करोड़ से उन लाखों लोगों को वो जिंदगी मिल जाएगी जो दिसंबर, १९८४ से पहले थी। जो जवाब मुझे मालूम है, शायद वही जवाब उस माँ का होगा जिसने अपने जवान सपने को अपनी गोद में मरते देखा होगा।

लेकिन इस सवाल का क्या करूँ, जो मुझे बीते एक महीने से परेशान कर रहा है। कौन है इसके पीछे? किसके इशारे पर ये अमरत्व पाने का खेल हो रहा है? अगर ये खेल नहीं तो और क्या है? सिलसिलेवार ढंग से ये जो हो रहा है, वो काफी अजीब है। आखिर ८४ में भी दिग्गज पत्रकार थे, खबरें लिख सकते थे। उस समय क्यूँ नहीं लिखा गया कुछ। उस बरस न सही, उसके एक बरस, दो बरस...दस बरस, पंद्रह बरस बाद ही कुछ लिखा गया होता। इस बरस ही क्यूँ। कहाँ गए वो पत्रकार। कुछ भी हो, जो कुछ भी हो रहा है बहुत ही संदिग्ध है और इसमें सच का आभास तनिक भी नहीं है।

Wednesday, June 16, 2010

ये हैं जनाब ''बटन''...


बड़े बुजुर्ग हमेशा कहते रहें हैं कि एक दिन ये विज्ञान हम सबकी मजबूरी बन जाएगा। इसका एक एक अविष्कार हमें अपने इशारे पर नचाएगा। हम नाचेंगे, बसंती की तरह। कोई वीरू ये कहने के लिए भी नहीं होगा कि इन कुत्तों के सामने मत नाचना..। ऐसे ही एक अविष्कार से मैं आपकी मुलाक़ात करता हूँ। सोच कर देखिये, ये जनाब न हों तो हमारा क्या होगा। दिन-रात और शाम, सब कुछ अधूरी होगी।

ये हैं जनाब बटन, इनसे तो आप सबका परिचय होगा। ज़िन्दगी में सब कुछ बटन ही तो है। ये जनाब न हों तो कैसे जिएंगे हम लोग। दुनिया रुक जाएगी। न सुबह का पता चलेगा, शाम भी आकर गाजर जाएगी और हम बेखबर रह जाएँगे।

सुबह से शाम तक मैं इसकी जरुरत देखता हूँ तो डर लगता है। बिस्तर से उठते ही मोबाइल का बटन दबाकर मैसेज और मिस कॉल चेक न करें तो पेट बेचैन हो जाएगा। ट्वायलेट की लाइट जालाने का बटन नहीं दबा तो प्रेशर नहीं बनेगा। किचेन में रखे चूल्हे का बटन न दबा तो चाय नहीं बनेगी और दिन भर खुद को और दूसरों को मजबूरन परेशां करना पड़ेगा। नाश्ता नहीं बनेगा। मिक्सी का बटन नहीं दबा तो मैंगो शेक और मिल्क शेक नहीं मिलेगा। प्रेस का बटन जनाब रूठ गए तो शर्ट भी शर्म के मरे सिकुड़ जाएगी। पैंट भी...

खैर, भूखे प्यासे घर से निकले और गाड़ी के बटन जनाब गुस्सा गए तो घिसिये चप्पल। ऑटो और बस में भी बटन जनाब का राज है। हाँ, रिक्शा और साईकिल ख़ुशी के मरे फूले नहीं समाएँगे। दफ्तर में लिफ्ट में भी बटन जनाब की हुकूमत। सीढियां गिनते गिनते सारे क्रिएटिव आइडिया फुर्र हो जाएँगे। एसी का बटन नहीं चला तो शरीर का पोर पोर रोने लगेगा। कंप्यूटर के बटन महाराज तो महान हैं, इनकी शान में गुस्ताखी हुई तो ये दुनिया सर पर उठा लेंगे। दुनिया ठहर जाएगी। सेंसेक्स से लेकर हवाई जहाज तक सब जमीन पर धड़ाम।

न मोबाईल चलेगा न कंप्यूटर, न ब्लॉग लिख पाएँगे न चिड़िया उदा पाएँगे। फेसबुक में चेहरा भी नहीं देख पाएँगे। न खबर, न ख़बरदार। न फक्ट्री न धुआं. न मिसाइल न न्यूक्लियर। न लड़ाई न मौत। न राजनीति न बिजनेस. सिर्फ जंगल राज। सब कुछ प्राकृतिक। हम सब आदिवासी हो जाएँगे कुछ ही दिनों में। अपनी जड़ों की ओर। अपने अतीत की ओर। प्रकृति खुश हो जाएगी। खूब फूल खिलेंगे। उनकी मुस्कान भी असली होगी. ताजी हवा सरसराएगी।

बीती तीन सदियों का खेल यूँ ही धरा का धरा रह जाएगा। लेकिन हम इंसान हैं। दुनिया की सबसे खूंखार उत्पत्ति। हम फिर दिमाग लगाएंगे। विज्ञान को नई राह देखेंगे। बटन का बाप बनेंगे। अबकी दुनिया 'तार तार' कर देंगे। लेकिन वो तार भी एक दिन रूठ गया तो क्या होगा....फिर वही। हम मानव बन जाएँगे। कुछ दिन के लिए ही सही। फिर किसी अवतार की जरुरत नहीं होगी। किसी २०१२ किसी अत्याधुनिक फिक्शन फिल्म की जरुरत नहीं होगी। न करियर की मार होगी न झूठ की परतें। काश ऐसा होता...लेकिन फिर वो डर पनपता है तो कैसा होता। क्या मैं जी पता उस काल में जहाँ से हम खुद को निकल कर यहाँ लाये। ये सोच यूँ ही लड़ते रहेंगी। खैर, आप हम मजा लेते हैं हमारे बटन जनाब की कहानी का। देखिये, इन्हें खफा मत होने दीजिएगा।

Tuesday, April 20, 2010

फिर पंख मैं चुनुँगा, परवाज मैं भरूँगा


तमन्ना भी साथ थी, कोशिश भी थी जवां,
राहें भी साथ थीं, मंजिल भी मेहरबां।
खुद में हौंसला, उसकी नेमत पे था यकीं ,
लौ जल रही थी अबकी, बाती भी थी बची।
फूंक के भी जर्रों, पर रोक थी लगी,
फिर भी वो बुझ गई, मायूस हो गई।
मैं देखता रहा, आंसू पोंछता रहा,
सॉरी बोलकर उसने, कर दिया विदा।
बेबसी में रोया, उस बरस का रतजगा॥
गिरेबां में झांक लेता, वो भी था ''मैं'' कभी,
आज वो न जाने किस माटी का बना।
मैं धरती से उठा था, धरती पे आ गिरा ,
नापने को फिर से सारा आकाश है पड़ा ।
फिर पंख मैं चुनुँगा, परवाज मैं भरूँगा,
आँधियों में भी लौ को, बुझने मैं दूंगा।
वक़्त भी कभी तो, हमसे रास्ते पूछेगा,
वो भी अपनी बाजुओं में, आंसू पोंछेगा॥

(माफ़ करना दोस्तों, क्या करूँ, कंट्रोल नहीं होता...दर्द है तो दर्द ही नजर आएगा न!)

Saturday, April 10, 2010

...अगर न मानें तो बहाइये खून कि नदियाँ



मेरी एक जिज्ञासा है। इसके पीछे कोई विचारधारा नहीं है. क्या जरूरी है आदिवासियों को जबरदस्ती विकसित किया जाये? जंगल और गाँव में रहना उन्हें पसंद है. वो वहां खुश हैं. क्या जरूरत है उन्हें शहरी विकास में धकेलने की? मिटटी को सोना बनाने से क्या फायदा होगा? जरूरी तो है नहीं कि हर किसी को विकसित होना ही चाहिए. दे दीजिये उन्हें उनके जंगल, उनकी जमीन. हटा लीजिये पुलिस, उन्हें मार काट करने में मजा थोड़े न आता होगा. जानता हूँ ये संभव नहीं है क्यूंकि निश्चित रूप से कुछ माओ और नक्सली ऐसे भी होंगे जो ऐसा कभी नहीं होने देंगे. फिर भी, एक पहल की जाये, अगर न मानें तो बहाइये खून कि नदियाँ.

जहाँ तक मेरी जानकारी है, ये संघर्ष नाक्साल्बरी से जमीन के विवाद को लेकर शुरू हुआ थाचारू, कानू और संथाल ने आवाज़ उठाई थी जमीदारों के खिलाफ जो आदिवासियों को दास समझते थेउनकी जमीन पर जो मन आता था करते थे, आज जब इन नक्सलियों के समर्थन में कुछ लिख रहा हूँ तो बार बार ये एहसास हो रहा है कि कहीं ये सिर्फ भावनात्मक लगाव तो नहीं है जिसे में आवेश में आकर लिख रहा हूँपर सोचता हूँ कि अगर मेरे एक छोटा भाई बदमाश होता और वो नालायकी पर उतारू होता तो क्या मैं उसे गोली मर देताया अगर मैं ऐसा ही होता तो क्या मेरे पिता जी मुझे जान से मार देतेतो इसी तरह समझदार पक्ष को पहल तो करनी ही होगीअगर उनकी नियति में ही मृत्यु लिखी है, और देश के भविष्य में भयंकर नरसंहार लिखा है तो उसे मेरा ये टुच्चा सा विचार क्या बदल पाएगा

आज एक दोस्त से आधा घंटा इसी मुद्दे पर बहस होती रहीमैं पूछता रहा कि ग्रीन हंट का क्या फायदा होगाऐसे ही जवान और नक्सली मरते रहेंगेये तो कारगिल युद्ध में तब्दील हो रहा हैसौलूशन है बात मेंमैं मानता हूँ कि नक्सलियों ने ऐसा किया क्यूंकि वो डरे हुए हैंमेरा दोस्त ये मानने को तैयार नहीं थाबहस होती रहीमैं भी जानना छह रहा था कि आखिर क्या कोई और रास्ता हैवो बहुत दूर की बात सोचकर शशंकित था कि अगर नक्सलियों को अधिकार मिल गए तो वे कल को देश के विकास में काफी बाधा खड़ी करेंगेउसके तर्क काफी हद तक सही थेपर फिर मेरा एक सवाल था, तो क्या लाखों आदिवासियों कि लाशों पर आप विकास करना चाहते हैंवो भोले भाले आदिवासी तो यही समझते हैं कि किसन जी और महतो जैसे लोग उनके शुभचिंतक हैंलेकिन क्या नक्सलवाद सिर्फ किसनजी, स्वर्गवासी कानू सान्याल, और उनके चंद प्रमुख कमांडर्स तक ही सीमित हैअगर ऐसा है तो मैं नहीं मान सकताइसके पीछे बड़ी मजबूत सत्ता हैमजबूत लोग हैं जो इनकी जड़ों में पानी डाल रहें हैंतो जीत नक्सलियों की हुई तो क्या लोकतंत्र हार जाएगा? सबसे बड़ा सवाल है कि क्या उनका उद्देश्य वही है जो मैं सोच रहा हूँ? जहाँ तक मैं सोच रहा हूँ? काश ऐसा ही हो

लेकिन, आज वो उत्तर प्रदेश में 'वी' गलियारा बना रहे हैं। कुल २० राज्य और २२० जिले प्रभावित हैंवो लगता बढ़ रहें हैं. कल किसी और प्रदेश में एक गलियारा बनाएँगे। और एक दिन हर राज्य उनसे अपने तरीके से लड़ रहा होगा। क्या हम वो दिन देखना चाहते हैं। २००० में सिर्फ ५० लोग मरे थे नक्सली हिंसा में। २००९ में १५००, २०१० में और ज्यादा होंगे। कैसे कम होगा ये? ये एक बहुत बड़ा आन्दोलन है, जिसे चींटी समझकर पैरों तले कुचलने के ख्वाब देखना बहुत बड़ी भूल होगीमैं वामपंथी या चरमपंथी नहीं हूँ, नक्सलवाद को समझने की थोड़ी सी कोशिश क़ी है और लगातार समझने की कोशिश कर रहा हूँथोड़ी सहानुभूति है, उनकी अनभिज्ञता पर, उनकी मजबूरी पर और उनकी सोच परयही सोचकर हमें उनसे निपटना है
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