भोपाल त्रासदी को २५ बरस से भी ज्यादा बीत चुके हैं। इस दौरान बहुत लोग अमर हुए। कुछ जिन्दा रहते हुए और कुछ मरने के बाद। रघु राय जीतेजी अमर हो गए तो वो बच्चा और वो बूढ़ा मर कर अमर हो गए जिन्हें रघु ने अपने कैमरे से देखा। इसके अलावा एंडरसन और कुछ दोषी भी अमर हो गए। साल २०१० भी जीते जी अमर हो रहा है। भोपाल त्रासदी के लिए। मुझे तो लगता है कि इस बरस हर कोई अमर हो जाना चाहता है। हर कोई इस त्रासदी की गंगा में डूबकी लगाना चाहता है। क्या पक्ष, क्या विपक्ष, क्या मीडिया, क्या समाज सेवी और क्या आन्दोलनकारी। सब कोई ये मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहते। न जाने इस बरस ऐसा क्या हुआ है...ये शोध का विषय है। आखिर पूरा देश अचानक भेड़ चाल क्यूँ चलने लगा...
देश की न्यायपालिका ने २५ बरस बाद जो न्याय दिया है, उसके बाद असली न्याय की मांग हो रही है। अदालत की कार्यवाही के पूरी होने के बाद दोषियों के खिलाफ सबूत न जाने किस बिल से निकल रहें हैं। वो प्रदर्शनकारी निकल रहें हैं, पीड़ित निकल रहें हैं, झंडे निकल रहें हैं, बैनर निकल रहें हैं जिन्हें हर दिन, हर घंटे, हर महीने और हर साल निकलना चाहिए था। समाजसेवी भी इस बरस जगे हैं। मीडिया के बारे में क्या कहूँ। आज इनके पास २५ साल पुराना विडिओ फुटेज है। हर वो कागज है जो दोषियों को २५ बरस पहले सलाखों के पीछे पहुंचा सकता था। क्यूँ किया गया इतने बरसों तक इंतज़ार। कोई बताये मुझे। आखिर क्यूँ २५ साल बाद अदालत का फैसला आता है। २५ साल यानि एक गरीब की आधी जिंदगी। आखिर किसलिए? क्या फायदा होगा इसका? क्या मकसद है इसके पीछे?
समझ नहीं आता की आखिर ये सब लोग इतने बरस किस मांद में सो रहे थे। ये कैसी नींद थी जो इतने बरस बाद टूटी है। ९१ साल का एंडरसन आ भी जाएगा इस देश में तो क्या कर लोगे उसे फांसी पर लटका कर। उसकी मौत से क्या उन बुजुर्गों को उनके परिवार वाले मिल जाएँगे जो दिसंबर की उस रात तड़प तड़प कर भोपाल की सड़कों पर मर गए। या लाखों लोगों को आँखें, फेफड़े और ख़राब हो चुके अंग वापस मिल जाएँगे। क्या १३२० करोड़ से उन लाखों लोगों को वो जिंदगी मिल जाएगी जो दिसंबर, १९८४ से पहले थी। जो जवाब मुझे मालूम है, शायद वही जवाब उस माँ का होगा जिसने अपने जवान सपने को अपनी गोद में मरते देखा होगा।
लेकिन इस सवाल का क्या करूँ, जो मुझे बीते एक महीने से परेशान कर रहा है। कौन है इसके पीछे? किसके इशारे पर ये अमरत्व पाने का खेल हो रहा है? अगर ये खेल नहीं तो और क्या है? सिलसिलेवार ढंग से ये जो हो रहा है, वो काफी अजीब है। आखिर ८४ में भी दिग्गज पत्रकार थे, खबरें लिख सकते थे। उस समय क्यूँ नहीं लिखा गया कुछ। उस बरस न सही, उसके एक बरस, दो बरस...दस बरस, पंद्रह बरस बाद ही कुछ लिखा गया होता। इस बरस ही क्यूँ। कहाँ गए वो पत्रकार। कुछ भी हो, जो कुछ भी हो रहा है बहुत ही संदिग्ध है और इसमें सच का आभास तनिक भी नहीं है।
देश की न्यायपालिका ने २५ बरस बाद जो न्याय दिया है, उसके बाद असली न्याय की मांग हो रही है। अदालत की कार्यवाही के पूरी होने के बाद दोषियों के खिलाफ सबूत न जाने किस बिल से निकल रहें हैं। वो प्रदर्शनकारी निकल रहें हैं, पीड़ित निकल रहें हैं, झंडे निकल रहें हैं, बैनर निकल रहें हैं जिन्हें हर दिन, हर घंटे, हर महीने और हर साल निकलना चाहिए था। समाजसेवी भी इस बरस जगे हैं। मीडिया के बारे में क्या कहूँ। आज इनके पास २५ साल पुराना विडिओ फुटेज है। हर वो कागज है जो दोषियों को २५ बरस पहले सलाखों के पीछे पहुंचा सकता था। क्यूँ किया गया इतने बरसों तक इंतज़ार। कोई बताये मुझे। आखिर क्यूँ २५ साल बाद अदालत का फैसला आता है। २५ साल यानि एक गरीब की आधी जिंदगी। आखिर किसलिए? क्या फायदा होगा इसका? क्या मकसद है इसके पीछे?
समझ नहीं आता की आखिर ये सब लोग इतने बरस किस मांद में सो रहे थे। ये कैसी नींद थी जो इतने बरस बाद टूटी है। ९१ साल का एंडरसन आ भी जाएगा इस देश में तो क्या कर लोगे उसे फांसी पर लटका कर। उसकी मौत से क्या उन बुजुर्गों को उनके परिवार वाले मिल जाएँगे जो दिसंबर की उस रात तड़प तड़प कर भोपाल की सड़कों पर मर गए। या लाखों लोगों को आँखें, फेफड़े और ख़राब हो चुके अंग वापस मिल जाएँगे। क्या १३२० करोड़ से उन लाखों लोगों को वो जिंदगी मिल जाएगी जो दिसंबर, १९८४ से पहले थी। जो जवाब मुझे मालूम है, शायद वही जवाब उस माँ का होगा जिसने अपने जवान सपने को अपनी गोद में मरते देखा होगा।
लेकिन इस सवाल का क्या करूँ, जो मुझे बीते एक महीने से परेशान कर रहा है। कौन है इसके पीछे? किसके इशारे पर ये अमरत्व पाने का खेल हो रहा है? अगर ये खेल नहीं तो और क्या है? सिलसिलेवार ढंग से ये जो हो रहा है, वो काफी अजीब है। आखिर ८४ में भी दिग्गज पत्रकार थे, खबरें लिख सकते थे। उस समय क्यूँ नहीं लिखा गया कुछ। उस बरस न सही, उसके एक बरस, दो बरस...दस बरस, पंद्रह बरस बाद ही कुछ लिखा गया होता। इस बरस ही क्यूँ। कहाँ गए वो पत्रकार। कुछ भी हो, जो कुछ भी हो रहा है बहुत ही संदिग्ध है और इसमें सच का आभास तनिक भी नहीं है।
2 comments:
मरे कोई अमर कोई और हो.....
akhir sach karwa hi kyon hota hai...
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