Saturday, May 30, 2009

संवेदनशीलता, मैं और बिग बैंग

ये यूनिवर्स भी तो धूल की तरह है... न कुछ नया है न कुछ पुराना। बिग बैंग फिर कुछ कण, कुछ क्षण फिर ब्लैक होल. फिर एक और बिग बैंग. जीवन का यही फसाना है एक धुंध से आना है एक धुंध में जाना है.

जब भी इसे पढ़ता हूँ शरीर में अजीब सी ताकत का एहसास होता है। लगता है की मैं भी कहाँ छोटी छोटी बातों में उलझ जाता हूँ। बस एक बिग बैंग और जिंदगी नए ट्रैक पर होगी। न कुछ नया होगा न कुछ पुराना। नया होगा...ब्लैक होल। और कुछ कद जो इधर से उधर होंगे. फ़िर भी लंबा सफर तय करना है। कई राहों पर चलना होगा, नए मील के पत्थर रखने होंगे। इसके लिए ऐसे कई बिग बैंग हो जायें तो क्या!

लेकिन सवाल ये है की हम धुंध की विवेचना किस रूप में करें। इस धुंध में न जाने कितने मतलब छिपे हैं। मैं तो एक धुंध से निकलकर प्रकाश पुंज में जाना चाहता हूँ। फ़िर ये भी तो एक प्रकाश पुंज है। सीखने को हर लम्हे ने कुछ न कुछ दिया है न। फ़िर धुंध कैसा?
शायद सोच और व्यवहार का।
सोच में भी धुंध है...देखिये तो हर अज्ञानता भरा वाक्य धुंध का ही तो पर्याय है... और वोही व्यव्हार में झलकता है जो की बहुत दर्द देता है।
क्यों न इस धुंध के असल मतलब को तलाश के अपनी जिंदगी के बचे- कुचे दिनों को तराशा जाए....
जिंदगी को मुस्कराने दिया जाए... न जाने कल हो न हो॥

Monday, May 25, 2009

अपनी इज्जत अपने हाथ

एक जानने वाले हैं मेरे। काफी गरम मिजाज। कुछ दिन पहले कुछ बात चली। मजाक मजाक में उनकी आवाज़ थोडी व्यंगात्मक और तल्ख़ हो गई. लगा जैसे उनके दिल की बात बहार गई। उसमें काफी तड़प थी, लगा जैसे वो नहीं उनकी कसमसाहट बोली। कहा 'कल फ़िर झूट से सुबह की शुरुआत होगी, वोही तेल लगना होगा, चार पुलिस वालों को गरियाकर खुश हो जायेंगे। सोचेंगे बड़े पत्रकार हैं।' क्या यही स्तर रह गया है पत्रकारिता का? क्या हर पत्रकार कमोबेश ऐसा ही सोचता है?
यह सोचना जरुरी है...कहीं हम अपने लिए ही तो गड्ढा नही खोद रहे हैं। हम सबको अपनी सीमा बनानी होगी....
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