Tuesday, September 29, 2009

पोस्टमार्टम...भूल चूक माफ़...

एक बहुत ही जाना माना क़स्बा है, नई सड़क पर। शायद आप उस सड़क से गुजरे हों। खैर, वैसे तो वहां अक्सर ही हलचल रहती है, देश के बड़े बड़े तुर्रम खां यहाँ आते हैं और यहाँ के जमींदार कि तारीफों के पुल बांधते हैं। मैंने भी बांधे हैं पर जब मुझे पसंद आया। आज मैं वहां से गुजर रहा था कि एक नई हलचल पर नजर पड़ी। मैंने सोचा, जरा देखा जाए कि माजरा क्या है, पता चला यहाँ फ़िर एक रचना पर तारीफों के पुल बाँध रहे हैं, मुझे लगा हर बार कि तरह इस बार भी मजेदार रचना होगी। मैंने पढ़ना शुरू किया, पहले में जिस्ट समझ में आ गया पर सोचा चलो पूरी रचना पढ़ ली जाए। गिरते पड़ते जब ख़त्म हुई तो समझ नहीं आया कि जमींदार साहब लिखना क्या चाहते थे, लगा कि जबरदस्ती सिर्फ़ लिखने के लिए लिख दिया। विचार परिपक्व नहीं रहा होगा, तभी इतना बहकाव था। खैर, मैं उनकी भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचाना चाहता इसलिए मैं सीधे मुद्दे पर आता हूँ।
दरअसल उन्होंने एक जगह कुछ ऐसा लिखा है....

'अपनी हर उपलब्धि में हम पहली बार सीना तानते हैं। फिर अपनी चाल में मस्त हो जाते हैं। यह मुल्क अतीत से लेकर वर्तमान और भविष्य तक में गौरव के क्षण तलाशता दिखता है।..........वर्ल्ड क्लास और सुपर पावर का बोध। कितने सालों से हम बनने की कोशिश में लगे हैं। हद हो गई।'

पर मैं कहता हूँ कि अरे सर जी, हद मुल्क ने नहीं की है। हद तो हम और आप जैसे पत्रकारों ने की है जो मुल्क की किसी उपलब्धि को लेकर २4 घंटे के स्पेशल प्रोग्राम बना डालते हैं। पता चलता है हफ्ते भर तक उनके फौलो अप चलते रहते हैं, किस लिए। सब अपनी बनाते हैं जनाब। अखबारों को पाट देते हैं पूरी उपलब्धि के गौरवगान से। और आम आदमी वही देखता है जो उसे टीवी और अख़बार में परोस के दिया जाता है। उसी से वो अपनी सोच बनाता है।

अगर इतना ही बोध है तो क्या जरुरत है इन ख़बरों को लेकर उड़ने की... न उड़िए... यही होता आया है। मुल्क नहीं चिल्लाता है कि मैंने कोई अनोखा काम किया है, हम आप गाते हैं। और दूसरी बात बुरा मत मानिएगा पर सुपर पावर... जबरदस्ती का पोस्ट मालूम पड़ता है। जहाँ तक आई कार्ड की बात है, तो एक बार पढ़ना बेहतर होगा की वो है किस लिए, मिलेगा तो सबको ही।

जमीदार साहब से मेरा कोई बैर नहीं, न ही मेरी औकात है उनसे उलझने कि पर मेरे मन में जो भी आया मैंने यहाँ कह दिया...मैं उनसे उम्र और अनुभव दोनों में अदना हूँ पर यहाँ अपने मन कि बात रख सकता हूँ...फ़िर भी भूल चूक माफ़...

Friday, September 25, 2009

द लास्ट लियर विद टियर

इंसान की भी न जाने कैसी कैसी desires होती हैं. यही रुलाती है और यही हमें हसने का मौका देती है, यही ऊँचे आसमान सा कद करने की ताकत देती है और यही सीख भी समेत लेती है, फ़िर भी हम कुछ सीख को आखिरी नहीं होने देते, वो जिंदगी की पहली सीख सरीखी होती हैं।
इसी ने मुझे आज द लास्ट लियर देखने के लिए मजबूर कर दिया। दरअसल काफी दिनों से रोजाना एक फ़िल्म देखता हूँ, वजह नहीं जनता और सच पूछिए तो जानना भी नहीं चाहता। हर फ़िल्म मेरे अन्दर के छिपे कलाकार को कोसती है। कई ख्याल पनपते हैं और पानी के बुलबुलों की तरह फूट जाते हैं। आज कुछ ऐसा ही हुआ। मकबूल, हैरी और सिद्धार्थ। हर किरदार की गहराई नापने में फ़िल्म कब रुला गई, पता ही नहीं चला। जगे तो पता चला आंखों के आंसूं पलकों से बातें कर रहे हैं, अजीब अहसास था। शायद काफी दिनों बाद आंसुओं की गर्मी महसूस की थी। उनकी जलन फ़िल्म के बीते कई सीन्स को पलट कर देखने पर मजबूर कर रही थी। और हर सीन मुझसे ख़ुद में झाँकने को कह रहा था, फ़िर सोचा कि आख़िर ये फ़िल्म परदे पर लोगों को पसंद क्यों नहीं आई होगी। जवाब भी ख़ुद ही मिल गया, मेरी तरह हर इंसान को आंसुओं से दिल्लगी तो नहीं ही होगी। कम ही लोग ऐसी फिल्मों को देखकर उनमें जी पाते हैं। फ़िर शायद ये भी एक वजह हो सकती है। अमिताभ जैसे अभिनेता वाकई दुनिया में कम ही हैं। उन्हीं ने मुझे इस फ़िल्म को देखने के लिए खींचा है। desire से ही इंसान बनता है। चलना सीखता है और चलाना भी....हर किसी के लिए इसमें कुछ सीखने को है, पर हाँ जरूरी नहीं की ये आपकी आखिरी सीख हो।

(और हाँ, ये मेरी प्रतिक्रिया है, मैंने फ़िल्म की समीक्षा लिखने की कोशिश नहीं की है। कुछ अहसासों को यहाँ उडेलने की कोशिश की थी पर इस दौरान शायद वो एहसास फ़ोन की वजह से फीका पड़ गया। पर वो भी तो मेरी desire का ही हिस्सा है)
Related Posts with Thumbnails