समाज शब्द से नफरत सी होने लगी है। इसने मेरे सारे सपनों को बिखेर दिया है। इसे ऐसा करने से रोकने की कोशिश बहुत की लेकिन सारी कोशिशें नाकाम जाती रहीं। इसीलिए आज बहुत से सवाल हैं। जवाब नहीं मिल रहा और न ही कोई रास्ता नजर आ रहा है जो मेरी दुविधा के हल से मुझे मिलाये।
ये कैसा समाज है? ये किसका समाज है? और इस समाज का क्या काम है? ये समाज किसे क्या देता है? इस समाज से किसका कितना जीवन संवरता है? प्रेम का ठेकेदार क्यूँ है ये समाज? समाज के सामने प्रेम क्यूँ हारने लगता है? हम समाज के निरर्थक और दकियानूसी तानों से बचने के लिए क्यूँ अपने बच्चों की खुशियों का गला ख़ुशी ख़ुशी घोंट देते हैं? और ऐसे मां बाप को क्या संज्ञा दी जानी चाहिए जो प्रेम विवाह रोकने के लिए अपने बच्चों को जान से मार देने पर उतारू हो जाते हैं ?
उस लड़की का क्या कसूर है जो अपने मां बाप की ख़ुशी के लिए अपनी ज़िन्दगी कुर्बान कर रही है? उस लड़के का क्या कसूर जिसने अपनी प्रेमिका को ही धड़कन समझ लिया? उस लड़के का क्या कसूर प्रेम को प्रथाओं से ऊपर समझा? दोनों का क्या कसूर जो उन्होंने समझ लिया कि वक़्त के साथ लोगों की सोच भी बदल जाती है? और दोनों के जुदा हो जाने से समाज को क्या मिलेगा? क्या समाज वाह वाही करेगा उस मां बाप की? सम्मानित करेगा उस परिवार को जिसने एक अंधे और बहरे समाज के लिए दो जिंदगियों का गला घोंट दिया?
किसे दोष दूँ, ये भी मैं समझ नहीं पा रहा हूँ. दिमाग सवालों का घर बन गया है। प्रेम के सुनहरे ख्वाबगाह को तहस नहस होते देखना कितना दुखदाई है इसे बयां करना भी बेहद मुश्किल है। भावनाओं के सामने शब्द इतने अदने लग रहे हैं कि उन्हें लिखने का भी मन नहीं। लेकिन क्या करूँ, इस समाज को ऐसे ही प्यार का क़त्ल करते और नहीं देख सकता। आज मैं समझ सकता हूँ विरह क्या है। आज मैं महसूस कर रहा हूँ कि वियोग क्या है। और कतई नहीं चाहता कि प्रेम यूँ ही घुट घुट कर मरता रहे। वो भी एक ऐसी सोच के सामने जिससे किसी का भला नहीं। जो सिर्फ और सिर्फ नफरत और दर्द को जन्म दे वो सही कैसे हो सकता है? कब तक हम समाज की व्यर्थ रुढियों के सामने घुटने टेकते रहेंगे। आखिर कब तक...
सुना था प्रेम बहुत शक्तिशाली होता है। पर क्या यह इतना कमजोर होता है जितना की आज मुझे प्रतीत हो रहा है...
ये कैसा समाज है? ये किसका समाज है? और इस समाज का क्या काम है? ये समाज किसे क्या देता है? इस समाज से किसका कितना जीवन संवरता है? प्रेम का ठेकेदार क्यूँ है ये समाज? समाज के सामने प्रेम क्यूँ हारने लगता है? हम समाज के निरर्थक और दकियानूसी तानों से बचने के लिए क्यूँ अपने बच्चों की खुशियों का गला ख़ुशी ख़ुशी घोंट देते हैं? और ऐसे मां बाप को क्या संज्ञा दी जानी चाहिए जो प्रेम विवाह रोकने के लिए अपने बच्चों को जान से मार देने पर उतारू हो जाते हैं ?
उस लड़की का क्या कसूर है जो अपने मां बाप की ख़ुशी के लिए अपनी ज़िन्दगी कुर्बान कर रही है? उस लड़के का क्या कसूर जिसने अपनी प्रेमिका को ही धड़कन समझ लिया? उस लड़के का क्या कसूर प्रेम को प्रथाओं से ऊपर समझा? दोनों का क्या कसूर जो उन्होंने समझ लिया कि वक़्त के साथ लोगों की सोच भी बदल जाती है? और दोनों के जुदा हो जाने से समाज को क्या मिलेगा? क्या समाज वाह वाही करेगा उस मां बाप की? सम्मानित करेगा उस परिवार को जिसने एक अंधे और बहरे समाज के लिए दो जिंदगियों का गला घोंट दिया?
किसे दोष दूँ, ये भी मैं समझ नहीं पा रहा हूँ. दिमाग सवालों का घर बन गया है। प्रेम के सुनहरे ख्वाबगाह को तहस नहस होते देखना कितना दुखदाई है इसे बयां करना भी बेहद मुश्किल है। भावनाओं के सामने शब्द इतने अदने लग रहे हैं कि उन्हें लिखने का भी मन नहीं। लेकिन क्या करूँ, इस समाज को ऐसे ही प्यार का क़त्ल करते और नहीं देख सकता। आज मैं समझ सकता हूँ विरह क्या है। आज मैं महसूस कर रहा हूँ कि वियोग क्या है। और कतई नहीं चाहता कि प्रेम यूँ ही घुट घुट कर मरता रहे। वो भी एक ऐसी सोच के सामने जिससे किसी का भला नहीं। जो सिर्फ और सिर्फ नफरत और दर्द को जन्म दे वो सही कैसे हो सकता है? कब तक हम समाज की व्यर्थ रुढियों के सामने घुटने टेकते रहेंगे। आखिर कब तक...
सुना था प्रेम बहुत शक्तिशाली होता है। पर क्या यह इतना कमजोर होता है जितना की आज मुझे प्रतीत हो रहा है...
6 comments:
nikhil ji. lekh padkar achchha laga. pyar to aaj bhi utna hi shaktishali hai jitna sadiyon pahle tha. agar pyar kamzor hota to ye kab ka mit gaya hota. yea aaj bhi logo ke dil me dhadkata hai jo prem ke shaktishali hone ka saboot hai. aaj ya kal ye baat samaj ko bhi samjah me aa jayegi.
भारत में आज भी बहुत सी परम्पराएं उसी पुरातन रूप में चली आ रहीं हैं, उनमें से एक सामाजिक मान्यताओं से युक्त विवाह प्रथा भी है।...समय के साथ-साथ परिवर्तन होता जाएगा...परिवर्तन एकाएक नहीं होता , इसमें बहुत समय लगता है, आप धीरज रखें।...
आपका लेख पढ़ा .. दो बार पढ़ा ... बहुत सारे भाव हैं लेख में .... नफरत, प्यार, गुस्सा, शिकायत, नाराज़गी , .... मैं ये सोच रही हूँ की जब आपने ये लेख लिखा होगा तब आपके मन में कितना तूफ़ान मच रहा होगा इन भावों का ... इतना ही कहूँगी की आप खुश किस्मत हैं की इस तूफ़ान को शब्द दे सकते हैं ... कुछ तो बस ख़ामोशी से इस तूफ़ान का शिकार हो जाते हैं ...
जहां तक आपके सवालों की बात है ... आज तक मुझे नहीं लगता की कोई इस का सटीक जवाब दे पाया है ...
एक ही बात कहना चाहूंगी ... जीवन अमूल्य है ... एक बार मिलता है .... बस आखरी सांस लेते हुए किसी बात का अफ़सोस नहीं रहना चाहिए की ये करना था और कर नहीं पाए ... खुश रहना था, रह नहीं पाए ... ज़िन्दगी जीनी थी, जी नहीं पाए ...
ओह ....बेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति .....!!
hiiii nikil acha lga apne is vishaye per dubra likha is baar app pehle se jyada ache the per me yakinan keh sakti hu app isse bhi ache ho sakte ho........aap kam sabdo me bhut kuch keh dena chahte ho jo ki achi baat he
मार्मिक
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