दिन सलीके से उगा, रात ठिकाने
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने
चंद लम्हों को ही बनाती हैं मु
जिंदगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से
इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला
रात जंगल में कोई शम्मा जलाने
फासला चाँद बना देता है हर पत्
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से
शहर में सब को कहाँ मिलाती है
अपनी इज्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसा
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दीवार-ओ-दर से उतर के परछाइयां बोलती हैं परदेस के रास्ते में लुटते कहाँ हैं मुसाफिर मौसम कहाँ मानता है तहजीब की बंदिशों को सुनने की मोहलत मिले तो आवाज़ है पतझडों में
कोई नहीं बोलता जब, तनहाइयां बोलती हैं
हर पेड़ कहता है किस्सा, पुरवाइयां बोलती हैं
जिस्मों से बाहर निकल के अंगडाइयां बोलती हैं
उजड़ी हुई बस्तियों में आबादियाँ बोलती हैं
3 comments:
दोनों ही गजलें बहुत सुन्दर हैं ,
दिन सलीके से उगा,
जिंदगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही
इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
कोई नहीं बोलता जब, तनहाइयां बोलती हैं वाह , शुक्रिया
सुंदर ग़ज़ल ..
bahoot badhiya lage rahen
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