खो गया था दुनिया के झंझावातों में आइना देखता हूँ, पर खुद की तलाश है, मुसाफिर हूँ. ये अनकही खुली किताब है मेरी... हर पल नया सीखने की चाहत में मुसाफिर हूँ.. जिंदगी का रहस्य जानकर कुछ कहने की खातिर अनंत राह पर चला मैं मुसाफिर हूँ... राह में जो कुछ मिला उसे समेटता मुसाफिर हूँ... ग़मों को सहेजता, खुशियों को बांटता आवारा, अल्हड़, दीवाना, पागल सा मुसाफिर हूँ... खुशियों को अपना बनाने को बेक़रार इक मुसाफिर हूँ... उस ईश्वर, अल्लाह, मसीहा को खोजता मैं मुसाफिर हूँ...
Wednesday, August 19, 2009
लुढ़कते शब्द और मीडिया की बागडोर
पत्रकारिता बहुत तेजी से बदल रही है। सकारात्मक रूप में कहें तो इसका तेजी से विकास हो रहा है। हाँ भैया, विकास तो हो ही रहा है। इस विकास में बड़ा योगदान है पी आर कम्पनियों का। दिन दहाड़े प्रेस कांफ्रेंस करते हैं। इसमे मुझे कोई आपत्ति नहीं है। उसमें कई ऐसे भी कार्यक्रम भी होते हैं जिनमें पत्रकार बंधुओं को अंग्रेजी शराब थमा दी जाती है। गिफ्ट के नाम पर, मनो शराबियों की प्रेस कांफ्रेंस हो। इसके पीछे कोई भी आशय हो, मुझे लगता हैं भाई लोग इसे लेकर पत्रकारिता को बिकाऊ बना रहे हैं। ख़ुद लुढ़कते हुए दफ्तर जाते हैं और वैसे ही लुढ़कते हुए शब्दों से ख़बर लिख देते हैं। और जब बात होती है तो कहते हैं हम तो डेमोक्रेसी के चौथे स्तम्भ हैं। लडखडाते ईमान और शब्दों से ये चले हैं डेमोक्रेसी का भार उठाने। कुछ भी हो, पी आर के भाई लोग बधाई के पात्र हैं। क्या चलन शुरू किया है, मेरी नजर में इस चलन से लोगों को पत्रकारिता को आइना दिखाने का भी मौका मिल गया है। लेकिन एक बात समझ से परे है कि आख़िर ये पियक्कड़ कैसे संभालेंगे इसका बोझ। कहीं ऐसा तो नहीं की इनकी हालत भी उस मजदूर की तरह हो गई है जिसे दारो पिए बिना काम नहीं होता। अगर ऐसा है तो दारू के सामने अपनी आबरू संभाले खड़ी है ये मीडिया। बचा सको तो बचा लो' अभी ऐड हावी है कल दारू हावी हो जाएगी। ख़बर नै पीपी लिखी जाएगी। सच खो जाएगा...
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