Tuesday, August 18, 2009

...जो दिल के काफी करीब हैं

दिन सलीके से उगा, रात ठिकाने से रही
दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही

चंद लम्हों को ही बनाती हैं मुसव्विर आँखें
जिंदगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही

इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही

फासला चाँद बना देता है हर पत्थर को
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही

शहर में सब को कहाँ मिलाती है रोने की फुरसत
अपनी इज्ज़त भी यहाँ हँसने-हँसाने से रही

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दीवार--दर से उतर के परछाइयां बोलती हैं
कोई नहीं बोलता जब, तनहाइयां बोलती हैं

परदेस के रास्ते में लुटते कहाँ हैं मुसाफिर
हर पेड़ कहता है किस्सा, पुरवाइयां बोलती हैं

मौसम कहाँ मानता है तहजीब की बंदिशों को
जिस्मों से बाहर निकल के अंगडाइयां बोलती हैं

सुनने की मोहलत मिले तो आवाज़ है पतझडों में
उजड़ी हुई बस्तियों में आबादियाँ बोलती हैं

--निदा फाजली

3 comments:

शारदा अरोरा said...

दोनों ही गजलें बहुत सुन्दर हैं ,
दिन सलीके से उगा,
जिंदगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही
इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
कोई नहीं बोलता जब, तनहाइयां बोलती हैं वाह , शुक्रिया

अर्चना तिवारी said...

सुंदर ग़ज़ल ..

Mukul said...

bahoot badhiya lage rahen

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