सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
इधर उधर कई मंजिलें हैं जो चल सको तो चलो
बने बनाये हैं सांचे जो ढल सको तो चलो
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिराकर अगर तुम संभल सको तो चलो
यही है ज़िन्दगी कुछ ख्वाब चंद उम्मीदें
इन्ही खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो
हर एक सफर को है महफूज़ रास्तों की तलाश
हिफज़तों की रवायत बदल सको तो चलो
कहीं नहीं कोई सूरज धुआं धुआं है फिजा
ख़ुद अपने आप से बहार निकल सको तो चलो...
(ये वो मरहम है जो मुझे उस वक्त मिल गया था जब मैं चलना सीख रहा था, किसी महान शख्सीयत ने लिखा है। शायद निदा फाज़ली )
6 comments:
जिसने भी लिखा हो, लिखा गजब का है.
अगर यह गज़ल इतनी पसन्द है तो शायर का नाम ढूंढिये और अगली पोस्ट में दीजिये .हिंट -इसे चित्रा जगजीत ने गाया है
Jo hukum...
Sharad ji ne jo hukum diya wahi mera bhi hai...filhal achcha laga ise padhna.
Naam me kya rakha hai? Jisne bhi likha hai unka naam yahan likh bhi dun to ye suraj ko diya dikhane jaisa hoga. Mujhe to ehsaason se matlab hai. Aapko naam pata hai to jarur share kejiye.
सफर में धूप तो होगी..
निदा फाज़ली
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