ओ री दुनिया, ओ री दुनिया, ऐ दुनिया
सुरमई आंखों के प्यालों की दुनिया ओ दुनिया
सुरमई आंखों के प्यालों की दुनिया ओ दुनिया
सतरंगी रंगों गुलालों की दुनिया ओ दुनिया
सतरंगी रंगों गुलालों की दुनिया ओ दुनिया
अलसाई सेजों के फूलों की दुनिया ओ दुनिया
अंगड़ाई तोड़े कबूतर की दुनिया ओ दुनिया
ऐ कुरवत ले सोई क़यामत की दुनिया ओ दुनिया
दीवानी होती तबीयत की दुनिया ओ दुनिया
ख्वाहिश में लिपटी ज़रूरत की दुनिया ओ दुनिया
है इंसान के सपनों की नीयत की दुनिया ओ दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
ममता की बिखरी कहानी की दुनिया ओ दुनिया
बहनों की सिसकी जवानी की दुनिया ओ दुनिया
आदम के हवास रिश्ते की दुनिया ओ दुनिया
है शायर के फीके लफ्जों की दुनिया ओ दुनिया
गालिब के मौमिन के ख्वाबों की दुनिया ओ दुनिया
मजाजों के उन इंक़लाबों की दुनिया
फैज़े फिरको साहिर उमक्दुम मील की जोकू किताबों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
पलछिन में बातें चली जाती हैं
रह जाता है सवेरा वो ढूंढे
जलते मकान के बसेरा वो ढूंढे
जैसी बची है वैसी की वैसी , बचा लो ये दुनिया
अपना समझ के अपनों के जैसी उठा लो ये दुनिया
छिटपुट सी बातों में जलने लगेगी बचा लो दुनिया
कट पिट के रातों में पलने लगेगी बचा लो ये दुनिया
ओ री दुनिया ओ री दुनिया वो कहते हैं की दुनिया
ये इतनी नहीं है सितारों के आगे जहाँ और भी है
ये हम ही नहीं हैं वहां और भी हैं
हमारी हर एक बात होती वहां है
हमें ऐतराज़ नहीं है कहीं भी
वो आई जामिल पे सही है
मगर फलसफा ये बिगड़ जाता है जो
वो कहते हैं आलिम ये कहता वहां इश्वर है
फाजिल ये कहता वहां अल्लाह है
काबुर ये कहता वहां इस्सा है
मंजिल ये कहती तब इन्सां से की
तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया
ये उजडे हुए चंद बासी चिरागों
तुम्हारी ये काले इरादों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या हो
साभार गुलाल
7 comments:
सुबह से गुलाल फिल्म के ही गाने सुन रहा हूँ। गजब के सुन्दर प्यारे गाने है इस फिल्म में। दिल खुश हो गया।
कुछ भी कहएं दुनिया को मगर छोडने को भी तो मन नहीं करता फिर भी ये गीत मन को भाता है आभार्
ख्वाहिश में लिपटी ज़रूरत की दुनिया ओ दुनिया
है इंसान के सपनों की नीयत की दुनिया ओ दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
waah behtarin,shabd chayan bhav bahut hi sunder.
दिल खुश हो गया...
आनन्द आ गया!!
गुलाल का ये गीत प्रशान्त के ब्लोग पर पढ़ा/सुना था.. बहुत सुन्दर..
कल बैठ के यू ही कुछ लिखने का मन किया. पता नहीं क्यों इच्छा हुई की इसे तुम्हे भेजू.
---------------------------------------------------------------------------------------------
कभी कभी पता नहीं चलता है और ज़िन्दगी कहाँ कहाँ ले जाती है. हम सब इस ज़िन्दगी के पीछे जान दे देते है जैसे की इसे जीते हम हो. जाने क्यों कभी कभी ये महसूस होता है की मैं मैं ही नहीं हूँ. आखिर ये मैं है क्या? मैं हूँ क्या? लगता है की जैसे मैं अपने नहीं किसी और के शरीर में जी रहा हूँ. जब भी गौर से देखता हूँ तो लगता है जीवन एक चलचित्र है और मैं, पता नहीं मैं इसमें क्या हूँ. शायद कुछ भी नहीं जीता ये शरीर है, भोगता ये शरीर है. सुख है तो शरीर दुःख है तो शरीर. इस सब में मैं कहाँ हूँ? नहीं पता. मैं इस शरीर के सुख दुःख के चक्कर में मरा जा रहा हूँ. करता ये शरीर है पर झेलता मैं हूँ. अगर मैं इस शरीर में न होकर (जो कि इस समय इस पांच सितारा होटल में बैठ कर कुछ लिख रहा है) कहीं किसी और शरीर में होता, किसी और देश में होता तो? तो शायेद मैं वो ज़िन्दगी जी रहा होता. मैं उस शरीर के पीछे मर रहा होता. बात वही रहती, भोगता शरीर पर मरता मैं. तो? हाँ सब कुछ वैसा ही रहता लेकिन प्रारब्ध नहीं बदलता मेरे उस शरीर में होने से. मेरा वो शरीर यहाँ नहीं होता बल्कि मैं वहां होता. बात फिर भी वाही है, प्रारब्ध हर शरीर के साथ होता है. मैं इस शरीर के पीछे भले ही मरा जाऊं लेकिन इस शरीर का प्रारब्ध इसे वही ले जाएगा जहां जाना होगा. इसे वही सब कुछ देगा जो मिलना होगा. यही जीवन है यही प्रारब्ध है. बेहतर यही है कि मैं जीना शुरू करुँ. शरीर को तो जहां जाना होगा जाएगा परन्तु इसके भोग के पीछे नहीं मरा जा सकता. जीवने चलते रहने वाली वस्तु है. जब मैं शरीर हो जाता हूँ तो मरने लगता हूँ और जब मैं मैं रहता हूँ तो जीता तो नहीं पर मरता भी नहीं. और ये जो जीवन मरण से ऊपर की वस्तु है ये प्रथम सीढी है. कह नहीं सकता क्यों लेकिन इतना पता है कि नीचे आते भी डरता हूँ तो ऊपर भी नहीं जाना चाहता हूँ. क्यों? ये पता नहीं. शायद जानता हूँ कि ऊपर जाने के बाद कुछ जानना शेष नहीं रहेगा और जब कुछ शेष नहीं रहेगा तो सब समाप्त हो जाएगा. पर ये समाप्ति ही समाप्ति नहीं है वर्ना हर पल कोई ना कोई ऊपर कि तरफ न बढ़ रहा होता. ये तो नयी शुरुआत है. शायद इसी को जीवन वृत्त कहते है....
Post a Comment