कल खबर आई कि एक मेडिकल के छात्र ने जहर खाकर अपनी जान दे दी। रात एडिशन छोड़ने का टाइम आया तो एक और खबर आई कि १३ साल की लड़की ने फांसी लगा ली। दोनों ने अलग अलग वजहों से सुसाइड किया। एक के ऊपर पढाई का प्रेशर था तो दूसरी ने सिर्फ इसलिए जान दे दी कि उसके पापा मम्मी उसके दोनों छोटे भाइयों के साथ शॉपिंग करने गए और उसे घर पर अकेला छोड़ गए। लड़के के पापा ने कहा कि मेरे बेटे के साथ जातिगत भेदभाव किया जा रहा था। इसीलिए उसे लगातार चार बार से एक ही सब्जेक्ट में फेल किया जा रहा था। सच्चाई कुछ भी रही हो पर लड़के ने जो कुछ अपने मोबाइल में लिखा उसमें उसका दर्द साफ़ झलक रहा था. वो थक चुका था. सुशील नाम के इस लड़के ने कई सवाल दिए हैं, जिनका हमें जवाब खोजना है. क्या मार्क्स की रेस से वाकई बच्चे थक चुके हैं? क्या ग्रेड सिस्टम समस्या का समाधान बन सकेगा? बच्चे इतने कमजोर क्यूँ हो रहे हैं? वो अपने मां बाप के बारे में क्यूँ नहीं सोचते? या एजुकेशन में ३ इडियट्स के वायरस समाज में इन होनहार युवाओं को घुटने टेकने पर मजबूर कर रहे हैं? हम आमिर खान की फिल्म को सिर्फ फिल्म समझेंगे तो शायद इसका जवाब न मिले लेकिन काफी हद तक समाधान आमिर ने ही दे दिए हैं. क्या हम उनको एक्सेप्ट करने के लिए तैयार हैं? या किसी और सुशील को हार माननी पड़ेगी?
दूसरी तरफ लड़की के पापा ने कहा कि सारी गलती मीडिया की है. मीडिया इतनी खबरें दिखाती है कि बच्ची ने रविवार कि सुबह ही उनसे पूछा था कि सुसाइड कैसे करते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि उसने सुसाइड इसलिए नहीं किया क्यूंकि वो उसे साथ नहीं ले गए. खैर, जो भी हो सवाल ये उठता है कि क्या मीडिया को अपने कंटेंट पर दुबारा सोचने कि जरुरत है. क्या वाकई लोगों पर इन ख़बरों का एडवर्स प्रभाव पड़ रहा है? क्या हमें डिबेट करनी चाहिए? क्या सुसाइड कि खबरें न छापने या न दिखने से बच्चे सुसाइड करना बंद कर देंगे? आखिर इसका इलाज क्या है?
देखा जाये तो ये दोनों कोई सामान्य सी घटना लगती हैं. १ अरब की आबादी में दो लोगों ने सुसाइड कर लिया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा. ध्यान से देखा जाये तो ये बड़ी गंभीर समस्या है. सुसाइड करना इतना आसन नहीं है जितना पढने या सुनने में लगता है. क्या कैफियत रही होगी उन बच्चों की जो ये कदम उठाने के लिए मजबूर हो रहे हैं. उनकी हालत के बारे में सोचता हूँ तो बहुत भावुक हो जाता हूँ. गुस्सा भी आता है कि वो अपने पीछे मां बाप को रोने के लिए छोड़ गए. जरा सा संघर्ष नहीं कर सके. पर इतने से ही बात ख़त्म हो जाती तो इतना लम्बा चौड़ा न लिखता. अजीब सी छटपटाहट हो रही है. इन्हें ऐसा करने से रोकना होगा. कैसे भी...प्लीज.
8 comments:
sachmuch sochna to padega...ab nahi to kab?
Media ko dosh kyun den .. pahali zimmedari aprents ki hai
हमने तो सिर्फ सवाल उठाये हैं सर, कहीं तो कोई लाइन बनानी होगी...अगर हम ये सोचते रहेंगे कि पहले तुम-पहले आप तो २-४ सुशील, विजय, और शिवानी और जान दे चुके होंगे...मुझे तो सिर्फ एक ऐसे इलाज से मतलब है जो इन बच्चों को ऐसा बड़ा कदम उठाने से रोक सके..
आपके उदार आत्मीय टिप्पणी के लिए आपका आभार। आपके सारोकार और संवेदनशीलता से प्रभावित हुआ। आपके ब्लाग अपने ब्लाग से जोड़ लिया है। एक बार फिर से आपका आभार।
कहीं ना कहीं खामी तो ज़रूर है। लेकिन मां-बाप को भी सोचना चाहिए।
( बाकी आपने जो मेरे बलॉग पर विचार व्यक्त किया है मैं उसका दिल से स्वागत करता हूं। )
ek jugad hai guru...nuclear family ka concept choro aur wapas apne parents ke sath raho...saara hal nikal jayega...hai himmat kisi me, nahi na, to chintit raho...
हम तैयार हैं, न यकीं हो तो मेरी मां से पूछ लीजिएगा.
yarrrrrr i think every body in tension
so remove tension and enjoy life
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