सोशल नेटवर्किंग से लगाव बढ़ रहा है. कितना वक़्त इसकी सोहबत में गुजर जाता है, पता ही नहीं चलता. दरअसल मेरे मतलब का काफी मिल जाता है यहाँ. बिना किताब पलटे काफी कुछ सीखने को मिल जाता है. कई अच्छे बुरे लोगों से बात भी होती है. कुछ नए लोगों से बात होती है वो अक्सर इल्जाम लगाते हैं कि मीडिया में काफी अधूरापन है. खबरें अधूरी, मुहिम भी अधूरी, ज्ञान अधूरा आदि आदि. सिपहसलार कहते हैं हम चौबीस घंटे में क्या क्या और किसे किसे दिखाएं. एक ने पूछा कि क्या आप पत्रकार बनाकर खुश हैं. मैंने कहा हाँ. अगर खुश न होता तो छोड़ सकता था. उसने कहा मुझे आप लोग अच्छे नहीं लगते. मैंने वजह पूछी तो जवाब में फिर वही इल्जाम था. मैंने कुछ जवाब देने से पहले सोचना मुनासिब समझा. मैंने कहा इसका जवाब हम बाद में देंगे.
फिर बीते दिनों हुए कई वाकयों को याद किया. कौन सा मामला कितने दिनों तक चला, किसे मुहिम बनाया गया, और किसे इन्साफ दिलाया गया. पहले दो सवालों के तो ढेर सरे जवाब मिले लेकिन तीसरे सवाल के जवाब न के बराबर थे. राहुल राज, महाराष्ट्र में पेपर देने गए यूपी और बिहार के छात्र, रुचिका, आरुषी, आसिया जान, निलोफर जान और न जाने ऐसा कितने हैं जिन्हें इन्साफ नहीं मिला. हमने उनका हाथ थामा, टीआरपी में उछाल लगाई, उनके शुभचिंतक बने, अपनी पीठ भी थपथपाई, और उन्हें राह में अकेला छोड़कर आगे निकल गए.
कोई अमिताभ और मोदी कि तरफ भागा तो कोई शाहरुख़ और राहुल गाँधी के पीछे लग लिया. एक्सक्लूसिव की तलाश में. कुछ लोग अमर कथा में लीन हो गए. इस बीच रुचिका, आरुषी, राहुल राज, निलोफर और आसिया नयी ख़बरों के भार के नीचे दब गए. महंगाई से किसी को कोई लेना देना नहीं, सरकार को घेरना पुराना ट्रेंड हो चला है. नया नजरिया बनाया जा रहा है. आम आदमी से जिस बात का सरोकार है, उससे किसी को मतलब नहीं. वो आम आदमी जो सबसे ज्यादा अखबार पढता है और वही टीआरपी बढाता है.
ऐसा ही हाल सोशल नेटवर्किंग में नजर आ रहा है. किसी ने शेर मारा, तो वाह वाह. किसी ने चुटकी काटी तो आह आह. शाहरुख़ और बच्चन पर बहस शुरू हुई तो ख़त्म होने का नाम नहीं लेती. ठाकरे फिर सुर्ख़ियों में हैं. सब कहते हैं कि उनसे कैसे निपटें, जवाब कोई देना नहीं चाहता. जवाब आता भी है तो ऐसा जिसे कोई न समझ पाए कि भाई करना क्या है. फिर कोई नया विषय. कोई छींकता है है तो लोग जुट जाते हैं दवा बताने में. कोई ये पूछता है कि क्या लिखें. मजे कि बात यह है कि मूर्खों की एक बड़ी सेना बताने में व्यस्त हो जाती है कि क्या लिखिए. इसमें एक और मजे की बात है. कुछ लोग तो विषय भूलकर आपस में ही लड़ने मरने लागते हैं. जिसके घर में ये युद्ध चलता है वो भी खुश रहता है कि हमारी तो टीआरपी बढ़ रही है. वो उसमें और घी डाल देता है. उन मूर्खों में कभी कभी हम भी शामिल हो जाते हैं. हाहा.
सब जूझ रहे हैं. सबका पेट भरा है. उसमें आग नहीं लगी है एक गरीब की तरह. तभी तो नेट पर बैठे चटिया रहे हैं. किसी को इन्साफ मिले न मिले, कोई जिए मरे. हमारी दुकान चलती रहे, ज्यादातर लोगों का यही अनकहा नारा है.
शायद ये उस बात का जवाब है जो मुझसे किसी ने पूछा था.
(मैं कोई आलोचक नहीं, सारी चीज़ें देखता हूँ और फिर कुछ जवाब खोजता हूँ. मिलते हैं तो ठीक नहीं तो उन एहसासों को यहाँ ऐसे सहेज देता हूँ.)
8 comments:
....प्रभावशाली लेख !!!
बहुत अच्छा लिखा आपने
बहुत ही अच्छा लिखा है। थोड़ा ध्यान एडिटिंग पर भी दें। आपने जो टंेपलेट चुना है उसमें चित्र को हमेशा मीडिल में प्लेस किया करें तो बेहतर रहेगा।
लेख को दो या तीन पैरा में तोड़ देंगे और हर पैरा के बाद डबल स्पेस दें देंगे तो पाठकों के लिए ज्यादा पठनीय हो जाएगा।
मीडिया को गाली देना एक फैशन भी बनता जा रहा है। लोग अपने पेशों मे क्या कर रहें हैं ? डाक्टर,वकील,नेता,जज क्या कर रहे हैं ?
इस लिंक को एक बार देख लें।
http://vipakshkasvar.blogspot.com/2009/11/blog-post_23.html
आपका सुझाव सर्वथा सही है.
सवाल का जवाब एक पोस्ट के माध्यम से दूँ तो ज्यादा बेहतर होगा. जस्टिफाइड टेक्स्ट अच्छा लगता है पर मैं कुछ न कुछ बदलाव करता रहता हूँ. पाठकों की सुविधा के लिए आपके सुझाव को अमल करना मेरी जिम्मेदारी है.
एडिटिंग नहीं कर पाया, उसके लिए माफ़ कीजिएगा, दरअसल जब लिख कर फुर्सत पाए तो ऑफिस जाने का टाइम हो चुका था. जल्दबाजी में दोबारा पढ़े नहीं.
bahut khoob nikhil. sachmuch prabhawshali.
आधा है चन्द्रमा रात आधी रह ना जाये तेरी मेरी बात आधी ...मुलाकात आधी
नो डाउट बहुत बढिय़ा लेख है आपका. इसे पढऩे के बाद मेरे जेहन में भी एक सवाल उठ रहा है. अगर मीडिया यही सब कर रही है तो उसे ऐसा करने से रोकेगा कौन? क्योंकि हमारे आप जैसे लोग तो ओवरऑल व्यू लेकर उसे शब्दों में पिरोने में व्यस्त हैं. हमें सिर्फ बौद्धिक देने और दूसरे की कमियां देखने, लिखने से ही फुर्सत नहीं. जहां जरूरत है इस लेखनी की, वहां कोई लिख पाता नहीं. क्योंकि शायद ऑफिस के अंदर ही उगने वाले विरोध से हम डर जाते हैं, कहीं नौकरी न चली जाए. बस, यही कम्बख्त नौकरी. इस नौकरी की ही देन है कि मीडिया कई मुद्दों को उछालकर टीआरपी गेन करते हुए आगे बढ़ गई. जैसे हमें अच्छा नहीं लगता, ठीक वैसे ही उन्हें भी अच्छा नहीं लगा होगा, जो आगे बढ़ गए होंगे. शायद हमारे आप जैसे लोगों की संख्या कहीं ज्यादा है, जो नौकरी के आगे कुछ सोच नहीं पाते. बदलना है तो नौकरी का मोह छोड़ो, जो दिल कहता है, जो अच्छा लगता है वो करो. देखना एक दिन दुनिया तुमको उदाहरण मानेगी. हां, अपनी इस एप्रोच को मत बदलिएगा, खूब ब्लॉगिंग करिए. लिखना मत छोडि़एगा.
हां, रही बात सोशल नेटवर्किंग जैसी साइट पे बकतही की तो शायद आपने कभी चौराहा मेनटेन किया हो. अगर आप किसी चौराहे पर काफी समय गुजार चुके हैं, तो वहां होने वाले क्रियाकलाप से भी पूरी तरह वाकिफ होंगे. फालतू की बात पर वहां बड़ी गर्मा गरम चर्चाएं हो जाती हैं, चाय की चुस्कियों और बयान बाजियों में घंटों गुजर जाते हैं. कभी-कभी तो लड़ाई मरने मारने का रूप ले लेती है. मेरा मानना है कि ये चौराहे अब ऑनलाइन हो चुके हैं. तो यहां भी ऐसा हो रहा है, इसमें क्या खराबी? वैसे इन चौराहों में भी अच्छे लोग जरूर हैं, खोजिए, वो अच्छी, गंभीर बातों पर भी अर्थपूर्ण चर्चा करते मिल जाएंगे. कोशिश कीजिए ढूंढि़ए.
Post a Comment