Saturday, February 27, 2010

फिर वही...(कुछ नया कर सकते हैं क्या हम)


फिर वही...याद कीजिए इससे कितने गाने शुरू होते हैं...
चलिए जितने मुझे याद आ रहे हैं, मैं उनका जिक्र कर देता हूँ॥
दिल ढूँढता है फिर 'वही'...
'फिर वही' रात है, रात है ख्वाब की...
'फिर वही' तलाश...
'फिर वही' दिल लाया हूँ...
आने वाली है 'फिर वही' ख़ुशी सीने में... और
ऐसे न जाने कितने गाने लिखे गए हैं। हर गाने के अलग बोल, अलग एहसास और अलग जज़्बात हैं। मैं भी कल जाने क्यूँ 'फिर वही' बार बार बोले जा रहा था। अचानक ये गाने जुबान पर आ गए, फिर कुछ याद आया 'फिर वही' होली आने वाली है। अरे 'फिर वही' बजट भी तो आया। फिर वही फरवरी खत्म हो रही है। फिर वही मार्च आ रहा है। फिर वही पतझड़ आएगी और फिर वही तेज धूप झुलसाने की कोशिश करेगी। फिर वही रास्ते होंगे, फिर वही कशमकश होगी और फिर वही बिखरी सी खुशियाँ होंगी...फिर वही...

फिर वही रास्ते...फिर वही रहगुज़र...जाने हो या हो मेरा घर वो नगर,
ये कहानी नहीं जो सुना दूंगा मैं, जिंदगानी नहीं जो गंवां दूंगा मैं...

आप सोच रहे होंगे कि फिर वही गाने का जिक्र क्यूँ? तो मैं बताता चलूँ कि दो दिन पहले 'फिर वही' पर कुछ लिखने का मन किया रामचंद पाकिस्तानी फिल्म के इस गाने को सुनने के बाद। गाना सुनने के बाद मैं सोचने लगा कि वाकई नया क्या है? सब कुछ तो 'फिर वही' है। पॉजिटिव नजरिये से देखें तो सब कुछ नया ही तो है, लेकिन सच्चाई पर गौर फरमाएं तो नया कुछ भी नहीं है...बजट आया है, कुछ दिन तक इसको लेकर खूब चर्चा होगी। किसान का भला सोचा जाएगा। फिर वही पत्रकार, वही नेता अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाएँगे। होली आएगी, फिर वही अंदाज़ होगा रंग खेलने का...रंग भी फिर वही होंगे...फिर वैसी ही कवरेज होगी. कोई किसी को कुछ नहीं देगा...किसी से कुछ लेगा भी नहीं


लेकिन ऐसा क्या है कि फिर वही हमेशा एक सा बना हुआ है, इसमें बदलाव नहीं हो सकते क्या? क्या कोई तरीका है जिससे ये 'फिर वही' नया सा लगने लगे? क्या कुछ कर सकते हैं हम? उन इंसानों के बारे में कुछ सोच सकते हैं क्या जो देश के विभाजन की सजा भुगत रहे हैं? उन तमाम रामचंद की सुध ले सकते हैं क्या? कुछ ऐसा जिसमें फिर वही न हो...कुछ भी हो, पर फिर वही न हो...

Monday, February 22, 2010

हम इंसान हैं, हमें इंसान ही रहने दो...हिन्दू और मुस्लिम न बनाओ...

देखो, ये इंसान हैं

अहमदाबाद में हिन्दू और मुस्लिम इतने खौफज़दा हैं कि साथ रहने को तैयार नहीं सरकारी मकानों के आवंटन के बाद दोनों समुदायों के लोगों ने कहा है कि वे अपने समुदाय के बहुसंख्यक वाले अपार्टमेन्ट में ही रहेंगे नरेंद्र मोदी को तिलंगी यानि पतंग उड़ने की जगह इसपर काम करना चाहिए उनसे उम्मीद तो बिलकुल नहीं है लेकिन फिर भी मुख्यमंत्री तो गुजरात का है न।

ये विचार रवीश कुमार जी ने आज अपने फेसबुक की दीवाल पर चिपकाया है। देश भर से लोग इसपर अपने विचार दे रहे हैं। मुझे इसे पढ़कर बहुत दुःख हुआ। पहली वजह की अगर ये सच है तो हालत में सुधार क्यूँ नहीं हो रहा है। दूसरी वजह कि बार बार लोग आग क्यूँ भड़काने लगते हैं। हम कब तक हिन्दू मुस्लिम चश्मे से देखेंगे। कोई इंसान है भी कि नहीं। इसे पढ़ने के बाद तो ऐसा लगा जैसे गुजरात में एक भी इंसान नहीं है। या तो वो हिन्दू है या मुस्लिम।

उनकी इस भावना के कई मतलब निकलते हैं। पहला ये कि वाकई गुजरात इंसानों के रहने लायक नहीं है। लोग आज भी दंगों से प्रभावित हैं। जाहिर है, इतनी जल्दी उसका दर्द नहीं मिटेगा पर इसका मतलब ये नहीं है कि हम उनके घाव पर नमक लगाते रहें। सभी जानते हैं कि गड़े मुर्दे नहीं उखाड़ने चाहिए फिर भी न जाने क्यूँ बार बार ऐसी बातें सर उठा लेती हैं। न जाने कैसी सोच हैं ये जो इंसान को मजबूर करती है हिन्दू या मुसलामान बनने के लिए।

हर धर्म में ऐसे लोग हैं जिनका काम सिर्फ भड़काना है। और खौफज़दा न हिन्दू है न मुसलामान, वो तो सिर्फ इंसान है। एक आम इंसान जो जियो और जीने दो में यकीं रखता है।

दूसरी बात महसूस होती है कि क्या इस समाज में सिर्फ ऐसे ही लोग हैं। जो साथ रहना पसंद करते हैं। ऐसे हिन्दू और मुस्लिम नहीं हैं जो एक दूसरे से बेपनाह मोहब्बत करते हैं। वे खुश हैं साथ रहकर क्यूंकि वो जानते हैं कि वो महज इंसान हैं। हम ऐसे लोगों को अपनी पोस्ट में जगह क्यूँ नहीं देते। उन्हें ख़बरों में क्यूँ नहीं शामिल करते, इसलिए क्यूंकि वे सनसनीखेज नहीं है। या इसलिए कि वो प्यार और अमन के रहनुमा हैं। कुछ लोग उन्हें बार बार ये बताने लगते हैं कि भाई देखो, तुम वही मुस्लिम हो जिन्हें हिन्दुओं ने गुजरात में बेदर्दी से मारा था। तुम वही हिन्दू हो जिसे ट्रेन में मुस्लिमों ने जिन्दा जला दिया था।

वाह रे आज के ओपिनियन लीडर्स। क्या बेहतरीन काम कर रहे हैं आप सब। नहीं जनता मैं, कि ऐसा करके आप सबको कैसी संतुष्टि मिलती है पर निश्चित ही ये सोच विध्वंसकारी है। बेहतर होगा कि इससे नाता तोड़ लें। समाज की ख़ुशी के लिए ही सही। वादा है, आप को भी उतनी ही ख़ुशी होगी।

ये ज्ञान लगता है पर सच है कि वक़्त के साथ आगे बढ़ना चाहिए। अगर ऐसी बातें आएदिन दोहराई जाएंगी तो फिर आग भड़केगी। फिर दंगे होंगे और होते रहेंगे। कभी तो हमें दिल से कौमी एकता की बात करनी होगी।

Friday, February 19, 2010

'लव' आज कल...


कभी घर, ऑफिस या कॉलेज में बैठे हुए ये महसूस हुआ कि आपके आस पास कोई नहीं है, सिर्फ वो है जो आपके सपनों में आता\आती है? वो जिसे आप पसंद करते हैं। कभी अकेले चलते चलते उससे बात की है? कभी किताबों में उसकी तस्वीर खुदबखुद उभरी है ? कभी दूसरों के चेहरे में उसका चेहरा नजर आया है? उसकी नामौजूदगी में कभी उसके साथ होने का अहसाह हुआ क्या? एकेले होते हुए भी कभी उसके साथ एक लम्बी वॉक पर निकले क्या? सच कहूँ तो मेरे साथ कभी ऐसा नहीं हुआ? जब उसके बारे में सोचा, तभी वो चेहरा नजर आया। अक्सर लोग कहते हैं कि अगर ऐसा हुआ है तो आप सचमुच प्यार करते हैं, वो भी कहती, लेकिन मैं प्यार तो करता हूँ, था और शायद करता रहूँगा। वो नहीं तो क्या हुआ, वो एहसास नहीं जाएगा जिसे वो प्यार कहती।

प्यार। कितना खास, कितना अजीज़, कितना... कितना अजीब है न। इतने सारे ख्याल। कैसे बांधूंगा इन्हें, समझ नहीं आ रहा। अभी से ही छूटने लगे हैं। अपने मन मुताबिक भाग रहे हैं। दिमाग से दिल तक दौड़ लगा रहे हैं। दिल का ख्याल दिमाग पर जाकर पकड़ में आता है तो वहां उसके मायने बदल चुके होते हैं। जो दिमाग से निकलकर दिल पर ठहरता है, वो भी कुछ और कहने लगता है। अब देखिये प्यार के तथाकथित पर्व के दिन ही उन तमाम भावनाओं को यहाँ सहेजने का मन बनाया था। मन और दिमाग में कहासुनी होती रही और हम आज जाकर यहाँ रुक सके। मन था कि एक बहुत ही सामान्य से असामान्य सवाल को कुरेदेंगे। एकदम बेसिक। आखिर प्यार क्या है? जो मैं करता हूँ? वो प्यार है? वो टीवी वाला, वो अख़बार वाला, वो रेडियो वाला प्यार है तो मेरा प्यार क्या है? ये फर्क कैसा और क्यों है? उसके लिए एक पल बहुत ही आक्रामक होने वाली भावना भी क्या प्यार है? एक पल बहुत नाजुक सी महसूस होने वाली वो भावना की महीन डोर भी प्यार की है? प्यार एक सा क्यूँ नहीं है? जानवर के लिए अलग प्यार की परिभाषा, माँ और पिता जी के लिए अलग, दादा-दादी के लिए अलग, भाई-बहन के लिए अलग, दोस्त के लिए अलग। आखिर क्यूँ?

जानता हूँ बेहद बेतुका और दार्शनिक सा सवाल है। लेकिन, क्या करें? सवाल उठता है तो कैसे दबा दें। दर्द तो अपने सीने में हो होगा न। ये भी जानता हूँ इस प्यार का कोई सिरा नहीं है। जहाँ से शुरू किया था वापस वहीँ लौट के जाऊंगा या फिर बीच राह में ही रुककर शोक मनाऊंगा। लेकिन कब तक। समय सबसे बड़ा मरहम है जैसी बातें सुनाई जाएंगी। एक पल को मान जाऊंगा और फिर कुछ दिन उस प्यार की कमी महसूस करूँगा।

ये प्यार शब्द आखिर है क्यूँ? मैं इस खांचे में अपनी भावनाओं को नहीं फिट कर पाया। न कर पाउँगा। लगता है, कि ये उस भावना, उस अहसास को बांध देता है। एक मानक बना देता है। ये प्यार है, वो नहीं है। आखिर ये शब्द कौन होता है ये बताने वाला कि क्या प्यार है क्या नहीं।
कुछ तोहफे, कुछ स्पर्श, कुछ सांसें, कुछ बातें... यही है 'लव' आज कल?

(कृपया सहानुभूति मत जाताइएगा।)

Sunday, February 14, 2010

कुछ सवालों के जवाब...


मीडिया को गाली देना एक फैशन भी बनता जा रहा है। लोग अपने पेशों मे क्या कर रहें हैं ? डाक्टर, वकील, नेता, जज क्या कर रहे हैं ?

बीते दिनों मेरी एक पोस्ट के सन्दर्भ में रंगनाथ जी ने ये सवाल किया था. वादे के मुताबिक मैं आज उस सवाल का जवाब देने की कोशिश कर रहा हूँ. हालाँकि उनके सवाल में बहुत बातें हैं जिन्हें सिर्फ शब्दों में बांधने से काम नहीं चलेगा. मैं कोई ज्ञान नहीं दूंगा. जो मैंने देखा, समझा है, उसे ही जवाब में तब्दील करूँगा.

पहला सवाल या आरोप था कि मीडिया को गाली देना फैशन बनता जा रहा है.
मुझे लगता है, जिससे उम्मीद होती है उसकी समालोचना जरुरी है. रविश जी ने बीते दिनों अमिताभ को धोया. आम आदमी किसी न किसी को धोता रहता है. नुक्कड़ कि दुकानों पर होने वाली बतकही में उम्मीद नजर आती है. गाँधी, नेहरु, किसे नहीं गाली दी गईं. जहाँ तक मुझे पता है, सबको. और सभी ने देश को नई दिशा दी. मीडिया से भी काफी उम्मीदें हैं. उनकी तारीफ करते रहेंगे तो बाज़ार कुछ ज्यादा ही हावी हो जाएगा ख़बरों पर. आज ही काफी खबरें न्यूज़ रूम में सिसकियाँ भरती हैं. कल न जाने क्या होगा. लोग अपने हिसाब से काम कर रहे हैं. एक लाइन नहीं बन रही कि समाज के लिए क्या सही और क्या गलत है. मीडिया का काम ओपिनियन लीडर का होता है. ये गलत ओपिनियन न बनाये, इसका ध्यान रखना हमारा काम है. ये भी हमारा दायित्व है.

दूसरा सवाल था कि लोग अपने पेशे में क्या कर रहे हैं?
अक्सर यही सवाल मेरे मन में उठता है. लेकिन इसके साथ ये भी सवाल आता है कि मैं क्या कर रहा हूँ. मैंने क्या किया है? मेरे पास कुछ जवाब मिलते हैं. क्या रंगनाथ जी भी यही सोचते हैं और खुद कुछ जवाब पाते हैं. सवाल समाज के लिए, किसी व्यक्ति विशेष के लिए या देश के लिए कुछ करने का है. व्यक्तिगत तौर पर ही सुधार सबसे कठिन और सबसे बड़ा बदलाव साबित हो सकता है. सबको अपने में सुधार लाना है. भ्रष्टाचार के लिए जितने हम जिम्मेदार हैं, उतना कोई नहीं. हम कुत्ते को ब्रेड खिलाना बंद कर दें तो वो खुद ही दरवाजे पर आना बंद कर देगा. ऐसे ही हालत हर आयाम में हैं. हमें ये सुनिश्चित करना है कि आखिर हम चाहते क्या हैं? आज का छोटा फायदा या सुनहरा भविष्य. आज के छोटे से फायदे के लिए हम देश, समाज और विकास को दरकिनार कर दे रहे हैं, बेच रहे हैं, लेकिन ये नहीं सोच रहे कि हमारी अगली पीढ़ी को भी इसी समाज में जीना होगा. हम अनजाने में, दुलार में या लालच में अपनी अगली पीढ़ी के लिए गड्ढा खोद रहे हैं. इस दौरान कुछ लोग अच्छा कर रहे हैं लेकिन वो सामने नहीं आ रहे, क्यूंकि उन्हें सिर्फ काम से मतलब है. उन्हें काफी काम करना है. लेकिन उन्हें मीडिया की जरुरत नहीं. ज्यादातर लोग जो मीडिया पर दिखते हैं, सबका अपना स्वार्थ है. किसी की संस्था है तो किसी का प्रोडक्ट. अखबारों या टीवी पर जब हम उन्हें प्रकाशित या प्रसारित करते हैं, जो अक्सर पीपी शब्द का इस्तेमाल करते हैं.

तीसरा सवाल था डॉक्टर, वकील, नेता और जज क्या कर रहे हैं?
वैसे वो अपने लिए काफी कुछ कर रहे हैं पर बात तो सही है कि वो समाज के लिए क्या कर रहे हैं. देखा जाये तो सभी किसी न किसी तरह से समाज कि थोड़ी मदद कर रहे हैं. खासकर डॉक्टरों की जमात. मैंने कई डॉक्टरों को देखा है जो गरीब मरीजों का इलाज मुफ्त में कर देते हैं. बाकि वकील और जज के सवाल में दूसे सवाल का जवाब काफी है. और लिखने से बोरियत हो रही है.

मुद्दे की बात महज़ इतनी सी है कि कम से हम आप तो सही काम कर सकते हैं. कुछ लोग फोटो खीचकर ब्लॉग पर चिपका रहे हैं. इससे समाज का क्या भला होगा. अरे इतना वक़्त कुछ गरीब बच्चों को पढ़ा दिया करें तो क्या बुरा है. थोडा पैसा बचाकर स्लम एरिया में एक अदद स्कूल खोल दें तो क्या बुरा है. कुछ नहीं तो फोटो खीचना ही सिखा दें तो क्या बुरा है. हम आप किताबों में घुसे हुए हैं. नेताओं को कुर्सी चाहिए, शिक्षकों को प्रमोशन चाहिए. हमें भी पैसा चाहिए, किसी को शोहरत चाहिए तो किसी को मौका. किसी को हँसता हुआ देश नहीं चाहिए. कुछ लोग किताब लिखने में बिजी हैं. कुछ सिर्फ आलोचना करने में तो कुछ बातें बनाने में. मानता हूँ कि भूखे पेट कुछ नहीं होता, परिवार और कई जिम्मेदारियां हैं लेकिन अगर गाँधी, भगत, आजाद, सुभाष जैसे लोगों ने ये सोचा होता तो आज भी हम विदेशी सल्तनत के गुलाम होते.

मुझ जैसे मूर्ख समझने और समझाने में लगे हैं लेकिन वादा रहा कुछ तो हम भी करेंगे. लोगों से भी यही उम्मीद है. उसके बीच समालोचना भी करते रहेंगे.

Sunday, February 7, 2010

राहुल से राहुल गाँधी और फिर राजकुमार से लेकर रोम पुत्र तक...




राहुल गाँधी, यह वो नाम है जिसे सुनकर लड़कियों की बांछें खिल जाती हैं. एक अजीब सी उर्जा महसूस होती है वह इसलिए क्यूंकि हम महसूस करना चाहते हैं. मीडिया वालों की टीम तैयार होकर पीछे लग जाती है, और विपक्षी दलों की भृकुटी तन जाती है. बड़ा ग्लैमर है जनाब का. काफी लम्बे समय से उन्हें देख रहा हूँ. कभी टीवी स्क्रीन पर तो कभी अखबार और मगज़ीन के पन्नों पर. यूपीए की वापसी के शुरूआती दौर में सारे मीडिया में बड़ी हलचल थी. उनका इटली कनेक्ट, उसकी लाइफस्टाइल, उसकी गर्लफ्रेंड सबकी चर्चा थी. राजीव गाँधी का सुपुत्र होने का सारा लाभ मिल रहा था. तब किसी ने उन्हें राजकुमार का दर्जा नहीं दिया था. सुनने में आता था कि अभी वो बच्चा है, उसे राजनीति की समझ नहीं है. वाकई जो बातें कही जा रही थीं वो सच थीं.

फिर तख्तापलट हुआ. राहुल पहले तो राहुल गाँधी हुआ फिर राजकुमार कब बन गया, पता नहीं चला. फिर तगड़ी सियासत शुरू हुई. जिन दिमागों में बीते कुछ सालों में जंग लग चुकी थी, सत्ता के मोबिल ऑयल पड़ने पर दौड़ने लगे. राजकुमार, वाकई राजकुमारों से काम करने लगे. उनकी सोच, उनकी बोली, उनकी हरकतें, उनका अंदाज़ सब राजकुमारों सा हो गया. फिर एक दिन उन्होनें संसद में कलावती की बात की. वो कलावती जो विदर्भ के एक गाँव की रहने वाली थी. वो कलावती जो दलित थी. फिर क्या था, राहुल गाँधी, राजकुमार के साथ हीरो भी बन गए. ये वो दौर था जब लोगों ने ये भी कयास लगानी शुरू कर दी कि अगले प्रधानमंत्री तो राजकुमार राहुल ही होंगे. विजय अभियान जारी रहा.

फिर देशाटन शुरू हुआ. राज्यों के ऐसे जिलों और गाँव को चुना गया जहाँ दलित आबादी ज्यादा है. राहुल एक रात कहीं खाना खाते और अगली सुबह अख़बारों में छा जाते. ये आलम जारी रहा. यूपी के चुनाव में उनका दम नजर आया. एक बदलाव के रूप में राहुल को देखा जाने लगा. उनसे सबको बहुत उम्मीदें हो गईं. कैमरा उनसे चिपक गया. गनीमत थी कि उनके घर में कैमरे के घुसने पर मनाही थी. कभी कभी लगा कि ये प्रायोजित पॉपुलैरिटी है. पर कभी कभी लगा लड़का जेनुइन है. वाकई कुछ तो बात है. फिर काफी कुछ हुआ, जो उन्हें लोकप्रिय बनाता गया.

एक दिन उन्होंने कुछ कहा, शिव सेना ने धमकी दी कि मुंबई आये तो खैर नहीं. छोटे ठाकरे ने हुंकार भरी, रोम पुत्र कह डाला. लोगों ने ये पड़ताल नहीं की कि ये रोम पुत्र कहा क्यूँ गया. खैर, सबका ध्यान बयानबाज़ी पर था. राहुल गाँधी ने मुंबई के लिए उड़ान भरी, वो वहां पहुंचे ही थे कि सोशल नेटवर्किंग पर सवाल गिरने लगे. तारीफ होने लगी. ब्लॉग पर भी कसीदे पढ़े जाने लगे. फिर शुरू हुई राजनीति. काफी साल बाद ऐसी मंझी हुई प्लानिंग देखने को मिली, जो या तो एक्सपोज नहीं हुई या प्रायोजित तरीके से एक्सपोज नहीं की गई. राहुल ने जमकर ड्रामा किया. कभी चॉपर की फुलझड़ी तो अचानक एटीएम में घुसकर अचम्भित किया. और फिर लोकल की सवारी. दूसरी तरफ मुख्यमंत्री धूप में एक छोटी सी गली में खड़े उनका इंतजार करते रहे. ये तो छुपी छुपान लगने लगा. ठीक वैसा ही जैसे हम बचपन में किया करते थे. और खबर आने लगी शिव सेना हार गई. मुझे लगता है कि शिव सेना और मनसे ने अच्छा साथ निभाया. क्या शानदार खेल था. इस दौरान एक मंत्री ने राजकुमार या रोम पुत्र का जूता उठा लिया तो मामला और भी रंगीन हो गया.

सब गजब था, सबने तारीफों के पुल बांध दिए. न्यूज़ कि जगह वियूज ने ले ली. किसी ने राहुल को इब्न बतूता बना दिया तो किसी ने हीरो. किसी ने भारत मां का असली बेटा. खूब तारीफ हुई. लेकिन क्या हम इतने नादान थे कि सच्चाई नजर नहीं आई? मैं मानने को तैयार नहीं.

ये कहानी सबको पता है पर इसे क्रमवार देखा जाये तो पता चलता है कि किस तरह एक सामान्य से लड़के को हीरो बना दिया गया, राजकुमार बना दिया गया. उसे मनमोहन सिंह जैसे व्यक्तित्व का विकल्प मान लिया गया. कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि और कौन है इस देश में जो युवा शक्ति की बात करता है. कौन एक नई सोच की बात करता है? पर जरा सोचिये, क्या वो सोच राहुल की अपनी है. ये युवा शब्द महज़ एक शगूफा है और कुछ नहीं. सब इसका अपनी अपनी तरह से फायदा उठा रहे हैं.

कुछ भी हो, राहुल अच्छे हैं, वो काफी कुछ कर सकते हैं लेकिन अभी से ही यह कहना कि वह प्रधानमंत्री बनने के काबिल हैं, जल्दबाजी है. उन्हें थोड़ा वक़्त दिया जाना चाहिए. अगर सोच और नजरिये की बात है तो प्रियंका गाँधी उनसे कहीं ज्यादा संतुलित, समझदार और प्रभावी लगती हैं. मैंने दोनों को टीवी पर ही देखा सुना है. उसी आधार पर यह बात कह रहा हूँ. सच कहा जाये तो राहुल को हम पकने नहीं दे रहे हैं. हम उन्हें चने के झाड़ पर चढ़ा तो दे रहे हैं लेकिन वो बहुत ही खतरनाक है. बाद में पछताना न पड़े, इसका ख्याल अभी करना जरूरी है.

Friday, February 5, 2010

सोशल नेटवर्किंग का तमाशा (पार्ट 2)



सोशल नेटवर्किंग से लगाव बढ़ रहा है. कितना वक़्त इसकी सोहबत में गुजर जाता है, पता ही नहीं चलता. दरअसल मेरे मतलब का काफी मिल जाता है यहाँ. बिना किताब पलटे काफी कुछ सीखने को मिल जाता है. कई अच्छे बुरे लोगों से बात भी होती है. कुछ नए लोगों से बात होती है वो अक्सर इल्जाम लगाते हैं कि मीडिया में काफी अधूरापन है. खबरें अधूरी, मुहिम भी अधूरी, ज्ञान अधूरा आदि आदि. सिपहसलार कहते हैं हम चौबीस घंटे में क्या क्या और किसे किसे दिखाएं. एक ने पूछा कि क्या आप पत्रकार बनाकर खुश हैं. मैंने कहा हाँ. अगर खुश न होता तो छोड़ सकता था. उसने कहा मुझे आप लोग अच्छे नहीं लगते. मैंने वजह पूछी तो जवाब में फिर वही इल्जाम था. मैंने कुछ जवाब देने से पहले सोचना मुनासिब समझा. मैंने कहा इसका जवाब हम बाद में देंगे.


फिर बीते दिनों हुए कई वाकयों को याद किया. कौन सा मामला कितने दिनों तक चला, किसे मुहिम बनाया गया, और किसे इन्साफ दिलाया गया. पहले दो सवालों के तो ढेर सरे जवाब मिले लेकिन तीसरे सवाल के जवाब न के बराबर थे. राहुल राज, महाराष्ट्र में पेपर देने गए यूपी और बिहार के छात्र, रुचिका, आरुषी, आसिया जान, निलोफर जान और न जाने ऐसा कितने हैं जिन्हें इन्साफ नहीं मिला. हमने उनका हाथ थामा, टीआरपी में उछाल लगाई, उनके शुभचिंतक बने, अपनी पीठ भी थपथपाई, और उन्हें राह में अकेला छोड़कर आगे निकल गए.


कोई अमिताभ और मोदी कि तरफ भागा तो कोई शाहरुख़ और राहुल गाँधी के पीछे लग लिया. एक्सक्लूसिव की तलाश में. कुछ लोग अमर कथा में लीन हो गए. इस बीच रुचिका, आरुषी, राहुल राज, निलोफर और आसिया नयी ख़बरों के भार के नीचे दब गए. महंगाई से किसी को कोई लेना देना नहीं, सरकार को घेरना पुराना ट्रेंड हो चला है. नया नजरिया बनाया जा रहा है. आम आदमी से जिस बात का सरोकार है, उससे किसी को मतलब नहीं. वो आम आदमी जो सबसे ज्यादा अखबार पढता है और वही टीआरपी बढाता है.


ऐसा ही हाल सोशल नेटवर्किंग में नजर आ रहा है. किसी ने शेर मारा, तो वाह वाह. किसी ने चुटकी काटी तो आह आह. शाहरुख़ और बच्चन पर बहस शुरू हुई तो ख़त्म होने का नाम नहीं लेती. ठाकरे फिर सुर्ख़ियों में हैं. सब कहते हैं कि उनसे कैसे निपटें, जवाब कोई देना नहीं चाहता. जवाब आता भी है तो ऐसा जिसे कोई न समझ पाए कि भाई करना क्या है. फिर कोई नया विषय. कोई छींकता है है तो लोग जुट जाते हैं दवा बताने में. कोई ये पूछता है कि क्या लिखें. मजे कि बात यह है कि मूर्खों की एक बड़ी सेना बताने में व्यस्त हो जाती है कि क्या लिखिए. इसमें एक और मजे की बात है. कुछ लोग तो विषय भूलकर आपस में ही लड़ने मरने लागते हैं. जिसके घर में ये युद्ध चलता है वो भी खुश रहता है कि हमारी तो टीआरपी बढ़ रही है. वो उसमें और घी डाल देता है. उन मूर्खों में कभी कभी हम भी शामिल हो जाते हैं. हाहा.

सब जूझ रहे हैं. सबका पेट भरा है. उसमें आग नहीं लगी है एक गरीब की तरह. तभी तो नेट पर बैठे चटिया रहे हैं. किसी को इन्साफ मिले न मिले, कोई जिए मरे. हमारी दुकान चलती रहे, ज्यादातर लोगों का यही अनकहा नारा है.
शायद ये उस बात का जवाब है जो मुझसे किसी ने पूछा था.

(मैं कोई आलोचक नहीं, सारी चीज़ें देखता हूँ और फिर कुछ जवाब खोजता हूँ. मिलते हैं तो ठीक नहीं तो उन एहसासों को यहाँ ऐसे सहेज देता हूँ.)

Monday, February 1, 2010

दो सुसाइड, वायरस और कई सवाल...



कल खबर आई कि एक मेडिकल के छात्र ने जहर खाकर अपनी जान दे दीरात एडिशन छोड़ने का टाइम आया तो एक और खबर आई कि १३ साल की लड़की ने फांसी लगा लीदोनों ने अलग अलग वजहों से सुसाइड कियाएक के ऊपर पढाई का प्रेशर था तो दूसरी ने सिर्फ इसलिए जान दे दी कि उसके पापा मम्मी उसके दोनों छोटे भाइयों के साथ शॉपिंग करने गए और उसे घर पर अकेला छोड़ गएलड़के के पापा ने कहा कि मेरे बेटे के साथ जातिगत भेदभाव किया जा रहा थाइसीलिए उसे लगातार चार बार से एक ही सब्जेक्ट में फेल किया जा रहा था। सच्चाई कुछ भी रही हो पर लड़के ने जो कुछ अपने मोबाइल में लिखा उसमें उसका दर्द साफ़ झलक रहा था. वो थक चुका था. सुशील नाम के इस लड़के ने कई सवाल दिए हैं, जिनका हमें जवाब खोजना है. क्या मार्क्स की रेस से वाकई बच्चे थक चुके हैं? क्या ग्रेड सिस्टम समस्या का समाधान बन सकेगा? बच्चे इतने कमजोर क्यूँ हो रहे हैं? वो अपने मां बाप के बारे में क्यूँ नहीं सोचते? या एजुकेशन में ३ इडियट्स के वायरस समाज में इन होनहार युवाओं को घुटने टेकने पर मजबूर कर रहे हैं? हम आमिर खान की फिल्म को सिर्फ फिल्म समझेंगे तो शायद इसका जवाब न मिले लेकिन काफी हद तक समाधान आमिर ने ही दे दिए हैं. क्या हम उनको एक्सेप्ट करने के लिए तैयार हैं? या किसी और सुशील को हार माननी पड़ेगी?
दूसरी तरफ लड़की के पापा ने कहा कि सारी गलती मीडिया की है. मीडिया इतनी खबरें दिखाती है कि बच्ची ने रविवार कि सुबह ही उनसे पूछा था कि सुसाइड कैसे करते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि उसने सुसाइड इसलिए नहीं किया क्यूंकि वो उसे साथ नहीं ले गए. खैर, जो भी हो सवाल ये उठता है कि क्या मीडिया को अपने कंटेंट पर दुबारा सोचने कि जरुरत है. क्या वाकई लोगों पर इन ख़बरों का एडवर्स प्रभाव पड़ रहा है? क्या हमें डिबेट करनी चाहिए? क्या सुसाइड कि खबरें न छापने या न दिखने से बच्चे सुसाइड करना बंद कर देंगे? आखिर इसका इलाज क्या है?
देखा जाये तो ये दोनों कोई सामान्य सी घटना लगती हैं. १ अरब की आबादी में दो लोगों ने सुसाइड कर लिया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा. ध्यान से देखा जाये तो ये बड़ी गंभीर समस्या है. सुसाइड करना इतना आसन नहीं है जितना पढने या सुनने में लगता है. क्या कैफियत रही होगी उन बच्चों की जो ये कदम उठाने के लिए मजबूर हो रहे हैं. उनकी हालत के बारे में सोचता हूँ तो बहुत भावुक हो जाता हूँ. गुस्सा भी आता है कि वो अपने पीछे मां बाप को रोने के लिए छोड़ गए. जरा सा संघर्ष नहीं कर सके. पर इतने से ही बात ख़त्म हो जाती तो इतना लम्बा चौड़ा न लिखता. अजीब सी छटपटाहट हो रही है. इन्हें ऐसा करने से रोकना होगा. कैसे भी...प्लीज.
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