फिर वही...याद कीजिए इससे कितने गाने शुरू होते हैं...
चलिए जितने मुझे याद आ रहे हैं, मैं उनका जिक्र कर देता हूँ॥
दिल ढूँढता है फिर 'वही'...
'फिर वही' रात है, रात है ख्वाब की...
'फिर वही' तलाश...
'फिर वही' दिल लाया हूँ...
आने वाली है 'फिर वही' ख़ुशी सीने में... और
ऐसे न जाने कितने गाने लिखे गए हैं। हर गाने के अलग बोल, अलग एहसास और अलग जज़्बात हैं। मैं भी कल जाने क्यूँ 'फिर वही' बार बार बोले जा रहा था। अचानक ये गाने जुबान पर आ गए, फिर कुछ याद आया 'फिर वही' होली आने वाली है। अरे 'फिर वही' बजट भी तो आया। फिर वही फरवरी खत्म हो रही है। फिर वही मार्च आ रहा है। फिर वही पतझड़ आएगी और फिर वही तेज धूप झुलसाने की कोशिश करेगी। फिर वही रास्ते होंगे, फिर वही कशमकश होगी और फिर वही बिखरी सी खुशियाँ होंगी...फिर वही...
फिर वही रास्ते...फिर वही रहगुज़र...जाने हो या न हो मेरा घर वो नगर,
ये कहानी नहीं जो सुना दूंगा मैं, जिंदगानी नहीं जो गंवां दूंगा मैं...
आप सोच रहे होंगे कि फिर वही गाने का जिक्र क्यूँ? तो मैं बताता चलूँ कि दो दिन पहले 'फिर वही' पर कुछ लिखने का मन किया रामचंद पाकिस्तानी फिल्म के इस गाने को सुनने के बाद। गाना सुनने के बाद मैं सोचने लगा कि वाकई नया क्या है? सब कुछ तो 'फिर वही' है। पॉजिटिव नजरिये से देखें तो सब कुछ नया ही तो है, लेकिन सच्चाई पर गौर फरमाएं तो नया कुछ भी नहीं है...बजट आया है, कुछ दिन तक इसको लेकर खूब चर्चा होगी। किसान का भला सोचा जाएगा। फिर वही पत्रकार, वही नेता अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाएँगे। होली आएगी, फिर वही अंदाज़ होगा रंग खेलने का...रंग भी फिर वही होंगे...फिर वैसी ही कवरेज होगी. कोई किसी को कुछ नहीं देगा...किसी से कुछ लेगा भी नहीं।
लेकिन ऐसा क्या है कि फिर वही हमेशा एक सा बना हुआ है, इसमें बदलाव नहीं हो सकते क्या? क्या कोई तरीका है जिससे ये 'फिर वही' नया सा लगने लगे? क्या कुछ कर सकते हैं हम? उन इंसानों के बारे में कुछ सोच सकते हैं क्या जो देश के विभाजन की सजा भुगत रहे हैं? उन तमाम रामचंद की सुध ले सकते हैं क्या? कुछ ऐसा जिसमें फिर वही न हो...कुछ भी हो, पर फिर वही न हो...
चलिए जितने मुझे याद आ रहे हैं, मैं उनका जिक्र कर देता हूँ॥
दिल ढूँढता है फिर 'वही'...
'फिर वही' रात है, रात है ख्वाब की...
'फिर वही' तलाश...
'फिर वही' दिल लाया हूँ...
आने वाली है 'फिर वही' ख़ुशी सीने में... और
ऐसे न जाने कितने गाने लिखे गए हैं। हर गाने के अलग बोल, अलग एहसास और अलग जज़्बात हैं। मैं भी कल जाने क्यूँ 'फिर वही' बार बार बोले जा रहा था। अचानक ये गाने जुबान पर आ गए, फिर कुछ याद आया 'फिर वही' होली आने वाली है। अरे 'फिर वही' बजट भी तो आया। फिर वही फरवरी खत्म हो रही है। फिर वही मार्च आ रहा है। फिर वही पतझड़ आएगी और फिर वही तेज धूप झुलसाने की कोशिश करेगी। फिर वही रास्ते होंगे, फिर वही कशमकश होगी और फिर वही बिखरी सी खुशियाँ होंगी...फिर वही...
फिर वही रास्ते...फिर वही रहगुज़र...जाने हो या न हो मेरा घर वो नगर,
ये कहानी नहीं जो सुना दूंगा मैं, जिंदगानी नहीं जो गंवां दूंगा मैं...
आप सोच रहे होंगे कि फिर वही गाने का जिक्र क्यूँ? तो मैं बताता चलूँ कि दो दिन पहले 'फिर वही' पर कुछ लिखने का मन किया रामचंद पाकिस्तानी फिल्म के इस गाने को सुनने के बाद। गाना सुनने के बाद मैं सोचने लगा कि वाकई नया क्या है? सब कुछ तो 'फिर वही' है। पॉजिटिव नजरिये से देखें तो सब कुछ नया ही तो है, लेकिन सच्चाई पर गौर फरमाएं तो नया कुछ भी नहीं है...बजट आया है, कुछ दिन तक इसको लेकर खूब चर्चा होगी। किसान का भला सोचा जाएगा। फिर वही पत्रकार, वही नेता अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाएँगे। होली आएगी, फिर वही अंदाज़ होगा रंग खेलने का...रंग भी फिर वही होंगे...फिर वैसी ही कवरेज होगी. कोई किसी को कुछ नहीं देगा...किसी से कुछ लेगा भी नहीं।
लेकिन ऐसा क्या है कि फिर वही हमेशा एक सा बना हुआ है, इसमें बदलाव नहीं हो सकते क्या? क्या कोई तरीका है जिससे ये 'फिर वही' नया सा लगने लगे? क्या कुछ कर सकते हैं हम? उन इंसानों के बारे में कुछ सोच सकते हैं क्या जो देश के विभाजन की सजा भुगत रहे हैं? उन तमाम रामचंद की सुध ले सकते हैं क्या? कुछ ऐसा जिसमें फिर वही न हो...कुछ भी हो, पर फिर वही न हो...