Thursday, January 28, 2010

छोटा मुंह बड़ी बात...(सोशल नेटवर्किंग का तमाशा पार्ट १)

बड़ा मुंह बड़ा काम का होता है। जरा सी आवाज़ आ जाये तो दुनिया पलक पांवड़े बिछा देती है। छोटे से मुंह की क्या बिसात। वैसे भी आजकल लोग उगे हुए सूरज को ही सलाम ठोकते हैं। बेशर्म...
ये कहना पता नहीं सही है या नहीं पर मन में आया है तो रुकुंगा नहीं। दरअसल एक सोशल नेटवर्किंग साईट पर एक उगे हुए सूरज ने कुछ फ़रमाया। इत्तेफाक से ठीक वही बात एक छोटे से तारे ने कुछ दिन पहले फरमाई थी। तारे की उस बात पर चुनिन्दा लोगों ने गौर फ़रमाया। खैर वो बात आई और गई। आज ठीक उसी बात पर जब सैकड़ों लोगों को ज्ञान बघारते देखा तो लगा की ये दुनिया नहीं सुधरने वाली। जो लोग चापलूसी को घटिया बताया करते हैं, वही जीभ लटकाए लपर चपर कर रहे थे। सच कहूँ तो लगातार मन में अजीब सी टीस हो रही है। ऐसा नहीं है कि उस छोटे से तारे के दोस्तों में वही ज्ञान बघारने वाले लोग नहीं थे। ज्यादातर नहीं तो कुछ तो वही थे। सवाल उठता है कि इसमें नया क्या है। तो मैं कोई प्रोडक्ट नहीं बेच रहा कि नया और पुराना देखूं। न ही ये कोई खबर है कि मैं डेस्क पर बैठकर इसका कोई नया एंगल बताऊँ। ऐसा होते हुए देखा है, पहले लगता था कि शायद लोग जानते न हों। फिर मन में आया कि हो सकता है उनकी शान के खिलाफ हो तारों को प्रोत्साहित करना। अब लगता है कि ये तो फितरत है लोगों की। ज्यादातर लोग कहीं ज्ञान देते हैं और पलट कर किसी न किसी की शान में कसीदे पढ़ने लगते हैं। हम खुद को ही नहीं सुधर पा रहे हैं, दुनिया क्या ख़ाक सुधारेंगे। लपर चपर और बातों की बाजीगरी करके जो खुद को युग प्रवर्तक समझते हैं तो वे शर्म करें। ऐसे नहीं आएगा बदलाव। शुरुआत 'मैं' से करनी पड़ेगी। पड़ेगी क्या करनी है। कौन क्या दे देगा, किसे क्या कहने से क्या फायदा होगा, सोचेंगे तो गर्त में जायेंगे। न यकीन हो तो देखिये फेसबुक, ट्वीटर और ऐसी ही साइट्स। ऐसा नहीं है की कुछ चुनिन्दा लोगों से अच्छे विचार किसी के नहीं है। फर्क उगे हुए और उग रहे का है। सूरज और तारे का है। बड़े और छोटे का है और युवा और अनुभव वाले का है। इस तरह की बातों पर अक्सर सुनता हूँ कि, अभी पैदा हुए हैं और चाहत है उड़ने की। ऐसी बातें जब तक होती रहेंगी, बदलाव नहीं होगा। ज्ञान बघारने से कुछ नहीं होगा। ब्लॉग्स पर कमेन्ट गिरते रहेंगे और साइबर कचरा जमा होता रहेगा। वहां भी टीआरपी देख कर खुश हो लेंगे लोग। कुछ लोगों को कोई अवार्ड मिल जाएगा. हो सकता है किसी पद्म अवार्ड भी मिल जाये. आज कल तो ये भी बतकही में बिक रहा है....और देश वहीँ का वहीँ रह जाएगा।
फिर भी मुझे उन तारों से उम्मीद है कि वो हताश नहीं होंगे, जगमगाते रहेंगे। एक दिन वो भी मुकाम पाएंगे और कुछ लोग उनके भी आस पास मंडराएंगे। लेकिन वो कभी वैसे नहीं बनेंगे।
आमीन।
(भूल चूक माफ़। मैं किसी कि भावनाओं को आहात नहीं करना चाहता। ये मेरी सोच और मेरा ही ऑब्जरवेशन है।)

Tuesday, January 26, 2010

बताओ कौन है वो...

जब मैंने होश संभाला तो परिवार वालों के साथ कोई और भी था. वो मुझे बेहद नापसंद था. मुझे बहुत ख़राब लगता था जब वो जबरदस्ती हमारी अलमारी में, पूजा घर में, कमरे में जबरदस्ती घुस जाता था. मुझसे भी उसने दोस्ती करनी चाही. हर जगह मेरे साथ साथ चला आता था. स्कूल में गया तब भी और फिर कॉलेज में तब भी. पापा को तो जमकर परेशां करता. ये मुझसे बर्दाश्त नहीं होता. वक़्त बीतता रहा और मेरी नफरत बढती गयी. मैं उससे मिन्नतें करता, गली देता, समझाता, फुसलाता और कई लोगों की दुहाई देता. पर वो नहीं मानता. रात होते ही मेरी तकिया के नीचे छिप जाता. फिर दोस्ती और दुश्मनी की समझ हुई. मैंने एक नई दोस्त बना ली. सोचा अब तो ये खुदबखुद चला जायेगा. मैंने अपने भाइयों से भी कहा की इसकी तरफ ध्यान मत देना. पापा और मम्मी से भी कह दिया. सबने वैसा ही क्या. फिर भी वो जाना नहीं चाहता. कहता है तुम्हारे साथ ही रहना है. मैं कहता हूँ दुनिया में और भी लोग हैं. कुछ बुरे भी होंगे, जाकर उन्हें दोस्त बना. आखिर मुझमें ऐसा क्या है. कुछ भी तो नहीं है मेरे पास जो मैं तुम्हे दे पाउँगा...फिर भी वो नहीं जा रहा. अब तो मेरी नै दोस्त भी मुझसे कतराती है. इसकी वजह से वो भी मेरे पास नहीं आती है. खुद ही उससे बात करता हूँ. हर वक़्त, हर घडी, फिर भी वो पता नहीं क्यों डरती है. उसकी तपिश कभी कभी बर्दाश्त से बहार हो जाती है, उसी में जल रहा हूँ. जब बहुत परेशां होता हूँ तो मेरी नई दोस्त थोड़ी वर्षा करती है. मैं भीग जाता हूँ, कुछ देर के लिए खूब मुस्कुराता हूँ, लेकिन वो फिर आंसू बनकर आँखों से उतर आता है. अब तो मेरा रिश्ता सा हो गया है उससे. बताओ कौन है वो...

सिर्फ लड्डू खाने से काम नहीं चलेगा...

आज हमारा गणतंत्र ६१ साल का हो रहा है. दुखी होना है तो सोचिये हमने इस दौरान काफी कुछ गंवाया. खुश होना है तो कहिये हमारी उपलब्धियां भी कम नहीं. इस दौरान हमने लगातार बदलाव देखा, और आज फिर हम एक बदलाव के मुहाने पर खड़े हैं. कई सपने जवान हो रहे हैं. रातों से निकलकर दिन में रहे हैं. हमें इसे सच में तब्दील करना है. हम यानि इस देश में साँस लेने वाला हर नागरिक. इस देश को कोसने वाला हर क्रिटिक और इस देश की कामयाबी पर मुस्कुराने वाला हर चेहरा. छोड़िये नाकामियों को, कोरी कल्पनाओं को रातों के हवाले कीजिए. आइये बेहतर कल बनाते हैं, अपनी हर जिम्मेदारी को अपने कंधे पर उठाते हैं. कुछ आप बढिए, कुछ कदम हम बढ़ाते हैं और
मिलकर एक
नई कहानी लिखते हैं। सिर्फ लड्डू खाने से काम नहीं चलेगा...

Monday, January 25, 2010

सुभाष से मुलाक़ात...

सुभाष चन्द्र बोस. दरअसल यह वो नाम है जो बचपन से ही मुझसे जुडा हुआ है. छोटा सा था जब सीतापुर के मुजहना गाँव गया था पिता जी के साथ. एक अंकल भी थे, विश्वबंधु तिवारी, आजाद हिंद फौज से जुडी किसी संस्था की देख रेख कर रहे थे. वहां एक मौनी बाबा के पास हम लोग अक्सर जाया करते थे. पिता जीने उनसे दीक्षा ली थी. हमारा पूरा परिवार अपने दर्द की पोटली वहां जाकर खोल देता था. एक टट्टर में बंद एक लम्बा चौड़ा साधू हाथों से कुछ इशारे करता था और बाहर बैठे महंत जी उसका अनुवाद करते थे. हम सभी बड़े आश्चर्य चकित होते थे कि आखिर ये कैसे संभव है, पर आस्था के सामने सवाल कहाँ टिक पाते हैं. विश्वबंधु अंकल अक्सर कहते थे कि मौनी बाबा ही सुभाष चन्द्र बोस हैं. मैं भी हमेशा एक सवाल करता कि अगर ये सुभाष चन्द्र बोस हैं तो ये भगवन कैसे हो सकते हैं. पर फिर आस्था के सामने मेरा सवाल बौना पड़ जाता था. कई ऐसी बातें भी थीं जो सोचने पर मजबूर कर देती थीं. पिता जी की नाव का बाढ़ में खुद किनारे पर लग जाना. पूरे गाँव में पानी ही पानी पर आश्रम के चारों ओर से घाघरा मैया का अन्दर न आना. ऐसी कई बातें. हमारी गाड़ी का आधी टेढ़ी होकर गिरना, ये सब बातें मुझे आज तक समझ में नहीं आई. मैंने तर्क देने की भी कोशिश भी की पर साइंस भी मेरे तर्क को सही नहीं ठहरा पता था. पिता जी के साथ के कुछ और लोग भी बार-बार इसी बात पर जोर देते थे कि वही सुभाष हैं. कई बार आश्रम में जो जंगल कह लीजिये या गाँव के बीचोंबीच था इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश भी हुई पर मौनी बाबा जिन्हें हम भगवन कहते थे, हँस के बात टाल देते. कई बार तो मीडिया वाले भी वहां पहुंचे. वो उन्हें इशारों इशारों में ही डांट देते और कहते कि जो मुझे सुभाष कहते हैं वे पागल हैं. लेकिन उनकी तस्वीर और सुभाष चन्द्र बोस की तस्वीर मिलाने पर लगता था कि ये वही हैं. उन दिनों उनके बारे में खूब पढता था, जब भी उनकी चर्चा हो, झट से आगे पहुँच जाता था, अपने दोस्तों से भी कहता था कि मैं सुभाष चन्द्र बोस से मिला हूँ. पर वो मजाक बनाते. उस दौरान पता चला कि कोई फैजाबाद के बाबा हैं उन्हें भी लोग सुभाष चन्द्र बोस कहते हैं. किसी ने बताया कि मौनी बाबा ही पहले अयोध्या में रहते थे. कुछ भी हो, कुछ तो था उनमें. कुछ चमत्कारिक. कोई माने या माने, मैं मानता हूँ. वो मुझे हमेशा याद करते थे, कोई भी यहाँ से जाता, वो उससे मेरे बारे में जरुर पूछते. मुझे भी जब भी डर लगता, मैं उन्हें ही अपने पास महसूस करता. कुछ साल पहले उन्होंने शरीर छोड़ दिया. महंत आज भी वहां हैं. तब से सिर्फ एक बार वहां गया. आज वो वैसा नहीं है जैसा पहले था. वो उर्जा भी नहीं महसूस होती. शायद वो सुभाष नहीं थे पर मैंने हमेशा उन्हें वही दर्जा दिया. उनसे वही उर्जा लेने की कोशिश की.
सुभाष आज भी एक पहेली हैं, कम से कम मेरे लिए. मेरे लिए वो कभी नहीं मरे. वो हमेशा मेरे पास हैं. आज भी उनसे एकांत में बातें करता हूँ. मैं खुद में उन्हें बसाना चाहता हूँ. उनसा कुछ करना है. उनसा बनना है. देश को एक खूबसूरत सुबह से रू रू कराना है.
आमीन!

Friday, January 22, 2010

किस खबर को कितना सनसनीखेज बनाना चाहिए

हाल ही में खबर चली कि ४४ डीम्डविश्वविद्यालयों किमान्यता रद होगई...बच्चे परेशां होगए..रात में बजे एकबच्चे का फ़ोन आयाकि पूरे कॉलेज में टेंशनहै. बच्चे तोड़ फोड़ कररहे हैं और कुछ बच्चेबहुत रो रहे हैं, मैंनेउन्हें समझाया किआपको घबराने कीजरुरत नहीं है...मामला अभी सुप्रीमकोर्ट के पास है और वैसे भी आपकाभविष्य सेफ है, लेकिन ज्यादातरमीडिया में खबर ऐसे आई मनो बच्चोंका भविष्य तो गया, अगर ऐसे मेंकोई युवक आत्महत्या कर लेता तोएक दिन की खबर का जुगाड़ होजाता. फिर वो भी एक दिन का प्रिंसबन जाता. अरे जब इन विश्वविद्यालयोंको डिग्री बांटी जाती हैं तो कहाँ रहते हैंसब...ये धंधा आज का नहीं है. किसखबर को कितना सनसनीखेज बनानाचाहिए, इस पर मीडिया जगत मेंमंथन की जरुरत है.
एक बार भी नहीं सोचा गया कि बच्चोंके एक्साम चल रहे होंगे. टेंशन पहलेही काफी रही होगी. ऐसे में कोई गलतकदम उठता तो स्वाभाविक था, हालाँकि ऐसा कुछ नहीं हुआ. लेकिनअनजाने में ही सही, कोशिश पूरी हुई.
बदलाव का समर्थन करना सर्वथा सहीहै पर उसके प्रभाव को ध्यान में रखतेहुए...कुछ लोगों का तर्क हो सकता हैकि ऐसे तो हम यही सोचते रह जायेंगेकि किस बात से किस पे कितनाप्रभाव पद रहा है, और कुछ भी नहीं होपाएगा. वो ये भी कहेंगे कि बदलाव मेंकिसी किसी को तो सहना ही पड़ताहै. पर, मेरा सवाल है कि आखिर वेकैसे लोग हैं जिन्हें मंत्रालय की प्रेसरिलीज़ से खबर पता चलती है. या तबपता चलती है जब कोई एक्शन प्लानतैयार हो रहा होता है. धंधे कापर्दाफाश हो, तब बात है. कुछ लोग येभी कह सकते हैं कि युवाओं कोमजबूत होना चाहिए पर हमारा वशनहीं चलता उनके दिमाग पर, ये बातभी हमें ध्यान रखनी चाहिए क्यूंकिइस परिस्थिति में हम ज्यादासमझदार हैं और बच्चे गलत करेंइसके लिए हमें सोचना चाहिए. यूँ हीलोग नहीं कहते कि मीडिया चीज़ों कोस्टार्ट तो करती है पर अधूरा छोड़ देतीहै. इस बात के भी कई तर्क हो सकतेहैं पर इसमें सच्चाई भी है.
मैं खुद इस पहल का प्रशंशक हूँ. अच्छा लगा कि किसी ने शुरुआत की. सिस्टम सही करने के लिए तरीका येही सही. पर गिरेबान उनका पकड़ना हैजो इस धंधे के केंद्र में हैं. मंत्री कोकोसने से कुछ नहीं होगा. अगर वेजिम्मेदार हैं तो उन्हें भी कटघरे मेंखड़ा कीजिए. सिस्टम को सवालों सेघेरिये. मैं भी पूरी कोशिश करूँगा. अपने स्तर से, अपनी पूरी क्षमता से. पर, इस मुद्दे को यूँ ही मत भूलिए. इसेमुहिम बनाइये और अंजाम तकपहुंचिए. हालाँकि अब कई लोग अपनीपीठ आगे बढ़ा रहे होंगे इस उम्मीद मेंकि उनकी पीठ थपथपाई जाये.

Monday, January 18, 2010

उफ़, ये रामराज की चाह...

जिस पेशे से मेरा ताल्लुक है वो कई राहों पर ले जाता है। कई लोगों से मिलने, बात करने का मौका देता है। लोगों और उनके विचारों से रू ब रू होते हुए काफी प्रभावित होता हूँ। कई बातें काफी असर कर जाती हैं और सोचने पर मजबूर करती हैं, कुछ तो ऐसी होती हैं कि चाह कर भी उन्हें मानने में दिक्कत होती है। मन बार बार उनका विरोध करता रहता है। ऐसी ही एक बात आज सुबह से खाए जा रही है। सोचा जाने दूँ पर रहा नहीं जा रहा है। दरअसल, एक ब्लॉग में झाँका तो वहां आग सी लगी हुई थी... विचारों कि गर्माहट कुछ ज्यादा ही थी। पोस्ट ख़तम होने तक लग गया कि शायद हर युवा ऐसा ही सोचता है। हो सकता है, हमारी तरह वो जाहिर न कर पता हो अपने प्रतिशोध को। फिर अचानक एक सवाल उठा। काहें इतना परेशां हो? ये कलयुग है तो रामराज काहे लाना चाह रहे हो? क्यों चाह रहे हो कि सूरज पश्चिम से निकले? इस युग की यही नियति है? मैंने जवाब दिया...ये बहाना भी तो हो सकता है। पर खुद को संतुष्ट नहीं कर पा रहा हूँ। १ अरब से भी ज्यादा आबादी है, हम जैसे कितने हैं जो वाकई बदलाव के लिए बेताब हैं, पता नहीं। कितने लोग एनडीटीवी जैसे चैनल देखते हैं। सब इंडिया टीवी देख कर मजे लेते हैं। कितने लोग बदलाव की आग को अपने दिल में २४ घंटे भी जलाये रख सकते हैं, पता नहीं। किसी के बच्चे होंगे तो किसी के माँ बाप। किसी का करियर होगा। देश जाये चूल्हे में। लोग यूँ ही मरते रहे सड़कों पर, कुछ लोग चटपटी खबर बनाएँगे...हम कुछ लोगों को गरिया कर टीवी बंद करके सो जायेंगे. एक दिन हमारा कोई यूँ ही मरेगा तो हम उस किसी कि तरह आंसू बहाएँगे। लेकिन फिर वही रामराज की चाह कितनी जायज़ है इस कलयुग में। कुछ कमेन्ट आयेंगे, फिर यूँ ही हो जायेगा सब...पर कब तक...इस सवाल का जवाब खोजना बहुत जरुरी है। जितनी जल्दी हम इसका जवाब खोज लेंगे, उतनी जल्दी हम संतुष्टि हासिल कर सकेंगे...

Saturday, January 2, 2010

गिव मी सम सनशाइन...

गिव मी सम सनशाइन...गिव मी सम रेन
गिव मी एनअदर चांस, आई वान्ना ग्रो उप वंस अगेन...

मुझे ये शब्द कुछ ज्यादा ही आकर्षित कर रहे हैं...शायद मेरी खोज यहीं ख़त्म हो गई या मुझे नई राह नजर आ गई है। सारी उम्र हम मर मर के जी लिए, कुछ पल तो अब हमें जीने दो...जीने दो...
(जीना इसी का नाम है)
कुछ भी हो, ये साल कुछ ऐसे ही सही...
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