पिछले करीब डेढ़ साल में मैंने दो बड़े विद्रोह बहुत करीब से देखे। पहला अन्ना का और दूसरा बिना चेहरे के युवाओं का। यह चढ़ रहा है। बलात्कार के विरोध में। पहला भ्रष्टाचार को लेकर था और दूसरा खुद में स्त्री विमर्श छिपाए हुए है। दिलचस्प ये है कि दोनों ही विद्रोह सिर्फ व्यवस्था पर चोट नहीं हैं, दोनों ने समाज की जड़ों को हिलाने का दम भरा है। भ्रष्टाचार में हम सब शामिल रहे हैं। और, बलात्कार भी कृत्य से ज्यादा सोच और प्रथा है। जो हमारे देश की रग रग मे बसी है। हमारी रगों में बहते खून के साथ दौड़ती है ये सोच। स्त्री दमन की। कमजोर के शोषण की।
हमें यह समझना होगा कि बलात्कार सिर्फ शरीर का नहीं होता, वो जीवन और जीने के अधिकार का होता है। ये होता आया है। इस देश की विडम्बना यही रही है। जिसके पास बल है, वो उसका दोहन करता रहा है। जो कमजोर है, वो लुटता रहा है। इस सबके बीच माध्यम वर्ग रोटी-कपडा और मकान से आगे सोच ही नहीं पाया। लेकिन, इन दोनों ही विद्रोहों को देखकर लगता है कि माध्यम वर्ग जाग गया है। कुछ देर के लिए ही सही। और शायद कभी न सोने के लिए। जाग गया है। और ये देश के निजामों के लिए खतरनाक संकेत है।
जब 16 दिसंबर की रात देश की राजधानी में 23 साल की एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार होता है, तो आश्चर्यजनक रूप से माध्यम वर्ग (खासकर युवाओं) की नींद टूट जाती है। शुरुआत जेएनयु से होती है। प्रतिशोध की आग में लिपटे युवा सडकों पर आ निकलते हैं। पर वो किसी को हानि नहीं पहुंचाते। न राजकीय संपत्ति को और न ही पुलिस को। वे शांति से अपना विरोध व्यक्त करते हैं। प्रदर्शन करते हैं। नारे लगाते हैं। इन्हें देखकर बाकियों के भीतर दुबकी आग भी दहकती है। वो भी रातभर जागकर झंडे पोस्टर तैयार करते हैं। इसके बाद प्रदर्शन की बाढ़ आती है। इंडिया गेट पर बिना चेहरे के प्रदर्शन होते हैं। सिर्फ एक आवाज। सिर्फ एक नारे, सिर्फ एक मांग के साथ। बलात्कारियों को फांसी। तीन दिन तक ये आन्दोलन चलता है। बढ़ता है। और रायसीना तक पहुँचता है। देश के दिल पर शायद ये पहला युवा आदोलन है। इंडिया गेट से लेकर नॉर्थ ब्लॉक तक इस मांग की चीख पहुँचती है। वहां प्रदर्शन उग्र रूप लेता है, और उसका फल भुगतती है पुलिस। हाँ , पुलिस। क्यूंकि मैं ये नहीं मान सकता कि जो युवा शांति से प्रदर्शन कर रहे थे, वो अचानक तोड़ फोड़ करने लगे। जाहिर तौर पर उनमें कुछ असामाजिक तत्त्व शामिल थे। (जो राह चलती लड़कियों को छेड़ते हैं। जो मा-बहन को गाली बना चुके हैं। जो बात-बेबात पे माँ और बहन का शाब्दिक बलात्कार करते हैं।) जिन युवतियों को चोट आई, वो गलत था लेकिन शुरुआत पुलिस ने नहीं की। पुलिस ज्यादा ही बर्बर हो जाती है। और उनमें भी कई पुरुषवादी मानसिकता के शिकार होते हैं। वे अपनी बेटियों पर डंडे भांजने में कोई कोताही नहीं करते। वे घर में भी नहीं करते। दूसरी तरफ, निज़ाम भी आवाज़ सुनना नहीं चाहते, देखना चाहते हैं। एक ऐसा चेहरा, जिससे वो समझौता कर सकते। फिर ये निज़ाम रोटी फेंकते है। जिस पर लिखा होता है, ''एक चेहरा चाहिए''। हमारे देश की भूखी मीडिया टूट पड़ती है उस रोटी पर।
फिर पुरुषवादी सोच से ग्रस्त मीडिया खेल रचता है। आन्दोलन को भटकाने की पूरी कोशिश शुरू हो जाती है। इससे उम्मीद भी क्या होगी। जिस मीडिया की स्क्रीन पर महिला की जर्जर तस्वीर चस्पा हो। जिसकी सोच में महिला लज्जा का पात्र हो, जिसकी नज़र में महिला दयनीय हो, वो क्या करेगा। इस आन्दोलन की चीख उनके कानों को चीरती रही, लेकिन उन्हें कोई चेहरा चाहिए था। जो कैमरे पर साक्षात दिखे। जो उनसे बात करे। और उन्होंने कर दिखाया। रविवार को इंडिया गेट और विजय चौक पर चेहरे पहुचे। राजनीतिक रंग में लिपटे। लाल, हरे और भगवा में सने चेहरे। वो चेहरे भी नहीं दिखे लेकिन उनके वहां होने का हश्र दिखा। राजकीय संपत्ति जली, आन्दोलन की आवाज दब गई और उग्र चेहरा दिखने लगा। हर तरफ आग और तोड़फोड़। निश्चित ही ये वो युवा नहीं था, जिसने विद्रोह शुरू किया था। फिर क्या, सब पर लाठियां बरसीं। क्या महिला, क्या युवती और क्या पत्रकार, सब चोटिल हुए। और मुद्दा तितर बितर हो जाता है। कुछ पल के लिए। या फिर शायद अनिश्चितकाल के लिए। इस विद्रोह में एक पुलिस वाले की मौत भी हो गई है।
युवाओं को इस विद्रोह को जिन्दा रखना होगा। मध्यम मार्ग से अपनी आवाज़ निजामों तक पहुंचानी होगी। बदलाव सुनिश्चित है। लेकिन, हिंसा से कुछ हासिल नहीं होगा। जहाँ तक सफदरजंग में पड़ी उस लड़की का सवाल है, तो उसकी ज़िन्दगी कोई नहीं लौटा सकता। न आप, न कोई कानून और न ही कोई सरकार। इस देश में हर मिनट करीब 22 बलात्कार होते हैं। उनकी सुध कोई नहीं ले पाता। कानून सख्त होना जितना जरुरी है, फांसी की सजा जितनी जरुरी है, उतनी ही जरुरी है अपनी सोच में बदलाव। और ये बदलाव कोई कानून, कोई प्रदर्शन नहीं ला सकता। ये आपके घर से होगा।