फोटो महज सिम्बौलिक है. गूगल से साभार.
जैसे बारिश के मौसम में जगह-जगह केंचुए निकल आते हैं वैसे ही क्रिकेट के मौसम में गली-कूचे से लेकर, रेल, बस और मेट्रो तक में "क्रिकेट के कोच" नजर आने लगते हैं. इन कोच की फेहरिस्त में वरीयता, पैमाना और अनुभव जैसा कोई मानक नहीं लागू होता. इस "क्रिकेटिंग" मौसम में बच्चे से लेकर बूढ़े तक, कोई भी कोच का भेष धारण कर सकता है. ऐसा लगता है कि भारत के किसी भी बच्चे को ए,बी,सी,डी...का ज्ञान हो न हो, लेकिन मानो वह अभिमन्यु की तर्ज पर क्रिकेट तो मां की कोख से ही सीख कर आता है. और शायद यही वजह है कि क्रिकेट के बारे में टिप्पणी करना उसका जन्मसिद्ध अधिकार है. ऐसे में, जब भारत बुरी तरह पिट रहा हो, वो भी ऑस्ट्रेलिया जैसी किसी धुर विरोधी टीम से और पर्थ जैसी पिच पर तो आलोचना बेहद अहम हो जाती है. लोग खाना-पीना भूल सकते हैं, लेकिन मैच का आलोचनात्मक विश्लेषण नहीं. बच्चा-बच्चा सचिन, द्रविड़ और सहवाग के शॉट पर अनोखा ज्ञान दे देता है. जिन्हें सही से फल्ली घुमाना तक नहीं आता, उन्हें भी चौराहा मेनटेन करने का बहाना मिल जाता है और वे भी अपने-अपने नुक्कड़ पर पनवाड़ी की दुकान पर क्रिकेट एक्सपर्ट नजर आते हैं.
गेंदा-फल्ली के इस मौसम में घर का माहौल भी कुछ अलग ही होता है. देश-दुनिया में क्या हो रहा है, लोगों को इससे सरोकार नहीं होता, हर कोई गेंदा और फल्ली के इस विचित्र खेल का विश्लेषण करता दिखता है. किस बॉल को फाइन लेग पर खेलना है और किसे स्क्वॉयर कट करना है, किस बॉल को मिड ऑन पर खेलना है और किसे डिफेंस करना है, यह चर्चा गली-गली में आम हो जाती है. खास बात यह है कि हर चर्चा में मानो कई कोच अपनी राय देते हैं और चर्चा कभी-कभी तो जूतम-पैजार तक जा पहुंचती है. अब तो यह चर्चा सोशल नेटवर्किंग पर भी दिन-रात छाई रहती है. क्रिकेट के एक से बढक़र एक सो कॉल्ड धुरंधर विद्वान भोर में उठकर ही टीवी के साथ फेसबुक और ट्विटर लॉग इन कर लेते हैं. और फिर शुरू होता है सोशल नेटवर्किंग पर मैच का लाइव प्रसारण विद एक्सपर्ट ओपिनियन. द्रविड़ जैसे किसी ग्रेट वॉल के पैड और बैट के बीच से बॉल अंदर चली जाए और गिल्लियां बिखरे दे तब तो पूछिए ही मत. कोई कहता है कि एल्बो सही डायरेक्शन में नहीं था तो कोई उस गेंद को महा रद्दी करार देते हुए बताता है कि इस बॉल पर तो सीधे बॉलर के सिर के ऊपर से सिक्स जडऩा चाहिए था. कोई द्रविड़ को गड्ढा कहता है तो कोई बड़ी संजीदगी से इसे उम्र का तकाजा कह कर उन्हें रेस्ट की एडवाइस दे देता है. सहवाग, गंभीर और धौनी गलती से स्लिप में कैच थमा बैठे तो मानो पाप हो गया हो. क्रिकेट के कुछ अंधभक्त तो गुस्से में रिमोट या ग्लास टाइप की कोई चीज तक तोड़ देते हैं.
सोचता हूं कि गली-गली में कोच का आखिर माजरा क्या है. फिर मैं भी घर का बुद्धू बक्सा खोलता हूं. खबरिया चैनलों पर क्रिकेट मंडी लगी पाता हूं. हर चैनल ऐसे उछलता है कि उनका एक्सपर्ट पैनल सबसे बेहतर और अनुभवी है. पहले चैनल पर मनिंदर सिंह नजर आते हैं, दूसरे पर अतुल वासन और तीसरे पर आकाश चोपड़ा जैसे सो कॉल्ड क्रिकेट एक्सपर्ट. मनिंदर सिंह 9वें नंबर के खिलाड़ी थे, अतुल वासन भी बॉलर थे और आकाश चोपड़ा फिर भी थोड़ा खेले लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में ज्यादा कमाल नहीं दिखा पाए. बहस भी बड़ी मजेदार होती है. एक पर सचिन की टेक्नीक पर तो दूसरे पर राहुल के डिफेंस और शॉट सेलेक्शन पर और तीसरे पर धौनी की कैप्टंसी पर. देखा-देखी, कुछ ऐसी ही चर्चाएं शुरू हो जाती है गली-कूचों में. वास्तव में यही करते आए हैं खबरिया चैनल. वे मामला इतना गर्म कर देते हैं मानो विश्व युद्ध छिड़ा हो. लोग भी ऐसे ही गर्मा जाते हैं. कुछ तो स्कूल-ऑफिस से गोला मारते हैं और फिर बाद में पछताते हुए टीम इंडिया और उसके धुरंधरों को कोसते फिरते हैं. सच कहूं तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया खूब पुण्य कमा रहा है. जो क्रिकेट में खुद कोई मुकाम हासिल नहीं कर सके, उन्हें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने रोजगार मुहैया कराया है. शायद यही वजह है कि कूड़ा-करकट परोसते जाने के बादवजूद टीआरपी बटोरे जा रहा है. इतना ही नहीं, कभी-कभी तो प्रिंट मीडिया पर भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का भूत सवार हो जाता है. अब, पर्थ में अनर्थ जैसा क्या हुआ? ये मेरी समझ से परे है. माना कि हार ज्यादा ही शर्मनाक थी, लेकिन अनर्थ! ये कब और कैसे हुआ?
इस पूरी कवायद, टीका-टिप्पणी, आरोप-प्रत्यारोप, ओपीनियन-एनालिसिस के बीच एक चर्चा हमेशा दब जाती है. एक सुलझी हुई बहस जिसमें एक्सपर्ट पैनल खुद अनुभवी हो और जरूरी बातों पर मंथन हो. मेरी नजर में, जिन खिलाड़ियों पर हम सवाल उठाते हैं...वे ही हमारे तीर हैं, बाकी तो तुक्के हैं. इन खिलाड़ियों को भी अपनी महानता बनाए रखनी है और दादा (सौरभ गांगुली) जैसा हश्र नहीं करवाना है तो अच्छा प्रदर्शन करते हुए इस खेल को अलविदा कहें. देश के गली-कूचों के सभी "कोचों", खबरिया चैनलों के खतरनाक क्रिकेट विश्लेषकों और गावस्कर जैसे दिग्गजों से बस छोसी सी गुजारिश है...सचिन के सैकड़े का इंतजार हमें भी है, लेकिन उससे हर पारी में शतक की उम्मीद लगाकर बैठना सही नहीं है. खिलाड़ियों की पूजा भले कीजिए लेकिन भगवान मानने की भूल मत कीजिए, क्योंकि इससे निराशा ही हाथ लगनी है...और फिर खामखा हंगामा पूरे देश में हो जाता है!!
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