खो गया था दुनिया के झंझावातों में आइना देखता हूँ, पर खुद की तलाश है, मुसाफिर हूँ. ये अनकही खुली किताब है मेरी... हर पल नया सीखने की चाहत में मुसाफिर हूँ.. जिंदगी का रहस्य जानकर कुछ कहने की खातिर अनंत राह पर चला मैं मुसाफिर हूँ... राह में जो कुछ मिला उसे समेटता मुसाफिर हूँ... ग़मों को सहेजता, खुशियों को बांटता आवारा, अल्हड़, दीवाना, पागल सा मुसाफिर हूँ... खुशियों को अपना बनाने को बेक़रार इक मुसाफिर हूँ... उस ईश्वर, अल्लाह, मसीहा को खोजता मैं मुसाफिर हूँ...
Wednesday, June 16, 2010
ये हैं जनाब ''बटन''...
बड़े बुजुर्ग हमेशा कहते रहें हैं कि एक दिन ये विज्ञान हम सबकी मजबूरी बन जाएगा। इसका एक एक अविष्कार हमें अपने इशारे पर नचाएगा। हम नाचेंगे, बसंती की तरह। कोई वीरू ये कहने के लिए भी नहीं होगा कि इन कुत्तों के सामने मत नाचना..। ऐसे ही एक अविष्कार से मैं आपकी मुलाक़ात करता हूँ। सोच कर देखिये, ये जनाब न हों तो हमारा क्या होगा। दिन-रात और शाम, सब कुछ अधूरी होगी।
ये हैं जनाब बटन, इनसे तो आप सबका परिचय होगा। ज़िन्दगी में सब कुछ बटन ही तो है। ये जनाब न हों तो कैसे जिएंगे हम लोग। दुनिया रुक जाएगी। न सुबह का पता चलेगा, शाम भी आकर गाजर जाएगी और हम बेखबर रह जाएँगे।
सुबह से शाम तक मैं इसकी जरुरत देखता हूँ तो डर लगता है। बिस्तर से उठते ही मोबाइल का बटन दबाकर मैसेज और मिस कॉल चेक न करें तो पेट बेचैन हो जाएगा। ट्वायलेट की लाइट जालाने का बटन नहीं दबा तो प्रेशर नहीं बनेगा। किचेन में रखे चूल्हे का बटन न दबा तो चाय नहीं बनेगी और दिन भर खुद को और दूसरों को मजबूरन परेशां करना पड़ेगा। नाश्ता नहीं बनेगा। मिक्सी का बटन नहीं दबा तो मैंगो शेक और मिल्क शेक नहीं मिलेगा। प्रेस का बटन जनाब रूठ गए तो शर्ट भी शर्म के मरे सिकुड़ जाएगी। पैंट भी...
खैर, भूखे प्यासे घर से निकले और गाड़ी के बटन जनाब गुस्सा गए तो घिसिये चप्पल। ऑटो और बस में भी बटन जनाब का राज है। हाँ, रिक्शा और साईकिल ख़ुशी के मरे फूले नहीं समाएँगे। दफ्तर में लिफ्ट में भी बटन जनाब की हुकूमत। सीढियां गिनते गिनते सारे क्रिएटिव आइडिया फुर्र हो जाएँगे। एसी का बटन नहीं चला तो शरीर का पोर पोर रोने लगेगा। कंप्यूटर के बटन महाराज तो महान हैं, इनकी शान में गुस्ताखी हुई तो ये दुनिया सर पर उठा लेंगे। दुनिया ठहर जाएगी। सेंसेक्स से लेकर हवाई जहाज तक सब जमीन पर धड़ाम।
न मोबाईल चलेगा न कंप्यूटर, न ब्लॉग लिख पाएँगे न चिड़िया उदा पाएँगे। फेसबुक में चेहरा भी नहीं देख पाएँगे। न खबर, न ख़बरदार। न फक्ट्री न धुआं. न मिसाइल न न्यूक्लियर। न लड़ाई न मौत। न राजनीति न बिजनेस. सिर्फ जंगल राज। सब कुछ प्राकृतिक। हम सब आदिवासी हो जाएँगे कुछ ही दिनों में। अपनी जड़ों की ओर। अपने अतीत की ओर। प्रकृति खुश हो जाएगी। खूब फूल खिलेंगे। उनकी मुस्कान भी असली होगी. ताजी हवा सरसराएगी।
बीती तीन सदियों का खेल यूँ ही धरा का धरा रह जाएगा। लेकिन हम इंसान हैं। दुनिया की सबसे खूंखार उत्पत्ति। हम फिर दिमाग लगाएंगे। विज्ञान को नई राह देखेंगे। बटन का बाप बनेंगे। अबकी दुनिया 'तार तार' कर देंगे। लेकिन वो तार भी एक दिन रूठ गया तो क्या होगा....फिर वही। हम मानव बन जाएँगे। कुछ दिन के लिए ही सही। फिर किसी अवतार की जरुरत नहीं होगी। किसी २०१२ किसी अत्याधुनिक फिक्शन फिल्म की जरुरत नहीं होगी। न करियर की मार होगी न झूठ की परतें। काश ऐसा होता...लेकिन फिर वो डर पनपता है तो कैसा होता। क्या मैं जी पता उस काल में जहाँ से हम खुद को निकल कर यहाँ लाये। ये सोच यूँ ही लड़ते रहेंगी। खैर, आप हम मजा लेते हैं हमारे बटन जनाब की कहानी का। देखिये, इन्हें खफा मत होने दीजिएगा।
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3 comments:
Arre zanab , comments ke liye bhi to batan dabana padata hai.
Arre zanab , comments ke liye bhi to batan dabana padata hai.
badia...
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