ये फोटो कुछ दिन पहले डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट अख़बार ने छापी. वहां से साभार ले रहा हूँ
समझ नहीं आ रहा है कि इस सोच को कैसे आकर दूँ। काफी कुछ कहने का मन है, हमेशा की तरह आज भी कई सवाल हैं। अपने प्रदेश की मुख्यमंत्री बहिन कुमारी मायावती जी का साहस और गुंडागर्दी देख दंग हूँ। व्यथित भी। राजधानी में हूँ तो आए दिन एक नई बात पता चलती है, यहाँ गुंडई तो वहां गुंडई। इनके राज में जिसे मन चाहता है उसे रेल दिया जाता है। रातों रात व्यवस्था बदल जाती है। किसी को कानोंकान खबर नहीं लगती। खबर चलती भी है तो उनके कानों में जूं नहीं रेंगता। वो मदमस्त हाथी की चाल चलती हैं और हम जैसे कुछ कुत्ते भौंकते रहते हैं।
अभी का ही उदाहरण ले लीजिये, करोड़ों रुपये की माला पहनकर हवा में उड़ गईं बहिन जी। मीडिया खूब चिल्लाई, पूरे चौबीस घंटे आलोचना होती रही, दूसरी ओर प्रेस बिकी हुई सी लगी. राजधानी के ज्यादातर हिंदी भाषी अख़बारों ने जो जयकारा लगाया कि अगले २ साल के लिए विज्ञापन की चिंता ही खत्म हो गई। किसी ने ३ पन्ने तो किसी ने ४। समझ नहीं आया कि ऐसी कौन सी रैली थी कि पूरा अख़बार ही मायावी हो गया। कुछ ने तो नीले रंग की हेडिंग भी लगा दी। सबने एक छोटा सा बक्सा दिया नोटों के मामले पर। भले ही ये गुंडई का असर है सब बिक गए हैं। एक दिन बाद फिर से बहिन जी निकलती हैं, फिर नोटों की माला पहनाई जाती है और एक मंत्री जी मीडिया पर व्यंग कसते हैं। मीडिया भिखारियों की तरह खड़ी हिहियाती है और खबर चल जाती है। हिंदी अख़बारों में भी सकारात्मक खबर लगती है। जो अख़बार राजनीति को जगह नहीं देते, वो भी गंगा स्नान करने से नहीं चूकते। एक मुख्यमंत्री इतना ताकतवर है कि सब बेबस हो गए हैं। ये सोचकर बहुत दुःख होता है। पत्रकारिता के सिद्धांत, सामाजिक जिम्मेदारी और सारे मूल्य खोखले से लगने लगते हैं।
इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि प्रचार के लिया प्लास्टिक की झंडियों का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा लेकिन पूरा शहर पन्निओं से ढक जाता है। हर चौराहा, हर बाजार, हर स्टेशन, नीले आसमान के नीचे कुछ नजर आता है तो वो नीली पन्नियाँ। लेकिन एक भी अख़बार में ये खबर नजर नहीं आती। या तो ये तथ्य गलत है या फिर सारा मीडिया, सारा प्रेस बिक चुका है।
कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि बातें कहने और लिखने में बड़ी आसान हो सकती हैं पर मैं सिर्फ एक सवाल पूछता हूँ कि पत्रकार का काम पीआरओ से थोडा तो अलग रहा होगा। क्या पत्रकार ऐसे ही होते हैं? अगर इतना ही डर था तो क्यूँ कूदे पत्रकारिता में। ऐसी ख़बरों का बहिष्कार किया जाना चाहिए। सिर्फ और सिर्फ आलोचना की जानी चाहिए।
सवाल उठता है कि क्या पत्रकार को दोष देना सही है। वो तो वही लिखता है जिसकी उसे इजाजत मिलती है। अगर मालिक लालची न होते तो शायद ये स्थिति न होती। पैसे वालों ने अपने फायदे के लिए अख़बार और चैनल खोल लिए हैं। सरकार से उन्हें हर दूसरे दिन काम पड़ता है तो कैसे उनकी अर्चना न करें। लेकिन क्या ऐसे ही सब कुछ चलता रहेगा? किसी को तो बदलाव के लिए आगे आना होगा। क्या ये घुटन किसी को नहीं होती? या सब अपनी अपनी बचाए फिर रहें हैं। सब चाहते हैं कि भगत पैदा हो पर मेरे घर में नहीं। ऐसा चलता रहा तो एक दिन हम सब बिक जायेंगे। कलयुग के सच्चे सिपाही होंगे हम।
अरे याद कीजिये, ये वही सरकार है, जिसके राज में मनोज गुप्ता जैसे अफसर मारे गए। किसी को पैसा न लेना भारी पड़ा तो किसी को पैसा न देना। सरकार की ओर से कोई सार्थक करवाई नहीं नजर आई। ये वही सरकार है जो चरमरा रही कानून व्यवस्था को मजबूत करने की जगह मूर्तियाँ खड़ी करती है। ये वही सरकार है जिसमें सिर्फ पैसा बोलता है। ये वही सरकार है जिसके शासन में भ्रस्टाचार आसमान छू रहा है। पत्थरों की ये विचारधारा कितने दिन तक जियेगी। कभी तो इसपर भी काई जमेगी...
अभी का ही उदाहरण ले लीजिये, करोड़ों रुपये की माला पहनकर हवा में उड़ गईं बहिन जी। मीडिया खूब चिल्लाई, पूरे चौबीस घंटे आलोचना होती रही, दूसरी ओर प्रेस बिकी हुई सी लगी. राजधानी के ज्यादातर हिंदी भाषी अख़बारों ने जो जयकारा लगाया कि अगले २ साल के लिए विज्ञापन की चिंता ही खत्म हो गई। किसी ने ३ पन्ने तो किसी ने ४। समझ नहीं आया कि ऐसी कौन सी रैली थी कि पूरा अख़बार ही मायावी हो गया। कुछ ने तो नीले रंग की हेडिंग भी लगा दी। सबने एक छोटा सा बक्सा दिया नोटों के मामले पर। भले ही ये गुंडई का असर है सब बिक गए हैं। एक दिन बाद फिर से बहिन जी निकलती हैं, फिर नोटों की माला पहनाई जाती है और एक मंत्री जी मीडिया पर व्यंग कसते हैं। मीडिया भिखारियों की तरह खड़ी हिहियाती है और खबर चल जाती है। हिंदी अख़बारों में भी सकारात्मक खबर लगती है। जो अख़बार राजनीति को जगह नहीं देते, वो भी गंगा स्नान करने से नहीं चूकते। एक मुख्यमंत्री इतना ताकतवर है कि सब बेबस हो गए हैं। ये सोचकर बहुत दुःख होता है। पत्रकारिता के सिद्धांत, सामाजिक जिम्मेदारी और सारे मूल्य खोखले से लगने लगते हैं।
इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि प्रचार के लिया प्लास्टिक की झंडियों का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा लेकिन पूरा शहर पन्निओं से ढक जाता है। हर चौराहा, हर बाजार, हर स्टेशन, नीले आसमान के नीचे कुछ नजर आता है तो वो नीली पन्नियाँ। लेकिन एक भी अख़बार में ये खबर नजर नहीं आती। या तो ये तथ्य गलत है या फिर सारा मीडिया, सारा प्रेस बिक चुका है।
कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि बातें कहने और लिखने में बड़ी आसान हो सकती हैं पर मैं सिर्फ एक सवाल पूछता हूँ कि पत्रकार का काम पीआरओ से थोडा तो अलग रहा होगा। क्या पत्रकार ऐसे ही होते हैं? अगर इतना ही डर था तो क्यूँ कूदे पत्रकारिता में। ऐसी ख़बरों का बहिष्कार किया जाना चाहिए। सिर्फ और सिर्फ आलोचना की जानी चाहिए।
सवाल उठता है कि क्या पत्रकार को दोष देना सही है। वो तो वही लिखता है जिसकी उसे इजाजत मिलती है। अगर मालिक लालची न होते तो शायद ये स्थिति न होती। पैसे वालों ने अपने फायदे के लिए अख़बार और चैनल खोल लिए हैं। सरकार से उन्हें हर दूसरे दिन काम पड़ता है तो कैसे उनकी अर्चना न करें। लेकिन क्या ऐसे ही सब कुछ चलता रहेगा? किसी को तो बदलाव के लिए आगे आना होगा। क्या ये घुटन किसी को नहीं होती? या सब अपनी अपनी बचाए फिर रहें हैं। सब चाहते हैं कि भगत पैदा हो पर मेरे घर में नहीं। ऐसा चलता रहा तो एक दिन हम सब बिक जायेंगे। कलयुग के सच्चे सिपाही होंगे हम।
अरे याद कीजिये, ये वही सरकार है, जिसके राज में मनोज गुप्ता जैसे अफसर मारे गए। किसी को पैसा न लेना भारी पड़ा तो किसी को पैसा न देना। सरकार की ओर से कोई सार्थक करवाई नहीं नजर आई। ये वही सरकार है जो चरमरा रही कानून व्यवस्था को मजबूत करने की जगह मूर्तियाँ खड़ी करती है। ये वही सरकार है जिसमें सिर्फ पैसा बोलता है। ये वही सरकार है जिसके शासन में भ्रस्टाचार आसमान छू रहा है। पत्थरों की ये विचारधारा कितने दिन तक जियेगी। कभी तो इसपर भी काई जमेगी...
1 comment:
yahi to maya ki maya hain
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