खो गया था दुनिया के झंझावातों में आइना देखता हूँ, पर खुद की तलाश है, मुसाफिर हूँ. ये अनकही खुली किताब है मेरी... हर पल नया सीखने की चाहत में मुसाफिर हूँ.. जिंदगी का रहस्य जानकर कुछ कहने की खातिर अनंत राह पर चला मैं मुसाफिर हूँ... राह में जो कुछ मिला उसे समेटता मुसाफिर हूँ... ग़मों को सहेजता, खुशियों को बांटता आवारा, अल्हड़, दीवाना, पागल सा मुसाफिर हूँ... खुशियों को अपना बनाने को बेक़रार इक मुसाफिर हूँ... उस ईश्वर, अल्लाह, मसीहा को खोजता मैं मुसाफिर हूँ...
Tuesday, March 16, 2010
...और वो खुद भी बढ़ता चला जाता...
कोई 'राम' कहता तो लोग रूककर देखते, कोई 'अल्लाह' कहता तो लोग पलटकर देखते. जब वही कोई 'काम' कहता तो लोग बढ़ते चले जाते, 'आम' कहता तो लोग बढ़ते चले जाते. कारवां आगे बढ़ता, कुछ साथ चलते तो कुछ बढ़ते चले जाते. वो किसी को गिराते, ताली बजाते और बढ़ते चले जाते. एक मोड़ पर वो खुद गिर जाते, उठते और वही चाल चलते. और वो कोई सड़क पर गिरे लोगों को देखकर परेशां होता और खुद भी बढ़ता चला जाता...
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3 comments:
यही सच है..
Sach kaha aapane ...!!
जबरदस्त लिखा है
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