जनसत्ता में प्रकाशित तसलीमा नसरीन का एक लेख पढ़ने को मिला। लेख में उन्होंने अपनी तुलना सलमान रुश्दी और एमएफ हुसैन और उन्हें महिला रुश्दी कहे जाने पर आपत्ति जताई है। उसके कारण भी दिए हैं। मुझे उनके कारणों से सहमति दर्ज कराने में कोई आपत्ति नहीं है। उनकी बातें बनावटी नहीं लगतीं। कुछ सवाल उठ रहें हैं, हुबहू आपके सामने रख रहा हूँ। किसी के पास कुछ जवाब हो तो दें। ये सवाल तसलीमा के सवालों से निकले हैं।
मुझे समझ में नहीं आया कि रुश्दी की हरकतों के बाद उन्हें इतना सम्मान किस आधार पर दिया जाता है? महज इसलिए कि उनके खिलाफ ईरान में फतवा जारी किया गया था या इसलिए कि वह एक उम्दा लेख़क हैं। अगर ये दोनों बातें सही हैं तो तसलीमा किसी भी मामले में उनसे कमतर नहीं। तसलीमा की बातों से भी ये कसक झलकती है। एकदम साफ़। इसके इतर, सलमान रुश्दी को पुरुष तसलीमा क्यूँ नहीं कहा जाता, या पुरुष नसरीन? ऐसे भेद क्यूँ हैं? और ये किस सोच की पैदाइश हैं?
उन्होंने एमएफ हुसैन का भी उदहारण दिया है। वो कहती हैं कि आखिर एमएफ हुसैन ने मुहम्मद साहब की तस्वीरों के साथ ऐसे कलात्मक प्रयोग क्यूँ नहीं किये जैसे सरस्वती और लक्ष्मी के साथ किये। इसलिए कि वे महिला हैं, और महिलाएं ही सौंदर्य का प्रतीक होती हैं? ये न ही सेकुलर सोच दर्शाता है न ही एक ऐसा चित्रकार होने के प्रमाण देता है कि वो धार्मिक रूप से कट्टर नहीं हैं। फिर वो क़तर की नागरिकता लेने के बारे में सोचते हैं तो ऐसे क्यूँ खबरें दिखाई जाती हैं जैसे वो कोई देशभक्त हों और देशबदर हो रहें हों? क्या ये सही है? क्या मीडिया की खबरें संतुलित हैं? या भावनाओं में बहकर उथली रह जाती हैं? इससे एक उथला परसेप्शन भी क्रिएट हो जाता है जो परोक्ष रूप से बहुत खतरनाक होता है। खासकर ऐसे मामलों में जो कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में किसी दूसरे संवेदनशील मामले से जुड़े होते हैं।
तसलीमा और नादीन जब किसी धर्म विशेष या व्यर्थ के आडम्बरों और नियमों के खिलाफ लिखती हैं तो उनपर बिना जाने बूझे लोग थूकने लगते हैं। फतवा जारी हो जाता है। उनकी जिंदगी नरक बन जाये, इसके हर संभव प्रयास होते हैं। जब तसलीमा को नजरबन्द रखा जाता है, जबरदस्ती देश से निकाला जाता है तो हम क्यूँ ऐसे रिएक्ट नहीं करते? सिर्फ इसलिए क्यूंकि वो महिला हैं? सिर्फ इसलिए क्यूंकि पुरुषों के बनाये नियमों और उनकी सत्ता को वो चैलेन्ज करने का माद्दा है उनमें? दूसरी तरफ, चित्रों में, किताबों में अच्छे अच्छे शब्दों में कुछ कडवी बातें पिरो कर लोग हीरो बन जाते हैं। और बाद में मांफी भी मांग लेते हैं। ऐसे में तसलीमा और नादीन उनसे कहीं ज्यादा बेहतर हैं। उनकी तुलना किसी ऐसे व्यक्ति से नहीं की जानी चाहिए जो अन्दर कुछ हो और बाहर कुछ।
मैंने तसलीमा की सिर्फ एक किताब पढ़ी है, द्विखंडिता-2 वो भी आधी, पर मैं उनके इस लेख में कुछ भावनाएं महसूस कर सका। अगर गलत महसूस किया और मेरे सवाल गलत हैं तो जरूर बताएं। ये भी बताएं कि अगर एमएफ हुसैन को घर न छोड़ने के लिए कहा जा सकता है तो तसलीमा से क्यूँ नहीं।
मुझे समझ में नहीं आया कि रुश्दी की हरकतों के बाद उन्हें इतना सम्मान किस आधार पर दिया जाता है? महज इसलिए कि उनके खिलाफ ईरान में फतवा जारी किया गया था या इसलिए कि वह एक उम्दा लेख़क हैं। अगर ये दोनों बातें सही हैं तो तसलीमा किसी भी मामले में उनसे कमतर नहीं। तसलीमा की बातों से भी ये कसक झलकती है। एकदम साफ़। इसके इतर, सलमान रुश्दी को पुरुष तसलीमा क्यूँ नहीं कहा जाता, या पुरुष नसरीन? ऐसे भेद क्यूँ हैं? और ये किस सोच की पैदाइश हैं?
उन्होंने एमएफ हुसैन का भी उदहारण दिया है। वो कहती हैं कि आखिर एमएफ हुसैन ने मुहम्मद साहब की तस्वीरों के साथ ऐसे कलात्मक प्रयोग क्यूँ नहीं किये जैसे सरस्वती और लक्ष्मी के साथ किये। इसलिए कि वे महिला हैं, और महिलाएं ही सौंदर्य का प्रतीक होती हैं? ये न ही सेकुलर सोच दर्शाता है न ही एक ऐसा चित्रकार होने के प्रमाण देता है कि वो धार्मिक रूप से कट्टर नहीं हैं। फिर वो क़तर की नागरिकता लेने के बारे में सोचते हैं तो ऐसे क्यूँ खबरें दिखाई जाती हैं जैसे वो कोई देशभक्त हों और देशबदर हो रहें हों? क्या ये सही है? क्या मीडिया की खबरें संतुलित हैं? या भावनाओं में बहकर उथली रह जाती हैं? इससे एक उथला परसेप्शन भी क्रिएट हो जाता है जो परोक्ष रूप से बहुत खतरनाक होता है। खासकर ऐसे मामलों में जो कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में किसी दूसरे संवेदनशील मामले से जुड़े होते हैं।
तसलीमा और नादीन जब किसी धर्म विशेष या व्यर्थ के आडम्बरों और नियमों के खिलाफ लिखती हैं तो उनपर बिना जाने बूझे लोग थूकने लगते हैं। फतवा जारी हो जाता है। उनकी जिंदगी नरक बन जाये, इसके हर संभव प्रयास होते हैं। जब तसलीमा को नजरबन्द रखा जाता है, जबरदस्ती देश से निकाला जाता है तो हम क्यूँ ऐसे रिएक्ट नहीं करते? सिर्फ इसलिए क्यूंकि वो महिला हैं? सिर्फ इसलिए क्यूंकि पुरुषों के बनाये नियमों और उनकी सत्ता को वो चैलेन्ज करने का माद्दा है उनमें? दूसरी तरफ, चित्रों में, किताबों में अच्छे अच्छे शब्दों में कुछ कडवी बातें पिरो कर लोग हीरो बन जाते हैं। और बाद में मांफी भी मांग लेते हैं। ऐसे में तसलीमा और नादीन उनसे कहीं ज्यादा बेहतर हैं। उनकी तुलना किसी ऐसे व्यक्ति से नहीं की जानी चाहिए जो अन्दर कुछ हो और बाहर कुछ।
मैंने तसलीमा की सिर्फ एक किताब पढ़ी है, द्विखंडिता-2 वो भी आधी, पर मैं उनके इस लेख में कुछ भावनाएं महसूस कर सका। अगर गलत महसूस किया और मेरे सवाल गलत हैं तो जरूर बताएं। ये भी बताएं कि अगर एमएफ हुसैन को घर न छोड़ने के लिए कहा जा सकता है तो तसलीमा से क्यूँ नहीं।
5 comments:
होली पर आपकी बेहतर रचना और होली, दोनों को हार्दिक शुभकामनाएं....आपका स्नेहाकांक्षी ....www.sansadji.com
तसलीमा की बातों में दम है।
तसलीमा का मैं प्रशंसक हूं।
भाई आप की बातों में वज़न है.तर्क है.यूँ आजकल ब्लॉग क्या मिला है..लोग अपनी अपनी भड़ास ,खुंदक, कुंठा निकालने में लगे हैं.
मैं कोशिश कर रहा हूँ कि अच्छे ब्लॉग के लिंक हमज़बान पर दूं..
दे रहा हूँ..आपका भी लिंक दे रहा हूँ..
मैं चाहूंगा कि आप भी कुछ नाम सुझाएँ.
आभारी रहूँगा.
Cutie, Exceptions only proves the rule. Exception of Taslima and her quirk of scandalising the natural irate the populace. Its her problem that she can't accept that Man made civilizations and invented almost everything when you look in your room. What is the harm in understandings the roots.? She, Hussain always speaks from the mind of a victim and a victim always scores to gain the attention like a spoiled child.
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