फोटो गूगल से साभार |
जीवन बढ़ा था मेरी ओर
मैंने देखा था उसे आते हुए
या वह भी था एक ख्वाब का अबूझ सा सिरा
नहीं हो सकी हमारी मुलाक़ात
शायद भांप लिए थे उसने मेरे जज़्बात
टटोल ली थी वो नब्ज़
जो गले की अँधेरी कोठरी से निकलने को बेताब थी
या नाप ली थी
मेरे खोखले सुनसान मन की गहराई
और उसमें पड़े
वो सवालों के ढेर देख लिए थे
लेकिन यकीं है
जीवन महज मृग मरीचिका भर नहीं
कुछ और जिन्दा लाशों की
आवाज़ सुनी होगी शायद
और मुड़ गए होगे तुम उनकी ओर
उनके सूखे दरख़्त से
बदन में जान रोपने को
मुझसे भी मिलोगे किसी दिन
किसी ठहरी सी घडी के
एक एकांत मोड़ पर
बातों की गठरी खुलने लगी है
कुछ तुम ले जाना,
कुछ मैं फिर से समेट लूँगा...
1 comment:
शानदार कविता। मुलाकात तो होगी, पर तब शायद शब्दों के मायने बदल जाएं। ठहरी घड़ी टिकटिक करने लगेगी और एकांत मोड़ चौराहा बन जाएगा। तुम सिर्फ लुटाते रहोगे, समेटने के लिए लोग खड़े होंगे हाथ फैलाए।
आनंद प्रकाश श्रीवास्तव
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