Monday, April 15, 2013

We need many more India Gates for justice!

Image courtesy : The Indian Express

She was gangraped by 16 boys, nine of them juveniles. She was beaten, cut up and her genitals mutilated. She made it to hospital, but was sent home with first-aid. When she survived to fight, she ran into an indifferent administration and influential accused. Schools denied her admission, and others mocked and threatened her. Chances are you haven't heard this 16-year-old's story. Three days after the brutal attack on her, the Delhi bus gangrape would happen, and a grieving nation's conscience would not find time or space for this distant town in remote Meghalaya.’  
                                                      -The Sunday Express

We are not a nation at all. We have failed completely as a nation and we have always preferred to be at the receiving end. Had we ever been at serving end, the situation would have been different; whole lot different.

I have always considered myself a true national, a true and honest countryman. For me, India was north states. I never wondered about east, south or west. That’s what we all do with full grace. For our own comfort, we have transformed the definition of a nation into something so vicious and corrupt. Actually, we are really a no nation. We are separate states, casts, creeds and ism’s calling ourselves a nation. And, So was I completely wrong and had misunderstood the meanings of such tiny-big words. After reading a story published in The Sunday Express, I have realized what a nation and a national really means. And, I am not the one for sure. 

This story of a rape victim, has ignited (and disturbed) my soul but with deep disgrace I confess that I can't do anything for her. Mourning is all I am left with. She has to live her whole life covering her face with a ''Dupatta'' or something else. Hiding from society, she has to live her life repenting on that horrific and brutal night. How brutal we are, this story tells me. How ignorant we are, this story shouts at me. But, we protest on an India Gate situated in New Delhi, the great capital of our country India. Why do we protest here, because it’s Delhi and mainstream media can't ignore this place! Even if a pigeon dies, it becomes news here. We care for our own safety, our own interests and our own home.  

We have hijacked the position of policy makers and make policies for everyone but for seven sisters. Yet, we call seven sisters a part of this country and often blame them for not being cordial and responsive. Many of us blame them of supporting our neighboring countries like Bangladesh and Myanmar. I ask, why shouldn't they? What have we done for them? Not a bit. We even ignore their stories. I say this because I observe social media and pity on people, friends for not sharing these stories. They don’t even drop by to read these stories. Rather, everybody is busy liking some photographers, one-liner’s and bullshit-crap ideologies. Honey Singh doesn’t make them rapist but these stories do make them uncomfortable. They don’t read such stories because it probably feels sadist.

Our conscience neglects their pain, sorrows and brutality they face. We don't try to understand them. We are hardly interested in reading their stories unless and until someone like Mary Kom pops up from that region and makes all of us proud. So selfish we are that we only celebrate her success, the medal which she brings to our country, the feeling of self esteem she brings to us with all her hard work. We respect Manna Dey because he sings for Bollywood, our entertainment feeder bus, our lifeline for fun and fantasy. 

I wish, our Seven Sisters too had an India Gate. Probably our so called national media would have focus their lenses on them as well. They would have shouted for days to bring that poor rape victim the justice. But they won't, because Seven Sisters lack an India Gate. 

What an irony, I can only mourn.

I’m sorry sister! 

Tuesday, April 9, 2013

गुज़रते वक़्त और रिश्तों का म्यूजियम

फोटो गूगल से साभार


फेसबुक कमाल की उत्पत्ति है। इसके छोटे से नाम में कितनी बड़ी दुनिया और एक अलग ही सभ्यता नित बन बिगड़ रही है, अंदाज़ा लगाना भी मुमकिन नहीं है। हाँ, कुछ रेशे जरुर पकड़ में आ जाते हैं। शायद यही वजह है कि मुझे कभी कभी महसूस होता है कि इस ख़ास सोशल नेटवर्किंग वेबसाईट ने उम्र, वक़्त और रिश्तों का एक चलायमान वर्चुअल म्यूजियम बना दिया है। म्यूजियम इसलिए कि आप चाहकर भी किसी पल को पलट नहीं सकते, किसी टूटे धागे को जोड़ नहीं सकते। बह गए को वापस हासिल नहीं कर सकते। एक नज़र जी भर उन्हें देख सकते हैं बस। 

मोटे तौर पर देखें तो इस म्यूजियम में दो गैलरी हैं। एक है हमारी खुद की टाइमलाइन यानी हमारे अपने रिश्तों और उम्र की गैलरी और दूसरी गैलरी है इंसान से जुड़े तमाम शास्त्रों की। धर्म, संप्रदाय, राजनीति, अर्थ, साहित्य, ज़ाति, विद्रोह, क्रांति और तमाम अगड़म-बगड़म बातों और घटनाओं के रेशे तस्वीरों और शब्दों के सांचे में ढल कर इस गैलरी में सज रहे हैं।  

हमने शायद ही कभी अपनी प्रोफाइल के तमाम ऐसे फीचर्स पर गौर किया हो, जो वक़्त बेवक्त हमें बता देते हैं कि आप रिश्तों के मामले में कितने गंभीर, सचेत और सजग हैं। कौन सा रिश्ता कितना चला, किसने आपको सबसे ज्यादा पसंद किया और कौन-कब-कैसे आपकी ज़िन्दगी में दाखिल हुआ या फिर किसने किस वजह से किसी दिन आपकी दुनिया से रुखसत ले ली। 

फेसबुक पर जब भी किसी से अपनी दोस्ती जांचने के लिए एक ख़ास बटन पर क्लिक करता हूँ, तो बरबस ही वो ख़त याद आ जाते हैं जो एक ज़माने में हमारे लिए रिश्तों की एक मात्र जमा पूंजी हुआ करते थे। लकड़ी के किसी तखत के नीचे अल्युमिनियम या लोहे के बक्से में बड़े जतन से हर ख़त को संजोकर रखा जाता था। जब भी किसी की याद आती थी, वो बक्सा खुलता था। उस दौर में और ऐसा कुछ भी नहीं था जो बता सके कि कब, कौन और कैसे आपकी ज़िन्दगी में दाखिल हुआ। 

इस रिश्तों के म्यूजियम में हर पल का हिसाब मौजूद है। कब कौन आपका दोस्त बना, कब आपको इश्क हुआ और कब आप वापस किसी रिश्ते से छिटककर तनहा रह गए। कब कोई ख्वाब अधूरा रह गया और किस बरस आपने सबसे ज्यादा नए रिश्तों के लिए हामी भरी, इसका भी ब्यौरा इस म्यूजियम में कैद है वो भी तस्वीरों के साथ. 

अगर आपने भी कभी मेरी तरह इस म्यूजियम की टाइमलाइन पलटी होगी, तो आप भी तमाम एहसासों से गुज़रे होंगे। आपने कुछ चेहरों की तलाश भी की होगी और अचानक आपको एहसास हुआ होगा कि न जाने कब किसी रिश्ते की महीन डोर टूट गई। कुछ चेहरे आपके इस म्यूजियम में नहीं नज़र आये होंगे। किसी ख़ास तारीख पर दोस्तों के वो कमेन्ट देखकर मुस्कुराये भी होंगे, जब आपने पहली बार अपने सिंगल स्टेटस को इन अ रिलेशनशिप में तब्दील किया था। 

सबसे खूबसूरत बात ये कि सोशल मीडिया पर मौजूद हर शख्स ने अपनी ज़िन्दगी का एक म्यूजियम बना लिया है। कुछ इससे रु ब रु हैं तो कुछ बेखबर। कई रिश्तों को बीते दौर के खतों की तरह सहेज रहे हैं तो कुछ में होड़ है रिश्तों को आंकड़ों में ढालने की। और मैं, आवारा पथिक की तरह इसकी हर गली, हर मोहल्ले और चौराहे पर लगी नुक्कड़ बैठक को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। अंग्रेजी में शायद हम जैसों के लिए एक शब्द बना है। ऑब्जर्वर। बड़ा ही सोफेस्टिकेटेड है न! 

Saturday, April 6, 2013

शून्य

गूगल से साभार 

शून्य यानी 
एक नयी श्रृष्टि 
नया जन्म 
नया जीवन
निराशा का अंत 
उद्भव आशा का 
फिर से, 
जैस पतझड़ का अंत 

शून्य यानी 
गोधूलि
ब्रम्ह्बेला 
जब कोई नहीं 
सिर्फ प्रकृति है 
चारों ओर अनंत  
मंडराते अदृश्य 
जैसे तूफानों का अंत 

शून्य यानी 
समाप्ति की ओर 
एक विकल्प 
और जन्मी नयी   
विकल्प की भोर 
घोर अंधकार पर 
जैसे छिड़क दिए 
परम शक्ति ने 
अपने आदि रूप के 
खूबसूरत रंग अनंत

Friday, April 5, 2013

जीवन : बातों की गठरी

फोटो गूगल से साभार 


जीवन बढ़ा था मेरी ओर 
मैंने देखा था उसे आते हुए 
या वह भी था एक ख्वाब का अबूझ सा सिरा 
नहीं हो सकी हमारी मुलाक़ात 
शायद भांप लिए थे उसने मेरे जज़्बात 
टटोल ली थी वो नब्ज़ 
जो गले की अँधेरी कोठरी से निकलने को बेताब थी 
या नाप ली थी 
मेरे खोखले सुनसान मन की गहराई 
और उसमें पड़े 
वो सवालों के ढेर देख लिए थे 
लेकिन यकीं है 
जीवन महज मृग मरीचिका भर नहीं 
कुछ और जिन्दा लाशों की 
आवाज़ सुनी होगी शायद 
और मुड़  गए होगे तुम उनकी ओर 
उनके सूखे दरख़्त से 
बदन में जान रोपने को 
मुझसे भी मिलोगे किसी दिन 
किसी ठहरी सी घडी के 
एक एकांत मोड़ पर
बातों की गठरी खुलने लगी है  
कुछ तुम ले जाना, 
कुछ मैं फिर से समेट लूँगा...  

Wednesday, March 6, 2013

देर आयद दुरुस्त आयद- फेसबुक तुस्सी ग्रेट हो!

फोटो गूगल से साभार


मन शांत और विचार सधे से लग रहे हैं। इसलिए, मेरा नया साल आज है। हर साल की तरह इस साल की पहली रपट पेश कर रहा हूँ। 

खास बात ये है कि हर बार की तरह इस बार भी ये सोचने की जरुरत नहीं पड़ी कि  विषय क्या हो। विषय मेरे साथ-सामने है। गूगल क्रोम ब्राउजर के दूसरे टैब में। फेसबुक। 

कई लोगों के लिए यह बीमारी, लत या विकार होगा, पर मेरे लिए ये दुनिया का प्रतिबिम्ब है। दुनिया, जीवन और समाज के हर पहलू का एक समाजशास्त्र है और ये फेसबुक उसका शॉर्ट हैंड-शॉर्ट कट। पिछले करीब दो साल से इसका खूब दोहन किया है। लेकिन, कहीं कोई जिक्र नहीं। सोच कर ही ''खर्राब'' लग रहा है। ये तो सरासर नाइंसाफी है। खैर, कहते हैं न… देर आयद दुरुस्त आयद।   

दरअसल, मैंने हमेशा से माना है कि मेरे अधकचरे बौद्धिक-सामाजिक विकास में फेसबुक का अहम् योगदान रहा है। कई बेहतरीन, ख़राब, सहिष्णु, कट्टर, मूर्ख और विद्वान लोगों से मुलाक़ात हुई है यहाँ। समय भी ख़राब हुआ है। लेकिन, देश-दीन-दुनिया के बारे में काफी समझ भी बढ़ी है। अगर कुछ खास उपलब्धियों की बात करूँ तो राहुल पंडिता, सुरभि गोयल, नीलेश मिश्रा, रवीश कुमार, उदय प्रकाश, विनीत, मिहिर, रंगनाथ, स्नेह और संजय श्रीवास्तव जैसे कई मिली-जुली प्रतिभाओं वाले लोगों से बात-मुलाक़ात हुई। कुछ के साथ प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से काम करने का मौका भी मिला। इनके जो चेहरे पहले देखे, बाद में उसके रंग भी देखने को मिले। 

चेहरों के इतर, दिल्ली की तंग गलियों में रहते हुए अविनाश के अच्छे-बुरे मोहल्ले में भी आना जाना लगा रहा। शिव कुमार बटालवी और सुशीला रमन के संगीत से भी फेसबुक ने ही मिलाया। शोभा गुर्तु और सोना महापात्र से भी। कई किताबें सिर्फ इसकी वजह से ही पढने का मन बना। ओपन और तहलका को नियमित रूप से पढने का सिलसिला या शौक भी इसकी ही मेहरबानी है। कई स्तम्भ ऐसे हैं, जिनका बेसब्री से इंतज़ार रहता है। 

फेसबुक का सबसे बड़ा फायदा क्या रहा? ये कहना तो थोडा मुश्किल है, लेकिन सच कहूँ तो एक नौकरी मिली वो भी ऐसे वक़्त में जब भयंकर गर्मी थी और दूर-दूर तक महज मृग मरीचिका नज़र आ रही थी। जी हाँ, नौकरी वाकई बड़ी चीज़ है। ये न हो, तो कोई ज्ञान पसंद नहीं आता। न ही कोई संगीत। इसलिए, शुक्रिया फेसबुक। 

वैचारिक तौर पर इसने हमेशा मुझे चुनौती दी है। मैं खुद को खुशनसीब समझता हूँ कि ऐसा हुआ। हालाँकि, मेरे एक दोस्त-शुभचिंतक अक्सर कहते हैं कि तुम दोगली बात करते हो। मैं कहता हूँ, आखिर क्यूँ न करूँ? अगर मुझे नयी सोच मिलती है और वो मेरी सोच से बेहतर है तो मैं क्यूँ न उसका समर्थन करूँ। और, सच कहूँ तो इस किताब में विचारों, विश्लेषणों और नजरियों का जखीरा है। आप जितना पढ़ते हैं, उतना ही आपकी सोच, आपके विचार परिष्कृत होते हैं। 

जाहिर तौर पर यहाँ सब अच्छा नहीं है, घटिया बातें भी मजे से होती हैं। घटिया सोच और मकसद के साथ। वो सब भी पढ़ा, देखा और सुना है। ये जरुरी था, है और रहेगा। फरक करने की क्षमता शायद इसी से विकसित होती है। और संतुलन भी तो जरूरी  है। परफेक्शन न संभव है न ही जरूरी। 

क्यूंकि इसके साथ मीडिया शब्द जुड़ चुका है तो इसका चरित्र भी बदला है। सनसनी है और संवेदना भी और इसकी अतिशयोक्ति भी है। लेकिन, जानकारियां भी बहुत हैं। कुछ नया मिल ही जाता है हर कुछ दिन पर। आज ही ऐसा कुछ हुआ जिसने मुझे झकझोर दिया। तहलका में ''संघ का मुस्लिम प्रेम'' शीर्षक से प्रकाशित एक लेख ने बता दिया कि मुझे संघ के बारे में बहुत कुछ नहीं पता, जबकि मैं संघ से लम्बे समय से जुड़ा रहा हूँ। खैर, पढने के बाद कई सवाल मन में हैं। 

जल्द ही पूछता हूँ, अगली रपट में... 
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