(फोटो गूगल से साभार)
मैं अकेला चला था जानिबे मंजिल
लोग न मिले, काफिला न बना
एक मोड़ पर लेकिन
वो मिल गए
मैं उनके संग और
वो मेरे संग हो लिए
और हम चल दिए
जानिबे मंजिल
राह में एक दोराहा आया
वो घर को चल दिए
मैं फिर अकेला चला
जानिबे मंजिल
राह में एक शहर आया
अन्ना संग हजारों मिल गए
मैं उनके संग हो लिया
और उनकी मंजिल
तक पहुंचकर फिर
तक पहुंचकर फिर
मैं अकेला चला जानिबे मंजिल
कई शहरों, कई कस्बों से गुज़रा
कई हुस्नों, कई जिंदगियों से गुज़रा
विदर्भ की भूख,
किसानों की बेबसी देखी
फटी साड़ियाँ, उधड़े बदन देखे
फरेब की रौशनी
जगमगाते शहर देखे
उजड़ते गाँव,
घिसटते पांव देखे
जात, पात और धर्म
पर खेले जा रहे
बेतहाशा दांव देखे...
और एक दिन
नज़र के सामने मंजिल और
नज़र में था वो मंज़र
जो सफ़र ने मुझे
तोहफे में दिया था
शायद मंजिल तक
पहुँच कर लौट आने को
पर मैं बढ़ा मंजिल को
बगल की एक संकरी गली से
खुद एक मंजिल बनाने को...
मैं अकेला चला था जानिबे मंजिल
मैं अकेला चला था जानिबे मंजिल...
8 comments:
शायद पहली बार आना हुआ यहाँ....कविता का मूल भाव सच के बहुत करीब.... हम सब ज़िन्दगी के इस सफ़र मे अकेले चल रहे हैं..
चलिए गांधी के भारत का पुनर्दर्शन हो गया :)
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 19 - 04 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
संगीता जी, इस अदना से लेखक को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए आभार.
शुक्रिया.
Kammal ki prastuti, bandhu!
bahut bahut badhai kabule!
सुंदर प्रस्तुति ।
सच के काफ़ी करीब ले जाती रचना ....
निखिल श्रीवास्तव जी सुन्दर रचना -हमारे पिछड़ेपन भूख गरीबी का सटीक चित्रण -धन्यवाद आप का
शुक्ल भ्रमर ५
विदर्भ की भूख,
किसानों की बेबसी देखी
फटी साड़ियाँ, उधड़े बदन देखे
फरेब की रौशनी
जगमगाते शहर देखे
उजड़ते गाँव,
घिसटते पांव देखे
जात, पात और धर्म
पर खेले जा रहे
बेतहाशा दांव देखे...
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