Friday, April 8, 2011

लोकतंत्र में ईमानदारी का मानक क्या है? (सवालों का ढेर)

फोटो: गूगल से साभार.



सोशल नेटवर्किंग पर अन्ना हजारे के अभियान को हजारों लोग अंधाधुंध समर्थन दे रहे हैं तो कई लोग अरविन्द केजरीवाल द्वारा ड्राफ्ट किये गए बिल को ध्यान से पढ़ रहे हैं और उसपर अपना विचार दे रहे हैं जो फिलहाल उनका संशय है. इस बिल के एक बिंदु ( मैग्सेसे पुरस्कार विजेताओं को लोकपाल की चयन समिति में रखा जाये) से उनकी सहमति नहीं है. इसके अलावा अन्ना लगातार सोशल सोसाइटी के लोगों को अहम भूमिका में रखे जाने पर बल दे रहे हैं. इस पर भी असहमति है. चलिए मान लिया कि बिंदु असहमति के योग्य हैं भी, लेकिन जहाँ तक मेरी जानकारी है इसमें ये भी प्रावधान है कि अगर किसी को लगता है कि समिति का कोई भी सदस्य भ्रष्ट है तो जांच के बाद हटा दिया जायेगा. फिर भी, आपके पास इसका कोई तो विकल्प होगा. इस एक सम्भावना के इर्द गिर्द कई सवाल हैं. जितना सोचिये, उतना ही उलझते चले जाते हैं. खैर, फौरी सवाल तो ये हैं कि क्या बाबा हजारे ने किसी व्यक्तिगत फायदे के लिए उस बिंदु को जोड़ा और उसपर बल दिया और लगातार दे रहे हैं? या उन्हें उसके अलावा कोई और विकल्प विश्वसनीय लगा ही नहीं? क्या मैग्सेसे पुरस्कार विजेता होना ये सर्टिफिकेट है कि वो बहुत ईमानदार हैं?



सिविल सोसाइटी को कई परिभाषाएं दी जा रही हैं, विकिपीडिया से लेकर लाइब्रेरी की धूल जमी शेल्फ साफ़ करके इसके तमाम अर्थ, पर्यायवाची, इसका इतिहास और निहितार्थ खोजे जा रहे हैं, और लोग अन्ना हजारे की मुहिम के सिविल सोसाइटी वाले हिस्से पर सवाल पर सवाल दागे जा रहे हैं. उनके सवाल वाजिब हैं. कोई लोकतंत्र से ऊपर नहीं है और न किसी को ऊपर होने का अधिकार है लेकिन कोई ये भी बताये कि इसका विकल्प क्या है? क्या गारंटी है कि संवैधानिक व्यवस्था जिन लोगों के हाथ में तमाम अधिकार सौंपती आई है, वो दूध के धुले होंगे. नौकरशाह या नेता (जिनका चुनाव एक व्यवस्था के तहत होता है), कौन आपकी कसौटी पर खरा है? कौन है जिसकी एक विचारधारा नहीं है, राईट, लेफ्ट या सेंटर कोई भी? कौन धार्मिक नहीं है? कौन अपने नाम के आगे जातिसूचक शब्द नहीं लगाता है? और जो ऐसे हैं क्या वो सभी नौकरशाही में या नेतागिरी में हैं? हैं भी तो कितने हैं? और आपके मुताबिक किसी का गैर जातीय, गैर धार्मिक होने का प्रमाण क्या है? और कौन देता है किसी को ऐसा प्रमाण? लोकतंत्र में सब अपनी ढपली अपना राग अलापने का आनंद उठाते हैं. हम सब भी उठा रहे हैं, लेकिन परिणाम क्या होगा? हम कैसा बदलाव देखेंगे?



ये वही अन्ना हैं जिन्होंने, उमा भारती को भगाया, चौटाला को भगाया, पवार को गरियाया. संघियों को भगाया लेकिन जो लोग उनके अभियान का हिस्सा बन रहे हैं क्या वो सबको व्यक्तिगत रूप से जानते हैं? ह्वाईट कॉलर, ब्लैक कोट, नाईट पार्टीज़ में पीकर धुत होने वाले लोग अन्ना के नाम की टोपी पहनकर अपने अपने शहर के जंतर मंतर पहुँच रहे हैं. उन्हें फिक्र है कि धुप उनकी आँख पर असर ना डाल दे, इसलिए गुची और अरमानी का चश्मा पहनना नहीं भूलते. क्या ये सभी ईमानदारी के पुतले हैं? और मेरी तरह जो लोग लगातार इस अभियान पर कमेंट्री कर रहे हैं, वो? मीडिया वाले? एनजीओ वाले? सब चौबीस कैरेट ईमानदार हैं? तो भरोसा किस पर करेंगे आप? पिछले दिनों अविनाश दास जी मुझसे बोले, अगर इतना संशय किया जाता तो देश आजाद ही नहीं हो पाता और आज सुबह उन्ही के मोहल्ला लाइव पर दिलीप मंडल जी का लेख पढ़ा. वो भी संशय ही कर रहे हैं. मैं उनकी बात नहीं दोहराऊंगा लेकिन ये जरूर कहूँगा कि इन सब सवालों के बारे में भी सोचिये. अगर जवाब मिल जाये तो चंद सवालों के जवाब और दीजिये...जिस लोकतंत्र की हम सब ढपली बजा रहे हैं उसमें ईमानदारी का मानक क्या है? किसे मिलता है उसका सर्टिफिकेट? नौकरशाह माने ईमानदार या नेता माने ईमानदार सिर्फ इसीलिए क्यूंकि उसे एक व्यवस्था ने चुना है? इस देश में जेएम लिंगदोह, अरविन्द केजरीवाल, प्रशांत भूषण, बाबा अन्ना और जस्टिस जेएस वर्मा ईमानदार नहीं हैं तो कौन है? जस्टिस संतोष हेगड़े पर तो कई सवाल पहले ही लग चुके हैं. ईमानदार आप हैं, मैं भी हूँ पर हमारा क्या लोकतान्त्रिक आधार है, हमारे पास कौन सा सर्टिफिकेट है जो हम बन जायें समिति का हिस्सा या फॉर दैट मैटर भ्रष्टाचार के खिलाफ चिल्लाने और कमेंट्री करने के लिए? सोचिये. मुझे भी सोचने पर मजबूर कर दिया है आपने.



इन सवालों से इतर सिर्फ इतनी सी बात कहने की गुस्ताखी करना चाहता हूँ कि हमारे वाजिब सवाल, सही सोच, सटीक सच कई बार दुष्परिणाम के रूप में भी सामने आते हैं. मेरा मानना है कि ये मुहीम एक बड़े राजनीतिक और काफी हद तक सामाजिक बदलाव की और बढ़ रही है. जरुरत है कुछ दिनों तक पॉजिटिव पोल पर बने रहने की.


(जिस बात की दुहाई लोग दे रहे हैं कि जनता ने जिन्हें चुना है उन्हें ही अधिकार होने चाहिए, सिविल सोसाइटी का कोई लोकतान्त्रिक आधार नहीं, इस पर आम आदमी तो यही सोचेगा कि ये लोग वोट न डालो तो भी गरियाते हैं कि वोट नहीं डालते और डालो तो कह देते हैं कि आपने ही वोट दिया था. अब तो सारे गलत सही काम वो करेगा और डंके की चोट पर करेगा. तुम कुछ नहीं कर सकते. अब पांच साल इंतज़ार करो. किस्मत सही हुई तो ठीक नहीं तो झेलते रहो. फिर वो भी यही सोचेगा कि हम कहें परेशान हों यार, बाबा लड़ें अकेले, कुछ नहीं होना. हम भी पानी के साथ बहें तो बेहतर. ::::::कमेंट्री से अलग एक आम फेसबुकिये और ब्लॉगर

की नज़र से ::::::)

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