दौड़ते-भागते, कहते-सुनते, रोते-गाते, हँसते-हँसाते और पढ़ते-पढ़ाते एक साल फिर गुज़र गया। ज़िन्दगी का एक और अनमोल साल। पूरे तीन सौ पैंसठ दिन बीते, लग रहा है जैसे अभी कुछ दिन पहले ही पिछले साल का पहला पोस्ट लिखा था। आज भी उस दिन लिखी एक एक बात याद है। सच बताऊँ तो इतने दिनों का हिसाब यूँ नहीं रहा क्यूंकि, बीते साल मैं बहुत भगा। यहाँ से वहां, वहां से यहाँ और न जाने कहाँ-कहाँ। साल भर भागता रहा। हर बार दौड़ शुरू करने से पहले एक उम्मीद पाल लेता था। फिर मायूस लौटता और लड़ने की ठानता, फिर भागता और फिर लौट आता। अगस्त में जाकर मेरी दौड़ भाग को रहत मिली। मुझे लगा शायद साल भर की मेहनत का सबब मिल ही गया। बहुत खुश हुआ। सबको ख़ुशी में शामिल भी किया, लेकिन न जाने किस्मत को क्या मंजूर था, शायद कहीं कुछ कमी रह गई। हालत बदले और मैं फिर वापस भागा। इस बार कभी न भागने के लिए। फिर छोटी राहों पर भागने का मन बनाया। भागा भी, चला भी लेकिन दिल को तसल्ली देने में नाकामयाब रहा। फिर लम्बी दौड़ के लिए खुद को तैयार किया। अपने बिखरे मन को जोड़ा और फिर भागना शुरू किया। साल खत्म होते-होते दौड़ सफल होती नज़र आई...इस साल पर पिछले साल का काफी कुछ उधार है। इसे चुकाना तो पड़ेगा ही। यही उम्मीद है, और मैं हमेशा की तरह अपने यकीन और निर्णय पर कायम हूँ।
सपने एक साल बड़े हो चुके हैं। अब उन्हें ज्यादा भूख लगती है। लेकिन सोता कम हूँ, तो दिन में भी उनको खुराक देता रहता हूँ। खुली आँखों से सपने देखना शायद इसे ही कहते होंगे। सपनों की बात से याद आया की पिछले साल की सबसे बड़ी उपलब्धि भी यही रही कि मैंने साल भर खूब सपने देखे और खास बात ये कि उनपर जमकर काम भी किया। मेरे सपनों ने यहाँ से विदेश तक उड़ान भरी। देश के बड़े बड़े लोगों ने सपनों की तस्वीर को सराहा। मेरा और सपनों का मनोबल बढ़ा। इस बीच एक सपने का दुखांत भी हुआ। एक चार साल के युवा सपने की पिछले महीने मौत हो गई। दर्दनाक हादसे में। मैं भी बुरी तरह जख्मी हुआ और उसे बचाने की लाख कोशिशें कीं लेकिन उसे वो दावा न दे सका जो उसे बचा सकती थी। खैर, कब तक शोक मनाता, सपने भी बड़े हो चले थे तो उन्हें समझा बुझाकर आगे बढ़ने को कह दिया। वो मायूस हुए, लेकिन आगे बढ़ रहें हैं मेरे साथ। हमेशा की तरह।
इस साल ''क्या पाया-क्या खोया'' और ''लेखा जोखा'' पर काम भी नहीं किया। बीते साल का काफी हिसाब किताब तो धुंधला पड़ गया है लेकिन कई हिसाब शायद ताउम्र याद रहेंगे। कितना भी खारोचूं उन अधूरे हिसाबों को, मिटने का नाम ही नहीं लेते, बल्कि वो एक जख्म की तरह और ही गहरे हो जाते हैं। शायद वो न मिटने वाले हिसाब ही थे, जो मुझे ज़िन्दगी भर जोड़-घटाना सिखाएँगे। ज़िन्दगी से इतनी शिकायतें हैं कि उसपे एक ग्रन्थ लिख उठेगा सो उसपर बात मैं करता नहीं। सोचता हूँ, खुशियाँ भी यही ज़िन्दगी देगी। हालाँकि आज ये टुकड़ों में मिल रही है, कल हो सकता है पैकेज में मिले। इसलिए फुल एंड फ़ाइनल लेखा जोखा अपनी किताब में ही किया जाएगा।
अब बात पत्रकारिता की, मेरे पास कहने को बहुत कुछ है लेकिन अपने पिछले साल के अनुभव के आधार पर यही कहूँगा कि पत्रकारिता बहुत ही गन्दी हो चुकी है। कोई ही सुथरा पत्रकार बचा है। २०१० में पत्रकारिता के कई दलालों से मैं खुद मिला। बड़े शौक से, बड़े गर्व से अपनी दल्लागिरी सुनाते हैं सब, मन तो करता था कि जूता उतार कर चेहरे का नक्शा बदल दूँ लेकिन....खैर, एक से एक गंदे और घटिया लोगों से पटा हुआ है सो कॉल्ड पत्रकारिता जगत। क्या संपादक और क्या रिपोर्टर। सब जमात एक ही है। जो अच्छे पत्रकार हैं तो वो बहुत ही बेबस हैं। सब किताब लिखने में बिजी हैं। सच पूछिए तो उनके अकेले के बस में किताब लिखने के अलावा कुछ है भी नहीं। उनकी कमजोरी और बेबसी का आलम ये है कि बेचारे न बोल सकते हैं, न सुन सकते हैं। कुछ लोग इसे मेरा फ्रस्ट्रेशन कह सकते हैं, लेकिन वो अपने गिरेबान में भी झांक सकते हैं। कुल मिलकर, अपने अनुज पत्रकारों से मैं यही कहने के लिए बाध्य हूँ कि खूब ज्ञान अर्जित करो, खूब अच्छा लिखो, नयी शैलियाँ इजाद करो, दिन रात मेहनत करने का माद्दा जुटाओ और अगर फिर भी पत्रकार न बन पाओ तो अच्छा चाटुकार बन पत्रकार बन जाओ।
नए साल में काफी कुछ करना है। कई नए आयाम तलाशे हैं काम के। उन पर खासा कर चुका हूँ। कई लोगों से मिला हूँ। सीखा है। केंद्रीय मंत्रियों से लेकर व्यापारियों से भी मिला। और अब जमीन से बदलाव करने की तयारी है। क्या पता ये कोशिश कामयाब हो ही जाये।
पोस्ट खत्म करते-करते एक बात और, अक्सर लोग पूछते हैं कि आजकल ब्लॉग पर सरोकारों की बात नजर नहीं आती? सबको बता दूँ कि सामाजिक सरोकारों की बात करनी बंद कर दी है। ब्लॉग इसका जीता जागता सबूत है। वजह ये है की बातें बहुत होती है, जरुरत कुछ काम होने की है। मैं काम करने की कोशिश कर रहा हूँ। लिखकर मैं भी सो कॉल्ड बौद्धिक नहीं बनना चाहता। जो भी कर रहा हूँ, पूरी ईमानदारी और निष्ठां के साथ कर रहा हूँ। बीते साल पत्रकारिता की दो दो अच्छी नौकरियां छोड़ने का तनिक भी गम नहीं है। ऐसी कीचड़ पत्रकारिता करने से अच्छा है मैं बेरोजगार रहूँ, जो मैं हूँ नहीं। मन था कि रेजोलयूशन जैसी बकवास बातें नहीं करूँगा फिर भी इस साल से एक ही वादा है कि कुछ अलग करूँगा। आम आदमी के लिए कुछ अच्छा करूँगा। विकास के पथ पर मैं भी एक मील का पत्थर रखूँगा...
सपने एक साल बड़े हो चुके हैं। अब उन्हें ज्यादा भूख लगती है। लेकिन सोता कम हूँ, तो दिन में भी उनको खुराक देता रहता हूँ। खुली आँखों से सपने देखना शायद इसे ही कहते होंगे। सपनों की बात से याद आया की पिछले साल की सबसे बड़ी उपलब्धि भी यही रही कि मैंने साल भर खूब सपने देखे और खास बात ये कि उनपर जमकर काम भी किया। मेरे सपनों ने यहाँ से विदेश तक उड़ान भरी। देश के बड़े बड़े लोगों ने सपनों की तस्वीर को सराहा। मेरा और सपनों का मनोबल बढ़ा। इस बीच एक सपने का दुखांत भी हुआ। एक चार साल के युवा सपने की पिछले महीने मौत हो गई। दर्दनाक हादसे में। मैं भी बुरी तरह जख्मी हुआ और उसे बचाने की लाख कोशिशें कीं लेकिन उसे वो दावा न दे सका जो उसे बचा सकती थी। खैर, कब तक शोक मनाता, सपने भी बड़े हो चले थे तो उन्हें समझा बुझाकर आगे बढ़ने को कह दिया। वो मायूस हुए, लेकिन आगे बढ़ रहें हैं मेरे साथ। हमेशा की तरह।
इस साल ''क्या पाया-क्या खोया'' और ''लेखा जोखा'' पर काम भी नहीं किया। बीते साल का काफी हिसाब किताब तो धुंधला पड़ गया है लेकिन कई हिसाब शायद ताउम्र याद रहेंगे। कितना भी खारोचूं उन अधूरे हिसाबों को, मिटने का नाम ही नहीं लेते, बल्कि वो एक जख्म की तरह और ही गहरे हो जाते हैं। शायद वो न मिटने वाले हिसाब ही थे, जो मुझे ज़िन्दगी भर जोड़-घटाना सिखाएँगे। ज़िन्दगी से इतनी शिकायतें हैं कि उसपे एक ग्रन्थ लिख उठेगा सो उसपर बात मैं करता नहीं। सोचता हूँ, खुशियाँ भी यही ज़िन्दगी देगी। हालाँकि आज ये टुकड़ों में मिल रही है, कल हो सकता है पैकेज में मिले। इसलिए फुल एंड फ़ाइनल लेखा जोखा अपनी किताब में ही किया जाएगा।
अब बात पत्रकारिता की, मेरे पास कहने को बहुत कुछ है लेकिन अपने पिछले साल के अनुभव के आधार पर यही कहूँगा कि पत्रकारिता बहुत ही गन्दी हो चुकी है। कोई ही सुथरा पत्रकार बचा है। २०१० में पत्रकारिता के कई दलालों से मैं खुद मिला। बड़े शौक से, बड़े गर्व से अपनी दल्लागिरी सुनाते हैं सब, मन तो करता था कि जूता उतार कर चेहरे का नक्शा बदल दूँ लेकिन....खैर, एक से एक गंदे और घटिया लोगों से पटा हुआ है सो कॉल्ड पत्रकारिता जगत। क्या संपादक और क्या रिपोर्टर। सब जमात एक ही है। जो अच्छे पत्रकार हैं तो वो बहुत ही बेबस हैं। सब किताब लिखने में बिजी हैं। सच पूछिए तो उनके अकेले के बस में किताब लिखने के अलावा कुछ है भी नहीं। उनकी कमजोरी और बेबसी का आलम ये है कि बेचारे न बोल सकते हैं, न सुन सकते हैं। कुछ लोग इसे मेरा फ्रस्ट्रेशन कह सकते हैं, लेकिन वो अपने गिरेबान में भी झांक सकते हैं। कुल मिलकर, अपने अनुज पत्रकारों से मैं यही कहने के लिए बाध्य हूँ कि खूब ज्ञान अर्जित करो, खूब अच्छा लिखो, नयी शैलियाँ इजाद करो, दिन रात मेहनत करने का माद्दा जुटाओ और अगर फिर भी पत्रकार न बन पाओ तो अच्छा चाटुकार बन पत्रकार बन जाओ।
नए साल में काफी कुछ करना है। कई नए आयाम तलाशे हैं काम के। उन पर खासा कर चुका हूँ। कई लोगों से मिला हूँ। सीखा है। केंद्रीय मंत्रियों से लेकर व्यापारियों से भी मिला। और अब जमीन से बदलाव करने की तयारी है। क्या पता ये कोशिश कामयाब हो ही जाये।
पोस्ट खत्म करते-करते एक बात और, अक्सर लोग पूछते हैं कि आजकल ब्लॉग पर सरोकारों की बात नजर नहीं आती? सबको बता दूँ कि सामाजिक सरोकारों की बात करनी बंद कर दी है। ब्लॉग इसका जीता जागता सबूत है। वजह ये है की बातें बहुत होती है, जरुरत कुछ काम होने की है। मैं काम करने की कोशिश कर रहा हूँ। लिखकर मैं भी सो कॉल्ड बौद्धिक नहीं बनना चाहता। जो भी कर रहा हूँ, पूरी ईमानदारी और निष्ठां के साथ कर रहा हूँ। बीते साल पत्रकारिता की दो दो अच्छी नौकरियां छोड़ने का तनिक भी गम नहीं है। ऐसी कीचड़ पत्रकारिता करने से अच्छा है मैं बेरोजगार रहूँ, जो मैं हूँ नहीं। मन था कि रेजोलयूशन जैसी बकवास बातें नहीं करूँगा फिर भी इस साल से एक ही वादा है कि कुछ अलग करूँगा। आम आदमी के लिए कुछ अच्छा करूँगा। विकास के पथ पर मैं भी एक मील का पत्थर रखूँगा...
3 comments:
हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं.
शुभकामनाएं
to naye saal mein bahut si plannings hain aapki ... ishwar aapke har sapne ko sakaar kare aur jo sapne toot gaye hain .. unhein peechhe chod aap aur khoobsurat sapna bune aur kaamyaabi hasil karein ... meri shubhkaanaen :)
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