खो गया था दुनिया के झंझावातों में आइना देखता हूँ, पर खुद की तलाश है, मुसाफिर हूँ. ये अनकही खुली किताब है मेरी... हर पल नया सीखने की चाहत में मुसाफिर हूँ.. जिंदगी का रहस्य जानकर कुछ कहने की खातिर अनंत राह पर चला मैं मुसाफिर हूँ... राह में जो कुछ मिला उसे समेटता मुसाफिर हूँ... ग़मों को सहेजता, खुशियों को बांटता आवारा, अल्हड़, दीवाना, पागल सा मुसाफिर हूँ... खुशियों को अपना बनाने को बेक़रार इक मुसाफिर हूँ... उस ईश्वर, अल्लाह, मसीहा को खोजता मैं मुसाफिर हूँ...
Tuesday, October 20, 2009
वो अजीब एहसास
रात के दो बज रहे थे शायद, ऑफिस से वापस लौट रहा था, इस वक्त इंदिरा नगर के लिए जल्दी ऑटो नहीं मिलते इसलिए बादशाह नगर तक एक साथी के साथ आया और वहां ऑटो का वेट करने लगा। काफी देर इंतज़ार करने के बाद आखिरकार मुझे अगली सीट पर बैठना पड़ा। मैं यहाँ बैठने से बचता हूँ क्योंकि यहाँ बैठना खतरे से खली नहीं होता और दूसरा मीटर पीठ में काफी चुभता है। खैर, मैं बैठ गया। लेखराज से इंदिरा नगर के लिए ऑटो मुड़ा ही था कि एक बुजुर्ग किसी तरह सड़क पार करके आए और ऑटो वाले से बोले बैठा लो, जगह पहले ही नहीं थी। मुझसे उनकी हालत देखी नहीं गई और मैं ड्राईवर के दूसरी ओर बैठ गया। शायद उतनी जगह में एक पैर डालना भी मुश्किल था पर उनकी हालत देखकर उन्हें सड़क पर किसी दूसरी ऑटो का इंतज़ार करने के लिए छोड़ने के एहसास से तो बेहतर था मैं किसी तरह उसमें दुपक के बैठता। उसके बाद जब तक घर के पास नहीं पहुँच गया मैं यही सोचता रह गया की मैंने कोई परोपकार किया है या ये हमारी ड्यूटी होनी चाहिए। दरअसल जब हम स्कूल में थे तो रोज डायरी में लिखना होता था कि आज क्या परोपकार किया और हम ऐसे काम करने कि तलाश में रहते थे॥ अचानक वो मोड़ आ गई जहाँ मुझे उतरना था और मैंने उनको देखा और ऑटो वाले को पैसे देकर मुड़ गया। एक अजीब सा संतोष था। शायद कुछ असली किया था इसलिए। वैसे तो ज़िन्दगी ही दिखावा लगने लगी है...ऐसे लम्हे हमें इंसान होने का अहसास कराते हैं...ड्यूटी हो या उपकार..क्या फर्क पड़ता है। और मैं चैन की नींद सोया..
Thursday, October 8, 2009
फ़िर याद आ गया वो बचपन
कभी चिल्लाते थे, कभी गुनगुनाते थे
बचपन के आसमां पर, तारों से झिलमिलाते थे
गिरते थे, उठते थे और झट से मुस्कराते थे
भैया की आंखों से अपने आंसू छिपाते थे
पापा की पॉकेट से पैसे चुराते थे
मम्मी को चुपके से जाकर बताते थे
एक के सिक्के को हफ्तों चलाते थे
खो जाता था तो आंसू बहाते थे
छोटे को सताते थे, भूत से डराते थे
फ़िर, मम्मी की गोदी में ख़ुद सो जाते थे
हर रात परियों से मिलने हम जाते थे
उठकर सुबह बड़े से टब में नहाते थे
बारिश में जब हम कश्ती बनाते थे
मोहल्ले भर में नाव चलाते थे
आज याद आ गया वो बचपन
मास्टर जी के आने से पहले हम जब
रोज सोने का बहाना बनाते थे
आज फ़िर याद आ गया वो बचपन
जब हम जो थे वो ही नज़र आते थे ....
बचपन के आसमां पर, तारों से झिलमिलाते थे
गिरते थे, उठते थे और झट से मुस्कराते थे
भैया की आंखों से अपने आंसू छिपाते थे
पापा की पॉकेट से पैसे चुराते थे
मम्मी को चुपके से जाकर बताते थे
एक के सिक्के को हफ्तों चलाते थे
खो जाता था तो आंसू बहाते थे
छोटे को सताते थे, भूत से डराते थे
फ़िर, मम्मी की गोदी में ख़ुद सो जाते थे
हर रात परियों से मिलने हम जाते थे
उठकर सुबह बड़े से टब में नहाते थे
बारिश में जब हम कश्ती बनाते थे
मोहल्ले भर में नाव चलाते थे
आज याद आ गया वो बचपन
मास्टर जी के आने से पहले हम जब
रोज सोने का बहाना बनाते थे
आज फ़िर याद आ गया वो बचपन
जब हम जो थे वो ही नज़र आते थे ....
Friday, October 2, 2009
मजबूरी का नाम गाँधी
गाँधी जयंती है आज, हर अखबार और टेलिविज़न चैनल अपने तरीके से बापू की जिंदगी में झाँक रहा है। किसी ने युवाओं से जोड़ा है तो कोई उनकी उपलब्धियों का बखान कर रहा है। दोनों ही तरीके सही हैं। तर्कसंगत भी। शायद प्रासंगिक नहीं। मुझे तो कम से कम ऐसा लगता है। आख़िर हम साठ साल से भी ज्यादा समय से कुछ ऐसी बातें उनकी हर जयंती पर करते आए हैं। यही सोच कर मैंने अपने दफ्तर में गुजारिश की कि क्यों न इस बार किसी और पहलु पर बात कि जाए। मेरे दिमाग में बचपन से एक बात भरी थी...मजबूरी का नाम गाँधी। किसने, कब और कैसे भरी ये बात मेरे दिमाग में, मुझे नहीं पता, मैं जानना भी नहीं चाहता पर हाँ ये जरुर जानना चाहता हूँ कि आख़िर ये बात बनी कैसे। मेरे जैसे कितने ही युवाओं ने इस बात को सैकड़ों बार दोहराया होगा पर शायद ही किसी ने सोचने कि कोशिश कि हो कि आख़िर ऐसा क्यूँ है। मैंने सोचा कि इस पर एक स्टोरी होनी चाहिए। बॉस को पसंद भी आया। स्टोरी में क्या लिखा जाएगा, इस पर बात हो गई। कल मेरा वीकली ऑफ़ था सो मैंने घर पर था। आज सुबह का बेसब्री से इंतजार था कि हम आज कुछ अलग करेंगे, पर अखबार देखा तो मूड ख़राब हो गया। याद आए बापू शीर्षक लगा था पहले पन्ने पर, अन्दर के पन्ने खोलकर पढने का मन ही नहीं किया। हम जरा भी अलग नही करना चाहते हैं । जब उसके बारे में कुछ अलग लिखने से डरते हैं तो जिंदगी में उनके जैसा काम क्या ख़ाक करेंगे. सबसे बातें बुनवा लीजिये, आसमान बुन देंगे. पर ढेला भर काम नहीं किया जाता. ये पूरे समाज की समस्या है. कोई आगे नहीं आना चाहता, खासकर किसी ऐसे काम के लिए जिससे कोई भलाई हो सके. सबको पैसा भरना है बस. जहाँ पैसा मिलेगा वहां नंगे नाचने को भी तैयार हो जायेंगे.
दरअसल कोई गाँधी को जानना नहीं चाहता, बस उन्हें गरिया कर सबका मन भर जाता है। सब सुनी सुने बातों पर यकीं कर लेते हैं। कभी ये सोचने की कोशिश नहीं की जाती कि आख़िर कब तक हम यूँ ही सिर्फ़ कही सुनी बातों को अपनी अगली पीढी को देते रहेंगे। हमारे पास एक अच्छा मौका था, हमने गवां दिया। खैर, गाँधी जयंती पर असल गाँधी को जान लिया जाए, इससे बड़ी बात और कुछ नहीं हो सकती। फ़िर वो कोई भी हो, बापू भी खुश हो जायेंगे। उसकी आत्मा को शान्ति मिल जाएगी।
मैं गाँधी भक्त नहीं हूँ। लेकिन मैंने भी उनको अपने बचपने में काफी गरियाया है। जब सोचा कि क्यूँ गरियाता हूँ तो उनके बारे में पढ़ा है। अलग अलग मतों को पढ़ा है, और काफी हद तक उनको समझा है।
दरअसल कोई गाँधी को जानना नहीं चाहता, बस उन्हें गरिया कर सबका मन भर जाता है। सब सुनी सुने बातों पर यकीं कर लेते हैं। कभी ये सोचने की कोशिश नहीं की जाती कि आख़िर कब तक हम यूँ ही सिर्फ़ कही सुनी बातों को अपनी अगली पीढी को देते रहेंगे। हमारे पास एक अच्छा मौका था, हमने गवां दिया। खैर, गाँधी जयंती पर असल गाँधी को जान लिया जाए, इससे बड़ी बात और कुछ नहीं हो सकती। फ़िर वो कोई भी हो, बापू भी खुश हो जायेंगे। उसकी आत्मा को शान्ति मिल जाएगी।
मैं गाँधी भक्त नहीं हूँ। लेकिन मैंने भी उनको अपने बचपने में काफी गरियाया है। जब सोचा कि क्यूँ गरियाता हूँ तो उनके बारे में पढ़ा है। अलग अलग मतों को पढ़ा है, और काफी हद तक उनको समझा है।
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