खो गया था दुनिया के झंझावातों में आइना देखता हूँ, पर खुद की तलाश है, मुसाफिर हूँ. ये अनकही खुली किताब है मेरी... हर पल नया सीखने की चाहत में मुसाफिर हूँ.. जिंदगी का रहस्य जानकर कुछ कहने की खातिर अनंत राह पर चला मैं मुसाफिर हूँ... राह में जो कुछ मिला उसे समेटता मुसाफिर हूँ... ग़मों को सहेजता, खुशियों को बांटता आवारा, अल्हड़, दीवाना, पागल सा मुसाफिर हूँ... खुशियों को अपना बनाने को बेक़रार इक मुसाफिर हूँ... उस ईश्वर, अल्लाह, मसीहा को खोजता मैं मुसाफिर हूँ...
Monday, October 31, 2011
सीधे दिल से...
बोल दो कि तुमने छिटके हैं रंग इस सूखी, फीकी सी शाम में
बोल दो कि तुमसे ही रफू हैं रेडियम से कपड़े इस चाँद के
बस इक बार, बोल दो कि तुमने ही रोपे हैं तुमने ही रोपे हैं सुरों के पौधे बेसुध फिजाओं में...
1 comment:
वाह!
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