बात ख़ुशी की है. ऐसा आन्दोलन, इतनी जल्दी सकारत्मक परिणाम! गज़ब का जन समर्थन! २७ अगस्त ऐतिहासिक है! संसद सदस्यों ने अभूतपूर्व काम किया! राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर बेहतर कल के लिए सहमति बनाई, लेकिन क्या लगता है कि ये लोग संत हो गए? अचानक ये हृदय परिवर्तन मेरे तो गले नहीं उतर रहा. मेरी नज़र में ये सब राजनीति का हिस्सा है. आखिर क्यूँ ध्वनि मत नहीं हो पाया? सोचिये...जवाब न मिले तो इस पर बहस करिए या फिर अगले संसद सत्र का इंतज़ार कीजिए. जब तक बिल पास न हो जाये और जनता के सामने न आ जाये तब तक ये होली-दीवाली मानाने का मतलब नहीं. मेरी नज़र में ऐतिहासिक दिन वो होगा जिस दिन संसद से एक सशक्त लोकपाल बिल पास हो जायेगा.
हृदय परिवर्तन या डर?
आप सोच रहे होंगे कि ये निराशावादी और नकारात्मक सोच/नजरिया है. शौक से सोचिये. कुछ और अच्छे संबोधन दे सकते हैं मुझे. लेकिन मेरे एक सवाल का जवाब खोजिये...क्या स्टैंडिंग कमेटी ने इस सो कॉल्ड रेसोल्यूशन पर मुहर लगा दी है? ५ अप्रैल से शुरू हुआ अन्ना का पहला अनशन याद होगा आपको! तो ये भी याद होगा कि सरकार ने क्या वादा किया था! फिर क्या हुआ? कमेटी बनी, बैठकें हुईं...पवन बंसल, सुबोध कान्त सहाय और कपिल सिब्बल कि पूरी टीम लगती है...और परिणाम...१६ अगस्त से एक और अनशन. इस बार १२ दिन चलता है. पूरा देश समर्थन में कूद पड़ता है. फिर सरकार घुमावदार बयानबाज़ी करती है. अन्ना को पहले वही पार्टी सर से पांव तक भ्रष्टाचार से ग्रस्त बताती है, कुछ दिन बाद उसे महान नेता कहने लगती है. आखिर, इतनी जल्दी सोच कैसे और क्यूँ बदल जाती है. ये शब्द और आरोप अचानक आरती में क्यूँ तब्दील हो जाते हैं. जाहिर है डर! डर सरकार गिरने का! फिर ये सरकार सारे प्रयास करती है अन्ना और उनकी टीम को समझाने की. पहले विलासराव देशमुख आते हैं. उनसे बात नहीं बनती. फिर अवतरित होते हैं भय्यु जी महाराज. किस काम के लिए...अन्ना से मांडवाली करने के लिए. खुद को महाराज यानि संत बताते हैं... कुछ लोगों से उनके बारे में पाता किया गया तो पाता चलता है कि जनाब इंदौर से हैं! पहले मॉडलिंग करना चाहते थे! फिर राजनीति और संत-सन्यासी के धंधे में कूदते हैं! इनके बारे में कहा जाता है कि राजनीति के गलियारे में इनकी अच्छी पैठ है या इसे गुंडई कहना सही रहेगा.
तार तार होती है संसदीय मर्यादा
फिर भी बात नहीं बनती तो संसद में प्रस्ताव लाने की बात होती है. प्रधानमंत्री वादा करते हैं वोटिंग करने का. २६ अगस्त, दिन शुक्रवार, संसद में पेंच फ़साये जाते हैं, और बहस शनिवार को शुरू होती है. सभी दल एक एक करके अपनी राय रखते हैं. शरद यादव और लालू यादव अपना चरित्र इस महत्वपूर्ण बहस में भी दिखाने से बाज नहीं आते. घटिया बातें और वैसी ही हरकतें करते हैं! यहाँ तक कह डालते हैं कि ये तो महज़ रिफ्रेशमेंट है. यही है संसदीय मर्यादा इन सांसदों की. डंके की चोट पर कहते हैं कि पढ़ना जरूरी नहीं, जो अनपढ़ है वो सबसे बड़ा इंसान है. लोकपाल का सांसदों पर कोई अधिकार नहीं होना चाहिए. पत्रकारिता पर सवाल उठाते हैं...कहते हैं अगर ये लोकपाल बन गया तो पत्रकार लिखना भूल जायेंगे. क्या वाकई ऐसा होगा? या फिर ये लोग कुछ ज्यादा ही डरे हुए हैं. शरद यादव कथित चुटीले व घटिया अंदाज़ में किरण बेदी को धमकाते हैं. संसद में खड़े होकर मर्दानगी और गुंडई का यही सबूत देते हैं.
तस्वीर अभी धुंधली है...
यहाँ ये दोहराना बहुत जरूरी है कि ये वही लोग हैं जिन्हें हमने ही संसद भेजा है...अब सवाल ये है कि क्या इसीलिए भेजा है? ताकि वो हमारे ही बल पर हमारे खिलाफ ही बयानबाजी करें. जवाब आपके पास है. लोकपाल बिल सरकारी ही होगा, अन्ना के तीन बिन्दुओं पर स्टैंडिंग कमेटी विचार करेगी. लेकिन ये तय नहीं है कि वो दोबारा धोखा नहीं करेगी. याद रखिये, इस सरकार ने सिर्फ इन तीन बिन्दुओं पर बात करने के लिए जनता को सड़क पर उतरने पर मजबूर कर दिया. लगभग हर सांसद किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार की मलाई काट रहा है. आप खुद सोचिये, आखिर वो क्यूँ चाहेंगे कि एक ऐसा लोकपाल बिल तैयार हो जाये और सबसे पहले उनकी ही गर्दन पर तलवार लटका दे. जो सांसद ध्वनि मत से सिर्फ इसलिए डर गए कि लोग जान जायेंगे कि कौन पक्ष में है और कौन विपक्ष में, वो कैसे अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारेंगे. स्टैंडिंग कमेटी के चेयरमैन अभिषेक मनु सिंघवी ने साफ़ शब्दों में एक बार भी नहीं कहा है कि अन्ना के तीनों बिन्दुओं को वैसे का वैसे मान लिया जायेगा. अभी वो अरुणा रॉय और डॉक्टर जयप्रकाश नारायण के ड्राफ्ट पर भी चर्चा करेंगे. और तो और, इसकी कोई समय सीमा भी नहीं दी गई है.
मीडिया की एजेंडा सेटिंग थ्योरी
मीडिया ने एजेंडा सेटिंग थ्योरी पर अच्छे से अमल किया. बड़ी खबर थी, लेकिन इसे आन्दोलन, सत्याग्रह, अगस्त क्रांति और न जाने क्या क्या मीडिया ने बनाया. सैद्धांतिक रूप से देखा जाये तो गलत नहीं किया गया. जनता को जगाना जरूरी था और ये एकदम सही मौका था. करीब 10 दिन तक रामलीला मैदान में मीडिया का जमावड़ा रहा. मीडिया ने कुल मिलाकर सराहनीय काम किया. रिपोर्टर्स दिन रात जागते रहे...अन्ना अन्ना करते रहे. हालाँकि कुछ चैनलों ने निष्पक्ष सूत्रधार का काम किया तो कुछ ने खुद ही अन्ना की टोपी पहन ली. इसे सही ठहराना थोड़ा मुश्किल है. अनशन का १२वां दिन आता है. सरगर्मी तेज होती है. माहौल गरम होता है. संसद में ऐतिहासिक बहस होती है. चोर उचक्कों से लेकर ज्ञानी-विज्ञानी अपनी बात जैसे तैसे रखते हैं. लगभग सभी पक्ष में राय देते हैं. कुछ डर को छुपा नहीं पाते और बकबक कर देते हैं. वो ही लोग वोटिंग से डरते हैं. इस बीच टीम अन्ना पहुँचती है सलमान खुर्शीद से मिलने. मीटिंग जारी है लेकिन, उसी दौरान किरण बेदी मंच पर ही चीखना शुरू कर देती हैं कि अन्ना जीत गए...हम जीत गए...देश जीत गया. और मीडिया भी बिना इस खबर कि पुष्टि किये ब्रेकिंग न्यूज़ चला देता है. हर चैनल पर जश्न होने लगता है. तभी प्रशांत भूषण और अरविन्द केजरीवाल मीटिंग से लौटते हैं. मीडिया उनपर लपकती हैं लेकिन ये क्या, ''फिर से धोखा हुआ''. प्रशांत भूषण और अरविन्द केजरीवाल का बयान संसद में पल भर में पहुँच जाता है. उनके मुताबिक विपक्ष ने वोटिंग के लिए मना कर दिया है. मामला लटक जाता है. जल्दी से चैनलों से फ्लैश हटाया जाता है. संसद में विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच सिलसिलेवार मीटिंग शुरू होती है. प्रणब मुखर्जी से मिल कर निकली सुष्मा स्वराज आरोप सिरे से ख़ारिज करती हैं और दावा करती हैं कि उनकी पार्टी वोटिंग के लिए तैयार है. प्रधानमंत्री की तरफ से तय होता है कि संसद में ध्वनि मत होगा. चैनल फिर काउंटडाउन शुरू करते हैं. कोई कहता है, १ घंटे में, कोई २ घंटे में और कोई हर दो मिनट पर कहता है कि बस दो मिनट और...
राहुल का भाषण और संसद पर सवाल
ये महज़ इत्तेफाक ही होगा कि लालू यादव अपने भाषण में वोटिंग का विरोध करते हैं और कुछ ही देर में लोकसभा ऐडजोर्न हो जाती है बिना ध्वनि मत के. एक दिन पहले उसी संसद में कॉंग्रेस के राजकुमार राहुल गाँधी शुन्य काल में नियम के विरुद्ध १५ मिनट तक देश के नाम भाषण देते हैं. लेकिन न मीडिया सरकार के पीछे पड़ता है न ही संसद इसका जवाब देती है. आश्चर्यजनक रूप से विपक्ष भी इस मुद्दे को उठाकर चुप हो जाता है. संसद में गुरुदास दासगुप्ता जब सुष्मा स्वराज के इस सवाल को दोहराते हैं तो सत्ता पक्ष से आवाज़ आती है...आपको क्या दिक्कत है. आख़िरकार प्रणब दा रेजोल्यूशन पास होने की आधिकारिक घोषणा करते हैं और विलासराव देशमुख उसकी प्रति लेकर पहुँचते हैं अन्ना के पास. अन्ना उठ खड़े होते हैं. रामलीला मैदान और देश में तमाम जगहों पर होली-दीवाली शुरू हो जाती है. मीडिया एक सुर में गाता है...अन्ना जीत गया. आला रे आला...अन्ना आला और जनता नाचती रहती है...रविवार दिन तक ये सुरूर बरक़रार रहता है...लोग भूल जाते हैं कि बिल अभी पास नहीं हुआ है. शायद ये सोचकर, कि अभी मौज कर लो, कल फिर से अनशन पर बैठ जायेंगे. और शायद इसी सोच के तहत अरविन्द केजरीवाल ने समर्थकों से आह्वाहन किया कि वो आगे भी कई ऐसे ही अनशनों के लिए तैयार रहें मानों उन्हें अनशन का दौर शुरू करना है.
चौथा मोर्चा...देश का भविष्य?
संदेह ख़त्म नहीं होते क्यूंकि सरकार और विपक्ष का चरित्र ही ऐसा रहा है. बीते कुछ वक़्त में सरकार और विपक्ष की कथनी और करनी में जमीन आसमान का फरक रहा है. मुझे उम्मीद है कि एक सशक्त कानून बन जाये! लेकिन इसके विपरीत हुआ तो...क्या फिर से ऐसा ही अनशन होगा...क्या फिर से एक बूढ़े आदमी को हम भूखा बैठाकर ब्लैकमेल ब्लैकमेल खेलेंगे. या फिर इस बार रणनीति कुछ और ही होगी. क्या इस सम्भावना को नाकारा जा सकता है कि देश को एक और मोर्चे की जरूरत है जो राष्ट्रीय हो. जो न दक्षिण का हो न उत्तर का, जो न सांप्रदायिक हो न ही भ्रष्ट, न जातिवादी हो न ही रूढ़िवादी. ऐसा एक ''चौथा मोर्चा''. सवाल ये उठता है कि कौन और कैसे बनाएगा ऐसा मोर्चा. वरिष्ठ पत्रकार भी इस सम्भावना को नहीं नकारते पर बीच बहस में अमृत सी एक सलाह निकलकर आती है. क्यूँ न इस देश को गाँधी के सपनों के देश बनाया जाये. महात्मा का मानना था कि कॉंग्रेस को भी जनसेवक संघ के रूप में काम करना चाहिए. क्या ये चौथा मोर्चा इसी रूप में काम कर पायेगा? सिविल सोसाइटी के पास अथाह जन समर्थन है. घर घर में अन्ना की बयार है. तो क्यूँ बार बार आन्दोलन किया जाए? क्यूँ न संवैधानिक और लोकतान्त्रिक तरीके से ईमानदार और निष्पक्ष जनप्रतिनिधि बनाने का एक स्वर्णिम सिलसिला शुरू हो और संसद में देश का उज्जवल भविष्य बैठे. ये मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं...फिर, कभी न कभी तो ये होना है. आज नहीं तो कल...कल नहीं तो परसों...
1 comment:
Sir ji apka jo view hai bahut hi satik h. Kash hamare yaha khadi pehene wale is bat ko samajh pate.
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