ऐ मुसाफिर...
क्यूँ जारी है ख़ुशी की तलाश
कितनी मायूस है तेरे सपनों की रात
ऐ मुसाफिर, पन्ने तो पलट
मत खोज...
मैं तेरी तमन्ना हूँ, यकीं तो कर
देख वो स्याही भी सूख गई
ढलती रही जिसमें ज़िन्दगी तेरी
तेरी इक कोशिश से बन जायेंगे
खुदबखुद असबाग
तो क्यूँ न तू नयी कहानी लिख
मैं मजबूर हूँ...मौसम की तरह
मुझपर मेरा ही बस नहीं
तेरे अरमानों ने ही ज़िंदा रखा है मुझे
उसका कोई अक्स औ लिबास नहीं
उसे खोजने में तू हर ख़ुशी खो देगा,
मैं एक रोज़, तुमसे मिलने आऊँगी
ऐ मुसाफिर लेकिन इंतजार न कर
वादा रहा, तेरे हर गम का हिसाब कर जाऊँगी
मत सोच कि मैं तेरे आंसू नहीं गिनती
तुझे रुलाकर मैं कैसे जी पाऊँगी...