Saturday, September 25, 2010

कॉमनवेल्थ न कराकर देश की तस्वीर बदल सकते थे...

एक बार इनसे पूछा होता कि उन्हें बेटन चाहिए या अच्छी एजुकेशन।

शर्म नहीं आई इन्हें देश की इज्जत को मिटटी में मिलाकर

ये बच्चे जवाहर लाल नेहरु स्टेडियम के बाहर हैंइनकी शिक्षा के बारे में ही सोचा होता

कॉमनवेल्थ गेम्स चर्चा में है पहली बार भारत में हो रहा है करीब सत्तर हज़ार करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं ख़ास बात ये है कि ये अब तक का सबसे महंगा कॉमनवेल्थ गेम है इसमें हो रहे घोटाले भी उजागर किये जा रहे हैं आएदिन सवाल उठ रहा है कि क्या भारत ये खेल कराने के लिए तैयार था ऐसे ही सवालों ने सोचने पर मजबूर किया कि क्या इस वक़्त की सबसे बड़ी जरूरत कॉमनवेल्थ गेम्स ही थी? क्या यही एक तरीका है जिससे हम आज विश्व पटल पर अपना नाम सुनहरे अक्षरों में अंकित करवा सकते हैं (सभी जानते हैं कि हमें कितनी प्रसिद्धि मिल रही है इस आयोजन के लिए) ? क्या और तरीके नहीं हैं विश्व के सामने एक मिसाल बनकर उभरने के? क्या सुरेश कलमाड़ी, ललित भनोत और चंद लोग इतने ताकतवर हैं कि सरकार इनके आगे नतमस्तक होकर हाँ में हाँ मिला देती है? क्या ऐसे ही लोग तय करेंगे हमारे देश का भविष्य?

हर दिशा से इन सारे सवालों का जवाब एक ही आता है...कतई नहीं। पूरा विश्व जनता है कि हम एक विकासशील देश हैं। आज जरूरत है अपने आधारभूत ढांचे को मजबूत करने की। गेम्स कहीं भागे नहीं जा रहे हैं। चार या आठ साल बाद हम दमदार तरीके से गेम्स को घर लाते (बिना दूसरे देशों को पैसे दिए) तो क्या दिक्कत थी। इस बीच हम शिक्षा पर अगर इतना ही पैसा खर्च करते और इनती ही तेजी से काम करते जितना आजकल गेम्स और भारत की लाज बचने के लिए सरकार कर रही है तो हम बहुत बेहतर स्थिति में होते।

प्राथमिक शिक्षा का क्या स्तर है, ये किसी से छिपा नहीं है। सोचा जा सकता है कि (2009-10) में शिक्षा का निर्धारित बजट इस गेम के आयोजन की राशि का आधा भी नहीं है ( 31,036 करोड़ रुपये)। इतने पैसे से हम शिक्षा की तस्वीर बदल सकते थे, पर ऐसा नहीं किया गया। कभी ये नहीं सोचा गया होगा कि हमारे देश में एमआईटी, कैम्ब्रिज और हार्वर्ड जैसा शिक्षा संस्थान क्यूँ नहीं है। सिब्बल साहब ने नहीं सोचा होगा कि विज्ञान के क्षेत्र में आखिर हम अग्रिणी क्यूँ नहीं बन पा रहे? क्यूँ हमारे देश के अव्वल युवा विदेशों के नौकर बनना पसंद करते हैं? क्यूँ हम शिक्षा व्यवस्था को पारदर्शी और मजबूत नहीं बना पा रहे? क्यूँ ये नौबत आती है कि अचानक हमारी कुम्भकरणी नींद टूटती है और हम फरमान जारी कर देते हैं ४४ डीम्ड विश्वविद्यालयों की मान्यता रद्द कर देने का? क्यूँ हम नहीं सोचते कि केवल १५% बच्चे ही हाईस्कूल क्यूँ जा पाते हैं? बाकी ८५% बच्चे कहाँ हैं? यूनेस्को की रिपोर्ट क्यूँ कहती है कि ''India has the lowest public expenditure on higher education per student in the world''? क्यूँ हम दुनिया को देखकर भी सबक नहीं ले पा रहे। इन सभी सवालों का जवाब था हमारे पास, लेकिन तब एक ऐसे गेम को रास्ता दिया गया जिसका कोई आधार ही नहीं था अपने देश में। सारा पैसा चंद लोगों के पेट रूपी गटर में गया और हम फिर वहीं के वहीं खड़े रह गए। चंद दिनों के खेल के बाद कुछ दिनों तक हिसाब किताब किया जाएगा। मुनाफा और घटा गिनाया जाएगा और फिर शुरू हो जाएगा हमेशा की तरह रोना। हमारे पास संसाधन नहीं हैं, कहकर नेता पल्ला झाड़ लेंगे। मीडिया चीखता रहेगा। पर क्या फरक पड़ेगा? कुछ नहीं। एकदम नहीं।

अगर ईमानदारी से शिक्षा की उन्नति के लिए प्रयास किया जाता तो सत्तर हज़ार करोड़ से कहीं कम में हम गाँव गाँव की तस्वीर बदल देते। जो पैसा बचता उससे कम से कम एक चौथाई देश में स्वास्थ्य की उन्नत सुविधाएं मुहैया कर ली जाती. उसका फायदा भले ही हमें तुरंत नहीं मिलता लेकिन हम जल्दी ही दुनिया के अग्रणी देशों से कन्धा मिला लेते, लेकिन फिर वही बात आ जाती है। फायदा। सबको तुरंत फायदा चाहिए था। देश की फिक्र किसी को थी ही नहीं।

मैंने बहुत ही सतही तौर पर कॉमन ''वेल्थ'' गेम्स के आयोजन की तुलना अपने देश की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता से की है। इसपर एक ब्रॉडशीट अखबार के कई पन्ने भरे जा सकते हैं। न जाने हम और क्या क्या कर सकते थे। लेकिन...
अब पछताए होत क्या, जब सिस्टम चुग गया देश हैट्स ऑफ टु आवर सिस्टम जय हिंद, जय भारत

(यहाँ ये साफ़ कर देना चाहता हूँ कि मैं इन गेम्स का विरोधी नहीं हूँ। मेरा विरोध इस लिए है क्यूंकि ७० हजार करोड़ मामूली रकम नहीं। इस पैसे का दुरुपयोग होते हुए कोई भी भारतीय नहीं देख पाएगा. जो लोग कलमाड़ी और लुटेरे नेताओं की सोच से प्रभावित हैं, उन्हें कुछ भी सोचने की इजाजत है।)

2 comments:

संजय कुमार चौरसिया said...

sahi hai boss

http://sanjaykuamr.blogspot.com/

Dr Xitija Singh said...

ek achha lekh nikhil ji ... aapka rosh aur desh ke liye bhaavnaein kaabile tareef hain... itna kehna chahti hoon ki media aur logon ki jaagruka ki badaulat bhrashtacahaar ka chehra to saamne aaya ... aapne jin muddon ko uthaya hai wo to ab pracheen mudde lagne lage hain ... humaari sabhyata ka ansh ... par kahin na kanhin ek umeed hai ki jis tarha aaj samaaj mein badlaav dekhne ko mil raha hai ... wo din door nahi jab inka hal bhi mil jaayega ... filhaal cwg ko support kartein hain aur uske +ive aspects ko dekhte hain ... keep writing

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