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Thursday, March 18, 2010

हर कोई 'मायावी' तरीके से बिक चुका है!

ये फोटो कुछ दिन पहले डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट अख़बार ने छापी. वहां से साभार ले रहा हूँ

समझ नहीं रहा है कि इस सोच को कैसे आकर दूँ काफी कुछ कहने का मन है, हमेशा की तरह आज भी कई सवाल हैं अपने प्रदेश की मुख्यमंत्री बहिन कुमारी मायावती जी का साहस और गुंडागर्दी देख दंग हूँ व्यथित भी राजधानी में हूँ तो आए दिन एक नई बात पता चलती है, यहाँ गुंडई तो वहां गुंडई इनके राज में जिसे मन चाहता है उसे रेल दिया जाता है रातों रात व्यवस्था बदल जाती है किसी को कानोंकान खबर नहीं लगती खबर चलती भी है तो उनके कानों में जूं नहीं रेंगता वो मदमस्त हाथी की चाल चलती हैं और हम जैसे कुछ कुत्ते भौंकते रहते हैं

अभी का ही उदाहरण ले लीजिये, करोड़ों रुपये की माला पहनकर हवा में उड़ गईं बहिन जी मीडिया खूब चिल्लाई, पूरे चौबीस घंटे आलोचना होती रही, दूसरी ओर प्रेस बिकी हुई सी लगी. राजधानी के ज्यादातर हिंदी भाषी अख़बारों ने जो जयकारा लगाया कि अगले साल के लिए विज्ञापन की चिंता ही खत्म हो गई किसी ने पन्ने तो किसी ने समझ नहीं आया कि ऐसी कौन सी रैली थी कि पूरा अख़बार ही मायावी हो गया कुछ ने तो नीले रंग की हेडिंग भी लगा दी सबने एक छोटा सा बक्सा दिया नोटों के मामले पर भले ही ये गुंडई का असर है सब बिक गए हैं एक दिन बाद फिर से बहिन जी निकलती हैं, फिर नोटों की माला पहनाई जाती है और एक मंत्री जी मीडिया पर व्यंग कसते हैं मीडिया भिखारियों की तरह खड़ी हिहियाती है और खबर चल जाती है हिंदी अख़बारों में भी सकारात्मक खबर लगती है जो अख़बार राजनीति को जगह नहीं देते, वो भी गंगा स्नान करने से नहीं चूकते एक मुख्यमंत्री इतना ताकतवर है कि सब बेबस हो गए हैं ये सोचकर बहुत दुःख होता है पत्रकारिता के सिद्धांत, सामाजिक जिम्मेदारी और सारे मूल्य खोखले से लगने लगते हैं

इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि प्रचार के लिया प्लास्टिक की झंडियों का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा लेकिन पूरा शहर पन्निओं से ढक जाता है हर चौराहा, हर बाजार, हर स्टेशन, नीले आसमान के नीचे कुछ नजर आता है तो वो नीली पन्नियाँ लेकिन एक भी अख़बार में ये खबर नजर नहीं आती या तो ये तथ्य गलत है या फिर सारा मीडिया, सारा प्रेस बिक चुका है

कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि बातें कहने और लिखने में बड़ी आसान हो सकती हैं पर मैं सिर्फ एक सवाल पूछता हूँ कि पत्रकार का काम पीआर से थोडा तो अलग रहा होगा क्या पत्रकार ऐसे ही होते हैं? अगर इतना ही डर था तो क्यूँ कूदे पत्रकारिता में ऐसी ख़बरों का बहिष्कार किया जाना चाहिए सिर्फ और सिर्फ आलोचना की जानी चाहिए

सवाल उठता है कि क्या पत्रकार को दोष देना सही है वो तो वही लिखता है जिसकी उसे इजाजत मिलती है अगर मालिक लालची होते तो शायद ये स्थिति होती पैसे वालों ने अपने फायदे के लिए अख़बार और चैनल खोल लिए हैं सरकार से उन्हें हर दूसरे दिन काम पड़ता है तो कैसे उनकी अर्चना करें लेकिन क्या ऐसे ही सब कुछ चलता रहेगा? किसी को तो बदलाव के लिए आगे आना होगा क्या ये घुटन किसी को नहीं होती? या सब अपनी अपनी बचाए फिर रहें हैं सब चाहते हैं कि भगत पैदा हो पर मेरे घर में नहीं ऐसा चलता रहा तो एक दिन हम सब बिक जायेंगे कलयुग के सच्चे सिपाही होंगे हम

अरे याद कीजिये, ये वही सरकार है, जिसके राज में मनोज गुप्ता जैसे अफसर मारे गए किसी को पैसा लेना भारी पड़ा तो किसी को पैसा देना सरकार की ओर से कोई सार्थक करवाई नहीं नजर आई ये वही सरकार है जो चरमरा रही कानून व्यवस्था को मजबूत करने की जगह मूर्तियाँ खड़ी करती है ये वही सरकार है जिसमें सिर्फ पैसा बोलता है ये वही सरकार है जिसके शासन में भ्रस्टाचार आसमान छू रहा है पत्थरों की ये विचारधारा कितने दिन तक जियेगी कभी तो इसपर भी काई जमेगी... Justify Full

Tuesday, March 16, 2010

...और वो खुद भी बढ़ता चला जाता...

कोई 'राम' कहता तो लोग रूककर देखते, कोई 'अल्लाह' कहता तो लोग पलटकर देखते. जब वही कोई 'काम' कहता तो लोग बढ़ते चले जाते, 'आम' कहता तो लोग बढ़ते चले जाते. कारवां आगे बढ़ता, कुछ साथ चलते तो कुछ बढ़ते चले जाते. वो किसी को गिराते, ताली बजाते और बढ़ते चले जाते. एक मोड़ पर वो खुद गिर जाते, उठते और वही चाल चलते. और वो कोई सड़क पर गिरे लोगों को देखकर परेशां होता और खुद भी बढ़ता चला जाता...

Monday, March 1, 2010

तो रुश्दी को पुरुष तसलीमा कहिये...




जनसत्ता में प्रकाशित तसलीमा नसरीन का एक लेख पढ़ने को मिला। लेख में उन्होंने अपनी तुलना सलमान रुश्दी और एमएफ हुसैन और उन्हें महिला रुश्दी कहे जाने पर आपत्ति जताई है। उसके कारण भी दिए हैं। मुझे उनके कारणों से सहमति दर्ज कराने में कोई आपत्ति नहीं है। उनकी बातें बनावटी नहीं लगतीं। कुछ सवाल उठ रहें हैं, हुबहू आपके सामने रख रहा हूँ। किसी के पास कुछ जवाब हो तो दें। ये सवाल तसलीमा के सवालों से निकले हैं।


मुझे समझ में नहीं आया कि रुश्दी की हरकतों के बाद उन्हें इतना सम्मान किस आधार पर दिया जाता है? महज इसलिए कि उनके खिलाफ ईरान में फतवा जारी किया गया था या इसलिए कि वह एक उम्दा लेख़क हैं। अगर ये दोनों बातें सही हैं तो तसलीमा किसी भी मामले में उनसे कमतर नहीं। तसलीमा की बातों से भी ये कसक झलकती है। एकदम साफ़। इसके इतर, सलमान रुश्दी को पुरुष तसलीमा क्यूँ नहीं कहा जाता, या पुरुष नसरीन? ऐसे भेद क्यूँ हैं? और ये किस सोच की पैदाइश हैं?

उन्होंने एमएफ हुसैन का भी उदहारण दिया है। वो कहती हैं कि आखिर एमएफ हुसैन ने मुहम्मद साहब की तस्वीरों के साथ ऐसे कलात्मक प्रयोग क्यूँ नहीं किये जैसे सरस्वती और लक्ष्मी के साथ किये। इसलिए कि वे महिला हैं, और महिलाएं ही सौंदर्य का प्रतीक होती हैं? ये न ही सेकुलर सोच दर्शाता है न ही एक ऐसा चित्रकार होने के प्रमाण देता है कि वो धार्मिक रूप से कट्टर नहीं हैं। फिर वो क़तर की नागरिकता लेने के बारे में सोचते हैं तो ऐसे क्यूँ खबरें दिखाई जाती हैं जैसे वो कोई देशभक्त हों और देशबदर हो रहें हों? क्या ये सही है? क्या मीडिया की खबरें संतुलित हैं? या भावनाओं में बहकर उथली रह जाती हैं? इससे एक उथला परसेप्शन भी क्रिएट हो जाता है जो परोक्ष रूप से बहुत खतरनाक होता है। खासकर ऐसे मामलों में जो कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में किसी दूसरे संवेदनशील मामले से जुड़े होते हैं।


तसलीमा और नादीन जब किसी धर्म विशेष या व्यर्थ के आडम्बरों और नियमों के खिलाफ लिखती हैं तो उनपर बिना जाने बूझे लोग थूकने लगते हैं। फतवा जारी हो जाता है। उनकी जिंदगी नरक बन जाये, इसके हर संभव प्रयास होते हैं। जब तसलीमा को नजरबन्द रखा जाता है, जबरदस्ती देश से निकाला जाता है तो हम क्यूँ ऐसे रिएक्ट नहीं करते? सिर्फ इसलिए क्यूंकि वो महिला हैं? सिर्फ इसलिए क्यूंकि पुरुषों के बनाये नियमों और उनकी सत्ता को वो चैलेन्ज करने का माद्दा है उनमें? दूसरी तरफ, चित्रों में, किताबों में अच्छे अच्छे शब्दों में कुछ कडवी बातें पिरो कर लोग हीरो बन जाते हैं। और बाद में मांफी भी मांग लेते हैं। ऐसे में तसलीमा और नादीन उनसे कहीं ज्यादा बेहतर हैं। उनकी तुलना किसी ऐसे व्यक्ति से नहीं की जानी चाहिए जो अन्दर कुछ हो और बाहर कुछ।

मैंने तसलीमा की सिर्फ एक किताब पढ़ी है, द्विखंडिता-2 वो भी आधी, पर मैं उनके इस लेख में कुछ भावनाएं महसूस कर सका। अगर गलत महसूस किया और मेरे सवाल गलत हैं तो जरूर बताएं। ये भी बताएं कि अगर एमएफ हुसैन को घर न छोड़ने के लिए कहा जा सकता है तो तसलीमा से क्यूँ नहीं।
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