जब मैंने होश संभाला तो परिवार वालों के साथ कोई और भी था. वो मुझे बेहद नापसंद था. मुझे बहुत ख़राब लगता था जब वो जबरदस्ती हमारी अलमारी में, पूजा घर में, कमरे में जबरदस्ती घुस जाता था. मुझसे भी उसने दोस्ती करनी चाही. हर जगह मेरे साथ साथ चला आता था. स्कूल में गया तब भी और फिर कॉलेज में तब भी. पापा को तो जमकर परेशां करता. ये मुझसे बर्दाश्त नहीं होता. वक़्त बीतता रहा और मेरी नफरत बढती गयी. मैं उससे मिन्नतें करता, गली देता, समझाता, फुसलाता और कई लोगों की दुहाई देता. पर वो नहीं मानता. रात होते ही मेरी तकिया के नीचे छिप जाता. फिर दोस्ती और दुश्मनी की समझ हुई. मैंने एक नई दोस्त बना ली. सोचा अब तो ये खुदबखुद चला जायेगा. मैंने अपने भाइयों से भी कहा की इसकी तरफ ध्यान मत देना. पापा और मम्मी से भी कह दिया. सबने वैसा ही क्या. फिर भी वो जाना नहीं चाहता. कहता है तुम्हारे साथ ही रहना है. मैं कहता हूँ दुनिया में और भी लोग हैं. कुछ बुरे भी होंगे, जाकर उन्हें दोस्त बना. आखिर मुझमें ऐसा क्या है. कुछ भी तो नहीं है मेरे पास जो मैं तुम्हे दे पाउँगा...फिर भी वो नहीं जा रहा. अब तो मेरी नै दोस्त भी मुझसे कतराती है. इसकी वजह से वो भी मेरे पास नहीं आती है. खुद ही उससे बात करता हूँ. हर वक़्त, हर घडी, फिर भी वो पता नहीं क्यों डरती है. उसकी तपिश कभी कभी बर्दाश्त से बहार हो जाती है, उसी में जल रहा हूँ. जब बहुत परेशां होता हूँ तो मेरी नई दोस्त थोड़ी वर्षा करती है. मैं भीग जाता हूँ, कुछ देर के लिए खूब मुस्कुराता हूँ, लेकिन वो फिर आंसू बनकर आँखों से उतर आता है. अब तो मेरा रिश्ता सा हो गया है उससे. बताओ कौन है वो...