
आजकल फिल्मों को लेकर खासे प्रयोग शुरू हो चुके हैं हालाँकि ऐसे प्रयोग करने वाले प्रयोगधर्मी निर्देशकों को पारंपरिक फ़िल्मी दुनिया में सम्मान नहीं दिया जा रहा है. इसके पीछे उनका डर भी हो सकता है और जलन भी.
विडंबना ये है कि हमारे समाज का एक बड़ा तबका भी इनको गले नहीं लगा रहा है. बात हो रही है अनुराग कश्यप, दिबाकर और कौशिक मुखर्जी जैसे फिल्म निर्माताओं की. इनकी बदौलत फिल्मों का स्वरुप अचानक कुछ अलग सा दिखने लगा है. करन जौहर और चोपड़ा घराने की प्रेम कहानियों और सूरज बरजात्या टाइप घरेलू कहानियों के बीच से एक किरण निकलने की कोशिश करते दिख रही है. तमाम फिल्मों की तरह ये सतरंगी नहीं है, बल्कि इसका रंग खालिस ब्लैक एंड ह्वाईट है. इसकी कोशिश है, पूरी तरह एक प्रकाश पुंज के रूप में उभर कर सामने आने की, लेकिन आड़े आ रहा है हमारा समाज, हमारा सिस्टम और हमारी सोच. सेंसर बोर्ड की कैंची ऐसी किरणों के पंख हमेशा से कतरती रही है और आज भी ये इनके ख्वाबों के पंख क़तर रही है. सवाल जो बार बार कौंध रहा है वो ये कि आखिर आगे हम कैसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं. चंद टुटपुन्जिये संगठनों की और हमें क्यूँ देखना पड़ता है समाज की सच्चाई दिखाने से पहले ? क्यूँ हमें राजनीति के भदेस चेहरों से स्वीकृति मांगनी पड़ती है जबकि खुद उनका इतिहास कालिख से पुता हुआ है ? आखिर क्यूँ हैं हम इतने हिप्पोक्रेट ? क्या इंसान के तौर पर इतने कमजोर और खोखले हो चुके हैं कि अपने समाज की सच्चाई देखने से कतराते हैं ? हम घर की चहारदीवारी के भीतर कुछ हैं और बाहर कुछ और बनने और दिखने की कोशिश करते हैं और उसे कोई चलचित्र में ढाल दे,तो चीख पुकार क्यूँ होती है? डरते हैं हम अपने ही चेहरों से ?
ये सब सवाल उठते हैं जब फायर, वाटर, लव सेक्स और धोखा, नाइन हावर्स टू रामा, सिक्किम, किस्सा कुर्सी का, काम सूत्र और गांडू द लूज़र जैसी फिल्में सिनेमा हाल की स्क्रीन पर आने के लिए तरस जाती हैं, कुछ को सेंसर बोर्ड रोक देता है तो कुछ को इस देश के राजनितिक संगठन. खासी लड़ाई लड़नी पड़ती हैं इन्हें अपने ही वजूद को साबित करने के लिए. मुझे डर है कि अनुराग की अगली फिल्म दैट गर्ल इन यलो बूट्स को भी लोग अपना पाएँगे या नहीं. वेनिस फिल्म फेस्टिवल और टोरंटो इंटरनेश्नल फिल्म फेस्टिवल में फिल्म को काफी सराहा गया है लेकिन फिल्म की विषयवस्तु और दृश्यांकन भारतीय समझ और इसकी कुंठित सोच को बार बार चुनौती देगा, इसमें भी दो राय नहीं. फिल्म में ''आ मुझे चोद'' जैसे शब्दों और कुछ ऐसे दृश्यों का इस्तेमाल हुआ है जिसपर कई संगठनों को झंडा और त्रिशूल लेकर चिल्ल पों करने का मौका मिलेगा.
कौशिक की फिल्म ''गांडू द लूज़र'', क्या है ? इसकी विषयवस्तु क्या है और इसका हमारी ज़िन्दगी में कितना महत्व है, ये शायद ही लोग जानने में रूचि लेंगे. उन्हें रूचि है तो गांडू नाम को सुनकर जोर से ''हौ'' बोलकर खिलखिलाने में. किसी को मतलब नहीं कि आखिर कोई तो वजह रही होगी जो इसका नाम यही रखा गया. ये कोई नहीं जानना चाहता कि हमारे इस विचित्र समाज में ऐसे ना जाने कितने गांडू घुट घुट कर बस जिए जा रहे हैं. हर तीसरे घर में एक गांडू है, लेकिन वो सबके सामने कैसे आ सकता है, उसके दिल की बात हम कैसे सुन सकते हैं, कैसे उसे समझ सकते हैं हम ?
समस्या यही है, हम एक अरब से भी ज्यादा जनसँख्या वाले देश हैं ना, यहाँ हम कुछ लोगों को अधिकार दे चुके हैं कि अब वो ही हमारी तरफ से सही गलत का फैसला लेंगे. पांच साल में एक बार वोट डालकर हम एक प्रतिनिधि बनाते हैं और अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेते हैं. वो सही कर रहा है तो वाह वाह कर देते हैं और वो गलत कर रहा है तो इधर उधर बुदबुदा कर आगे बढ़ जाते हैं. स्लमडॉग मिलिनेयर झुग्गियों में बसर कर रहे लोगों की कहानी विदेशी चश्मे से दिखाती है तो हम बिना आव ताव देखे तारीफों के पुल बाँधने लगते हैं लेकिन गांडू की ब्लैक एंड ह्वाईट ज़िन्दगी में रंग भरने की कोशिश नहीं करते. जबकि गांडू की ख़ामोशी चीख चीख कर हमारे समाज को आइना देखने को कहती रहती है. भारत के किसी गझिन मोहल्ले की मोड़ पर एक छोटे से घर से निकली ''गांडू द लूज़र'' न्यूयॉर्क इंटरनेश्नल साउथ एशियन फिल्म फेस्टिवल में क्या कर पाई होगी, समझ नहीं आता, जब
अपने घर में ही इसका कोई मोल नहीं है. चार इंटरनेश्नल अवार्ड जीतकर क्या मिलेगा ''क्यू'' को? ये फिल्म हमें भीतर झाँकने को कहती है और हर मोड़ पर ये बताती है कि हमारे समाज की संरचना और इसकी घटिया सोच के क्या परिणाम हैं.
हमेशा की तरह लीक से हटकर चलते हुए अनुराग ने फिल्म दैट गर्ल इन यलो बूट्स फिल्म में भी एक सच परोसा है, ज़िन्दगी का सच. पुरुष प्रधान समाज में एक मजबूर लड़की होने का सच. कल्कि कोच्लिन के रूप में एक विदेशी लड़की की कहानी को हमारे समाज के नंगे सच से जोड़कर जिस तरह अनुराग ने परोसने की कोशिश की है, वो काबिलेतारीफ है लेकिन कितनो को ये नागवार गुजरेगी, इसका अंदाज़ा फिल्म के ट्रेलर्स देखकर ही लगाया जा सकता है. फिल्म के कुछ दृश्य और संवाद कचोटते हैं लेकिन जिस खूबसूरती से अनुराग ने इसे कलात्मक बनाया है, वो गज़ब है. इन फिल्मों को देखकर लग रहा है कि एक बार फिर हम सामानांतर फिल्मों के दौर को देखेंगे, कुछ अलग अंदाज़ में.
मुझे युवा के तौर पर, पत्रकार के तौर पर और देश के पढ़े लिखे नागरिक के तौर पर हमेशा ये लगता है कि हम ''गांडू'', ''गांड'', ''सेक्स'' और ''चोद'' जैसे शब्दों को जब तक टैबू समझेंगे, तब तक अज्ञानता के अँधेरे से बाहर नहीं निकाल पाएंगे. ये फिल्में जिन दर्शकों के लिए बनायीं जा रही हैं वो बच्चे नहीं है, वो ग्रोन अप्स हैं.
अंग्रेजी कपडे पहनने और अंग्रेजी शराब पीने से ही हमारी सोच वेस्टर्न नहीं होगी, ये बात हम जितनी जल्दी मान लें अच्छा होगा. चाहरदीवारी के भीतर अकेले पोर्न फिल्म देखकर अपना हाथ जगन्नाथ करने वाले और बात बात पर मां-बहन को सेक्स सिम्बल बनाने वाले इस समाज के करोड़ों लोग किसी फिल्म में ऐसे किसी सीन को देखकर मुहं पर हाथ रख लेते हैं, और आलोचना करने में कोई कसार नहीं छोड़ते. आखिर क्यूँ ?
इन शब्दों को गाली के समतुल्य बनाने वाले हम जब हम ही हैं, यही समाज ही है तो इन शब्दों को हम सामान्य रूप से क्यूँ नहीं ले सकते ? क्यूँ नहीं इसे समाज का एक अंग मान लेते ? ये फिल्में हमें आइना दिखा रही हैं...इन्हें परदे पर आने देने में समझदारी होगी...और ये तभी संभव है जब हम अपनी ताकत जानें और उसका सही इस्तेमाल करें. क्यूंकि पब्लिक सब जानती है और ये कुछ भी कर-करवा सकती है...
हाल ही में, एक खबर में पढ़ा कि इंटरनेट की चर्चित भारतीय सेक्स सिम्बल सविता भाभी कॉमिक कार्टून सिरीज़ पर भी एक रेगुलर रीडर सी एम जैन साहब शीतलभाभी डोट कॉम नाम से फिल्म बना रहे हैं. समझ नहीं आ रहा है कि ये क्रिएटिव कही जाएगी या भदेस ? ये सवाल दर्शकों पर छोड़ रहा हूँ लेकिन मुझे ये अंदाज़ा जरुर है की फिल्म क्या गुल खिलाएगी. ये भी लग रहा है कि इसके बोल्ड सीन्स और विषयवस्तु सेंसर बोर्ड शायद ही पचा पाएगा. कुछ भी हो, ये भी आइना हमारे समाज का ही है.