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Thursday, May 8, 2014

ज़िन्दगी ख़तम कहाँ होती है...

एक किसान था...
खेत बेचा था एक
सींचना था बड़ा सा दूसरा खेत
दाम कम मिले थे
पर उम्मीद थी एक दिन
वो फसल लहलहाएगी।

साल भर अपने बच्चों के साथ
खून से सींच डाला खेत
और साल भर बाद
देखकर अपने लहलहाते खेत
कहता था अपने बच्चों से
आएँगी बहार उनके जीवन में

पढ़ने जायेंगे खेत की
पगडंडियों से दूर
खुद की एक राह बनायेंगे

रात में ख्वाब घुल पाते
किसान के अरमानों को
एक अदद बार दोहरा पाते
सरसों के कोपल खुल पाते

कि एक जालिम रात गुज़री
उसकी ज़िन्दगी से होकर

सुबह तपिश बेपनाह थी
ज़िन्दगी का एक टुकड़ा
जल रहा था फसल के साथ

पीली ख़ुशी काली राख बन गयी
कुछ लोग बोले...ज़िन्दगी
का ये अंत तो नहीं।

कुछ आंसू गिरे
कुछ पोछ लिए गए
कुछ सूख के गालों पे
इक लकीर छोड़ गए

बच्चों ने बांध ली गठरी।
छोड़ दी किराये की वो कोठरी
भूल गए ख्वाब वो हसीन

बाप की राख नदी में
प्रवाहित कर वो भी किसी
सेठ की इमारत में ईंट
लगा रहे हैं...

ज़िन्दगी ख़तम कहाँ होती है...

माँ को अब भी उम्मीद है
किराये की छत से निकल
अपना घर बनाने की...

एक किसान तो था...

Tuesday, October 20, 2009

वो अजीब एहसास

रात के दो बज रहे थे शायद, ऑफिस से वापस लौट रहा था, इस वक्त इंदिरा नगर के लिए जल्दी ऑटो नहीं मिलते इसलिए बादशाह नगर तक एक साथी के साथ आया और वहां ऑटो का वेट करने लगा। काफी देर इंतज़ार करने के बाद आखिरकार मुझे अगली सीट पर बैठना पड़ा। मैं यहाँ बैठने से बचता हूँ क्योंकि यहाँ बैठना खतरे से खली नहीं होता और दूसरा मीटर पीठ में काफी चुभता है। खैर, मैं बैठ गया। लेखराज से इंदिरा नगर के लिए ऑटो मुड़ा ही था कि एक बुजुर्ग किसी तरह सड़क पार करके आए और ऑटो वाले से बोले बैठा लो, जगह पहले ही नहीं थी। मुझसे उनकी हालत देखी नहीं गई और मैं ड्राईवर के दूसरी ओर बैठ गया। शायद उतनी जगह में एक पैर डालना भी मुश्किल था पर उनकी हालत देखकर उन्हें सड़क पर किसी दूसरी ऑटो का इंतज़ार करने के लिए छोड़ने के एहसास से तो बेहतर था मैं किसी तरह उसमें दुपक के बैठता। उसके बाद जब तक घर के पास नहीं पहुँच गया मैं यही सोचता रह गया की मैंने कोई परोपकार किया है या ये हमारी ड्यूटी होनी चाहिए। दरअसल जब हम स्कूल में थे तो रोज डायरी में लिखना होता था कि आज क्या परोपकार किया और हम ऐसे काम करने कि तलाश में रहते थे॥ अचानक वो मोड़ आ गई जहाँ मुझे उतरना था और मैंने उनको देखा और ऑटो वाले को पैसे देकर मुड़ गया। एक अजीब सा संतोष था। शायद कुछ असली किया था इसलिए। वैसे तो ज़िन्दगी ही दिखावा लगने लगी है...ऐसे लम्हे हमें इंसान होने का अहसास कराते हैं...ड्यूटी हो या उपकार..क्या फर्क पड़ता है। और मैं चैन की नींद सोया..
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