

मेरी एक जिज्ञासा है। इसके पीछे कोई विचारधारा नहीं है. क्या जरूरी है आदिवासियों को जबरदस्ती विकसित किया जाये? जंगल और गाँव में रहना उन्हें पसंद है. वो वहां खुश हैं. क्या जरूरत है उन्हें शहरी विकास में धकेलने की? मिटटी को सोना बनाने से क्या फायदा होगा? जरूरी तो है नहीं कि हर किसी को विकसित होना ही चाहिए. दे दीजिये उन्हें उनके जंगल, उनकी जमीन. हटा लीजिये पुलिस, उन्हें मार काट करने में मजा थोड़े न आता होगा. जानता हूँ ये संभव नहीं है क्यूंकि निश्चित रूप से कुछ माओ और नक्सली ऐसे भी होंगे जो ऐसा कभी नहीं होने देंगे. फिर भी, एक पहल की जाये, अगर न मानें तो बहाइये खून कि नदियाँ.
जहाँ तक मेरी जानकारी है, ये संघर्ष नाक्साल्बरी से जमीन के विवाद को लेकर शुरू हुआ था। चारू, कानू और संथाल ने आवाज़ उठाई थी जमीदारों के खिलाफ जो आदिवासियों को दास समझते थे। उनकी जमीन पर जो मन आता था करते थे, आज जब इन नक्सलियों के समर्थन में कुछ लिख रहा हूँ तो बार बार ये एहसास हो रहा है कि कहीं ये सिर्फ भावनात्मक लगाव तो नहीं है जिसे में आवेश में आकर लिख रहा हूँ। पर सोचता हूँ कि अगर मेरे एक छोटा भाई बदमाश होता और वो नालायकी पर उतारू होता तो क्या मैं उसे गोली मर देता। या अगर मैं ऐसा ही होता तो क्या मेरे पिता जी मुझे जान से मार देते। तो इसी तरह समझदार पक्ष को पहल तो करनी ही होगी। अगर उनकी नियति में ही मृत्यु लिखी है, और देश के भविष्य में भयंकर नरसंहार लिखा है तो उसे मेरा ये टुच्चा सा विचार क्या बदल पाएगा।
आज एक दोस्त से आधा घंटा इसी मुद्दे पर बहस होती रही। मैं पूछता रहा कि ग्रीन हंट का क्या फायदा होगा। ऐसे ही जवान और नक्सली मरते रहेंगे। ये तो कारगिल युद्ध में तब्दील हो रहा है। सौलूशन है बात में। मैं मानता हूँ कि नक्सलियों ने ऐसा किया क्यूंकि वो डरे हुए हैं। मेरा दोस्त ये मानने को तैयार नहीं था। बहस होती रही। मैं भी जानना छह रहा था कि आखिर क्या कोई और रास्ता है। वो बहुत दूर की बात सोचकर शशंकित था कि अगर नक्सलियों को अधिकार मिल गए तो वे कल को देश के विकास में काफी बाधा खड़ी करेंगे। उसके तर्क काफी हद तक सही थे। पर फिर मेरा एक सवाल था, तो क्या लाखों आदिवासियों कि लाशों पर आप विकास करना चाहते हैं। वो भोले भाले आदिवासी तो यही समझते हैं कि किसन जी और महतो जैसे लोग उनके शुभचिंतक हैं। लेकिन क्या नक्सलवाद सिर्फ किसनजी, स्वर्गवासी कानू सान्याल, और उनके चंद प्रमुख कमांडर्स तक ही सीमित है। अगर ऐसा है तो मैं नहीं मान सकता। इसके पीछे बड़ी मजबूत सत्ता है। मजबूत लोग हैं जो इनकी जड़ों में पानी डाल रहें हैं। तो जीत नक्सलियों की हुई तो क्या लोकतंत्र हार जाएगा? सबसे बड़ा सवाल है कि क्या उनका उद्देश्य वही है जो मैं सोच रहा हूँ? जहाँ तक मैं सोच रहा हूँ? काश ऐसा ही हो।
लेकिन, आज वो उत्तर प्रदेश में 'वी' गलियारा बना रहे हैं। कुल २० राज्य और २२० जिले प्रभावित हैं। वो लगतार बढ़ रहें हैं. कल किसी और प्रदेश में एक गलियारा बनाएँगे। और एक दिन हर राज्य उनसे अपने तरीके से लड़ रहा होगा। क्या हम वो दिन देखना चाहते हैं। २००० में सिर्फ ५० लोग मरे थे नक्सली हिंसा में। २००९ में १५००, २०१० में और ज्यादा होंगे। कैसे कम होगा ये? ये एक बहुत बड़ा आन्दोलन है, जिसे चींटी समझकर पैरों तले कुचलने के ख्वाब देखना बहुत बड़ी भूल होगी। मैं वामपंथी या चरमपंथी नहीं हूँ, नक्सलवाद को समझने की थोड़ी सी कोशिश क़ी है और लगातार समझने की कोशिश कर रहा हूँ। थोड़ी सहानुभूति है, उनकी अनभिज्ञता पर, उनकी मजबूरी पर और उनकी सोच पर। यही सोचकर हमें उनसे निपटना है।
जहाँ तक मेरी जानकारी है, ये संघर्ष नाक्साल्बरी से जमीन के विवाद को लेकर शुरू हुआ था। चारू, कानू और संथाल ने आवाज़ उठाई थी जमीदारों के खिलाफ जो आदिवासियों को दास समझते थे। उनकी जमीन पर जो मन आता था करते थे, आज जब इन नक्सलियों के समर्थन में कुछ लिख रहा हूँ तो बार बार ये एहसास हो रहा है कि कहीं ये सिर्फ भावनात्मक लगाव तो नहीं है जिसे में आवेश में आकर लिख रहा हूँ। पर सोचता हूँ कि अगर मेरे एक छोटा भाई बदमाश होता और वो नालायकी पर उतारू होता तो क्या मैं उसे गोली मर देता। या अगर मैं ऐसा ही होता तो क्या मेरे पिता जी मुझे जान से मार देते। तो इसी तरह समझदार पक्ष को पहल तो करनी ही होगी। अगर उनकी नियति में ही मृत्यु लिखी है, और देश के भविष्य में भयंकर नरसंहार लिखा है तो उसे मेरा ये टुच्चा सा विचार क्या बदल पाएगा।
आज एक दोस्त से आधा घंटा इसी मुद्दे पर बहस होती रही। मैं पूछता रहा कि ग्रीन हंट का क्या फायदा होगा। ऐसे ही जवान और नक्सली मरते रहेंगे। ये तो कारगिल युद्ध में तब्दील हो रहा है। सौलूशन है बात में। मैं मानता हूँ कि नक्सलियों ने ऐसा किया क्यूंकि वो डरे हुए हैं। मेरा दोस्त ये मानने को तैयार नहीं था। बहस होती रही। मैं भी जानना छह रहा था कि आखिर क्या कोई और रास्ता है। वो बहुत दूर की बात सोचकर शशंकित था कि अगर नक्सलियों को अधिकार मिल गए तो वे कल को देश के विकास में काफी बाधा खड़ी करेंगे। उसके तर्क काफी हद तक सही थे। पर फिर मेरा एक सवाल था, तो क्या लाखों आदिवासियों कि लाशों पर आप विकास करना चाहते हैं। वो भोले भाले आदिवासी तो यही समझते हैं कि किसन जी और महतो जैसे लोग उनके शुभचिंतक हैं। लेकिन क्या नक्सलवाद सिर्फ किसनजी, स्वर्गवासी कानू सान्याल, और उनके चंद प्रमुख कमांडर्स तक ही सीमित है। अगर ऐसा है तो मैं नहीं मान सकता। इसके पीछे बड़ी मजबूत सत्ता है। मजबूत लोग हैं जो इनकी जड़ों में पानी डाल रहें हैं। तो जीत नक्सलियों की हुई तो क्या लोकतंत्र हार जाएगा? सबसे बड़ा सवाल है कि क्या उनका उद्देश्य वही है जो मैं सोच रहा हूँ? जहाँ तक मैं सोच रहा हूँ? काश ऐसा ही हो।
लेकिन, आज वो उत्तर प्रदेश में 'वी' गलियारा बना रहे हैं। कुल २० राज्य और २२० जिले प्रभावित हैं। वो लगतार बढ़ रहें हैं. कल किसी और प्रदेश में एक गलियारा बनाएँगे। और एक दिन हर राज्य उनसे अपने तरीके से लड़ रहा होगा। क्या हम वो दिन देखना चाहते हैं। २००० में सिर्फ ५० लोग मरे थे नक्सली हिंसा में। २००९ में १५००, २०१० में और ज्यादा होंगे। कैसे कम होगा ये? ये एक बहुत बड़ा आन्दोलन है, जिसे चींटी समझकर पैरों तले कुचलने के ख्वाब देखना बहुत बड़ी भूल होगी। मैं वामपंथी या चरमपंथी नहीं हूँ, नक्सलवाद को समझने की थोड़ी सी कोशिश क़ी है और लगातार समझने की कोशिश कर रहा हूँ। थोड़ी सहानुभूति है, उनकी अनभिज्ञता पर, उनकी मजबूरी पर और उनकी सोच पर। यही सोचकर हमें उनसे निपटना है।