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Thursday, May 8, 2014

ज़िन्दगी ख़तम कहाँ होती है...

एक किसान था...
खेत बेचा था एक
सींचना था बड़ा सा दूसरा खेत
दाम कम मिले थे
पर उम्मीद थी एक दिन
वो फसल लहलहाएगी।

साल भर अपने बच्चों के साथ
खून से सींच डाला खेत
और साल भर बाद
देखकर अपने लहलहाते खेत
कहता था अपने बच्चों से
आएँगी बहार उनके जीवन में

पढ़ने जायेंगे खेत की
पगडंडियों से दूर
खुद की एक राह बनायेंगे

रात में ख्वाब घुल पाते
किसान के अरमानों को
एक अदद बार दोहरा पाते
सरसों के कोपल खुल पाते

कि एक जालिम रात गुज़री
उसकी ज़िन्दगी से होकर

सुबह तपिश बेपनाह थी
ज़िन्दगी का एक टुकड़ा
जल रहा था फसल के साथ

पीली ख़ुशी काली राख बन गयी
कुछ लोग बोले...ज़िन्दगी
का ये अंत तो नहीं।

कुछ आंसू गिरे
कुछ पोछ लिए गए
कुछ सूख के गालों पे
इक लकीर छोड़ गए

बच्चों ने बांध ली गठरी।
छोड़ दी किराये की वो कोठरी
भूल गए ख्वाब वो हसीन

बाप की राख नदी में
प्रवाहित कर वो भी किसी
सेठ की इमारत में ईंट
लगा रहे हैं...

ज़िन्दगी ख़तम कहाँ होती है...

माँ को अब भी उम्मीद है
किराये की छत से निकल
अपना घर बनाने की...

एक किसान तो था...

Friday, April 15, 2011

अ लोन ट्रैवलर

(फोटो गूगल से साभार)

मैं अकेला चला था जानिबे मंजिल
लोग न मिले, काफिला न बना
एक मोड़ पर लेकिन
वो मिल गए
मैं उनके संग और
वो मेरे संग हो लिए
और हम चल दिए
जानिबे मंजिल
राह में एक दोराहा आया
वो घर को चल दिए
मैं फिर अकेला चला
जानिबे मंजिल
राह में एक शहर आया
अन्ना संग हजारों मिल गए
मैं उनके संग हो लिया
और उनकी मंजिल
तक पहुंचकर फिर
मैं अकेला चला जानिबे मंजिल
कई शहरों, कई कस्बों से गुज़रा
कई हुस्नों, कई जिंदगियों से गुज़रा
विदर्भ की भूख,
किसानों की बेबसी देखी
फटी साड़ियाँ, उधड़े बदन देखे
फरेब की रौशनी
जगमगाते शहर देखे
उजड़ते गाँव,
घिसटते पांव देखे
जात, पात और धर्म
पर खेले जा रहे
बेतहाशा दांव देखे...
और एक दिन
नज़र के सामने मंजिल और
नज़र में था वो मंज़र
जो सफ़र ने मुझे
तोहफे में दिया था
शायद मंजिल तक
पहुँच कर लौट आने को
पर मैं बढ़ा मंजिल को
बगल की एक संकरी गली से
खुद एक मंजिल बनाने को...

मैं अकेला चला था जानिबे मंजिल
मैं अकेला चला था जानिबे मंजिल...

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