किसी ने कहा आशुतोष जी ने हिंदुस्तान में जमकर अपनी पीठ थपथपाई है. जरा पढिएगा. आज सुबह उठते ही २८ दिसम्बर का हिंदुस्तान निकाला और पढने लगा. आखिरी लाइन तक पहुँचते पहुँचते कई सवाल कुलबुलाने लगे थे. सोचा आखिर कब हम अपनी पीठ थपथपाना बंद करेंगे. खुद को शाबाशी देकर क्या करेंगे. २६\११ में तो सबसे पहले कि होड़...किसी नए सुराग में तो सबसे पहले कि होड़. आखिर कब हम देश को देश समझेंगे..कब इसे बाज़ार समझना बंद करेंगे. आखिर क्यूँ हम नक्सालियों के बीच जाकर उनसे बात करके ये कहते हैं कि ये खबर सिर्फ हमारे पास है, क्या यही है मीडिया का काम, क्या सही कर दिया हमने सिस्टम. अभी तो रुचिका को ही न्याय पूरी तरह नहीं मिला है, क्या इतना ही था हमारा काम. मैंने कभी सोचा नहीं था कि ये एक पेशा है, हम लोगों तक लोगों के बीच कि खबरें पहुंचाते हैं तो किसी पे उपकार नहीं करते हैं. पत्रकारिता का लक्ष्य इतना छोटा भी नहीं होना चाहिए जितना आशुतोष जी के लेख में लगा. अभी कई मील के पत्थर रखे जाने हैं. काफी काम हुआ है, इसमें कोई दो राय नहीं. पर यह भी सच है कि अभी तो सफ़र कि शुरुआत भर है. इतनी जल्दी खुश
होना शायद ठीक नहीं. हमें इस लोकतंत्र को संभालना है. अपनी दीवार में दीमक नहीं लगने देने हैं (जो कि काफी हद तक लग चुके हैं). यह भी सच है कि देश के हर कोने में कैमरा और कलम नहीं पहुँच सकती पर क्या यह नामुमकिन है. जगह की वाकई कमी है, पर न्याय पर हर भारतीय का हक है. देश को कोसना और कोसते रहने भर से काम चलने वाला नहीं है, वो पान कि गुमटियों पर खड़े लोगों को ही करने दीजिये तो बेहतर होगा. अभी हमारी मुहिम पूरी नहीं हुई है, पहले इसे अंजाम तक पहुँचाना है. और ये भी सोचना है कि हमें १९ साल क्यों लग गए हरियाणा कि एक रुचिका को खोजने में जबकि उसका शोषण और किसी ने नहीं सूबे के कप्तान ने ही किया था. वो मर जाती है, १९ साल बाद उसकी दोस्त कि मेहनत रंग लती है. राठोड़ को थोड़ी ही सही पर सजा मिलती है और वो कोर्ट से मुस्कुराते हुए निकलता है. क्यूंकि उसे पता है, कानून और राजनेता उसकी जेब में हैं. वो हँसी हमारे हलक में फंस जाती है...और हम उसकी पोल खोल देते हैं.. लेकिन जरा सोचिये ऐसी कितनी ही रुचिका हैं जिनकी सिसकियाँ एक कमरा भी नहीं भेद पातीं..उनका क्या होता है...लोग कुछ भी कह देते हैं लेकिन उन्हें न्याय कि आस दूर तक नजर नहीं आती...ऐसे राठोड़ हमारे बीच हैं. हमारे भी भीतर हैं...उन्हें मार पाए तो जानिए उस लड़की को इन्साफ मिलेगा जिसकी गवाह वो खुद न होगी. ये हमारे लिए वाकई शर्म की बात है और सोचने की भी कि आखिर वो आज जिन्दा क्यों नहीं है जबकि उसके साथ हम सब खड़े हैं. शायद उसे १९ साल पहले इस साथ कि कहीं ज्यादा जरुरत थी जब उसे स्कूल से निकाला गया था, जब उसके भाई को दरिंदगी से पीता गया था और जब उसके पिता को नौकरी से हाथ धोना पड़ा था. अब राह बनानी है, उसपर ताउम्र सफ़र करना है. आशुतोष जी आपको तो हम जैसे युवाओं के लिए नजीर पेश करनी चाहिए, इस तरह की बातों में उथलापन झलकता है, हमें तो गहराई तक पहुंचना है, नहीं तो हममें और पान की दुकान पर सिस्टम को गरियाकर आँखें मूँद लेने वाले में क्या अंतर रह जाएगा.
