शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले। वतन पर मिटने वालों का बाकी यही निशां होगा।।
आप कुछ यही सोच रहे हैं ... पर कितने दिनों के लिए आइये जानते हैं..
उनकी शहादत रंग लाती दिख रही है। ४४ घंटे बाद संजय करकरे, अशोक कमते और विजय सालसकर की मौत थोड़ी तो
काम आई। नरीमन हाउस आतंकियों को मार गिराने के बाद लोगों की खुशी सड़क पर दिखने लगी। पर इस दौरान उन्हें ये किसी ने समझाने की कोशिश नहीं की कि १२५ लोग मरे भी हैं। ३०० लोग हॉस्पिटल में ज़िन्दगी कि लड़ाई लड़ रहे हैं। भारत माता की जय कैसे हो सकती है जबकि उसके कई जाबांज सिपाही अपनी जान पर खेल गए। अरे उन्हें शर्म आनी चाहिए कि ऐसी वारदात हो गई। उन्ही के बीच रहे लोगों ने सुनियोजित प्लान के तहत माँ का दिल चलनी कर दिया। जाने कितनी पत्नियाँ बेवा हो गईं। कितने परिवार बसने से पहले उजड़ गए। ये मीडिया किसकी तारीफ कर रहा है। समझ नहीं आता। क्यों हम ख़ुद ही अपनी कमजोरी छिपाते हैं । कोई ये नहीं सोच रहा है कि आख़िर ऐसा कैसे हो गया। ४० आतंकियों ने हिला के रख दिया। ५०० कमांडो बुलाये गए उसमे भी एक मेजर और एक जवान शहीद हो गए। उनकी शहादत पर भारत माता की जय करने वाले कल उन्हें भूल जायेंगे। फ़िर सब अपनी जिंदगी में व्यस्त हो जायेंगे। और फ़िर ऐसा कुछ होगा जिसके लिए सब एक टीवी पर नज़र गड़ाए घंटों बैठे रहेंगे और सरकार को गरियाएंगे। मित्रों जरा अपने ज़मीर से पूछिये की कैसा महसूस होता है। हालाँकि बहुत मुश्किल है। कोशिश कीजिएगा। खुश होने की जरुरत नहीं है। जरा ये तो सोचिये कि ये हुआ कैसे? कौन जिम्मेदार है। हम ख़ुद या सरकार और पुलिस। शायद दोनों..क्योंकि सबको अपनी फ़िक्र है। अगला मरता है तो मरे। भगत सिंह भी बगल के घर में पैदा हो। इस मानसिकता से बहार निकालिए। इस देश को कोई सरकार नहीं बचा सकती। हमें ही कुछ करना है। और मैं कुछ दिनों बाद अपने सवाल का जवाब दूंगा.जो आप लोगों की ज़िन्दगी का रुख बताएगी। ईशवर उन्हें खुश रखे जिनके अपने शहीद हो गए। थोडी शर्म बाकि हो तो आतंक का सफाया करिए। जो संदिघ्ध दिखे उसकी ख़बर पुलिस को कीजिये। शायद हालत सुधरें। प्रधानमंत्री जी ने अगर अफज़ल गुरु की फांसी में लंगड़ न मारा होता तो शायद ये न होता। किसी आतंकी को बख्शना अपने लिए ही बारूद इकठ्ठा करना है। हम ख़ुद ही अपने लिए मौत का सामान जुटा रहे
