सच कहूं तो तनु शर्मा ने सही किया या गलत, ये तो नहीं कह सकता पर वो ऐसा न करती तो शायद ये बहस हमारे मन की अंधेरी ओर काफी हद तक मैली कोठरी में ही घुट घुट कर मर जाती।
बहस कि क्यों मजबूर हुई वो आत्महत्या के लिए? क्या हो रहा है पत्रकारिता के बोर्ड टंगे बंद दरवाजों के पीछे?
पर, बहस सिर्फ टीवी के न्यूज रूम तक ही क्यों टिकी रहे? यह माध्यम हर खबर को सनसनीखेज बनाता है, इसलिए? प्रिंट भी तो हर खबर के साथ बड़े-बड़े लोगो लगा देता है..फलां इनीशिएटिव। फलां पहल। सबसे पहले। ग्राउंड पर। आसमान में। पाताल में। एक्सक्लूसिव। फिर इलेक्ट्रॉनिक उन्हीं ज्यादातर खबरों के साथ सनसनीखेज अंदाज में खेलते हैं।
कुल मिलाकर, सब एक जैसे हैं। इम्पैक्ट अलग-अलग है। बीते दिनों हिंदुस्तान के एक युवा पत्रकार का आत्महत्या करना भी खबर था? कितनों को पता है कि कौन मरा? क्यों मरा? किसका दोष था? ज्यादातर बुद्घिजीवी कहते हैं कि आत्महत्या करना कमजोरी की निशानी है। मैं भी कहता हूं, लेकिन क्या इतना कह देने भर से हमारा काम खत्म हो जाता है।
राजनीतिक खबर का तो पिचहत्तर एंगल से विश्लेषण होता है। ऐसा विश्लेषण किसी श्रमजीवी पत्रकार की मौत पर या अटेम्प्ट पर क्यों नहीं होता? क्योंकि वो तो घर की बात है न। उसे अंदर ही रहना चाहिए। है न। और जो दूसरे घरों में मौत का लाइव अपडेट देने के लिए ओवी वैन घुसेड़ देते हैं?वो?
मोटा टीए डीए लेकर प्रिंट के साथी जो बदायूं के चक्कर एक अदद एक्सक्लूसिव सॉफ्ट स्टोरी की तलाश में काटते रहते हैं वो?
सवाल प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक का नहीं है। सवाल है लोगों की सोच का। शर्म की बात है कि हमारे आस पास ज्यादातर लोग इस काबिलियत के नहीं कि वे संपादक या किसी बड़े औहदे पर पहुंच सकें। जो पहुंच रहा है वो अपनी पोजीशन का हद तक गलत इस्तेमाल कर रहा है।
जो बोलते हैं, उन्हें तमाम नाम दे दिए जाते हैं। उन पर तमाम तंज कसे जाते हैं। भरी मीटिंगों में उनका मजाक बनाया जाता है। उनके परिश्रम को उनके विरोध के नीचे कुचल दिया जाता है। विरोध की आवाज से इन्हें कतई परहेज है।
यह कहते हुए शर्म आती है कि आज हमारी बिरादरी में पत्रकार कम और मैनेजर, अधिकारी, बॉस और बिग बॉस पत्रकार का चोंगा पहनकर मनमानी कर रहे हैं। परिवार और एक अदद नौकरी की जरूरत में सही लोगों की जुबान पर ताले लग चुके हैं। नाकाबिलों की जुबान तेलीय हो चुकी है। रंगों में खून की जगह भी तेल बह रहा है शायद।
मीडिया की नौकरी मानो मजदूरी हो गई है। सुपरवाइजर का मन हुआ, तो चार गाली देकर भगा दिया। वेतन मनमुताबिक बढ़ा घटा दिया। काम खराब किया तो नौकरी से निकालना तय है। अच्छा काम किया तो साल की मेहनत का हिसाब आप मांग नहीं सकते। मांगा तो खैर नहीं। नौकरी से निकालने की धमकी।
कुछ मिलाकर ये जो आभामंडल है न, ये बेहद झूठा है। बेहश विशाक्त। ये दूर से बड़ा अच्छा लगता है। भीतर से उतना ही घिनौना। बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि ये बहस स्वांतःसुखाय के लिए चार दिन तक खूब होंगी। फिर तनु के इस कदम से हमारा जो दिमाग सुन्न पड़ा है और एक ही जगह अटका है, वो फिर अपनी परेशानियों में उलझ जाएगा।
काफी पहले मेरे एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे सलाह दी थी, अपने आत्म सम्मान से समझौता मत करना। बाद में कुछ घटनाक्रम ऐसे हुए जिन पर उनसे ही चर्चा की तो उन्होंने एक एचआर मैनेजर की तरह मुझसे कहा...मैं नहीं जानता कि आपका पर्सनल क्या है क्या नहीं।
ये भी मानसिक शोषण ही तो था?
मेरा आंकलन बहुतों को नागवार गुजरेगा, पर मैं वही लिखता-कहता आया हूं जो सही लगता है। चुप रहूं तो बात अलग। लाघ-लपेट मुझे न आती है न मैं सीख सकता हूं। इस बहस का मरना किसी सनसनीखेज खबर की तरह होगा।
भड़ास हिट्स गिन रहा होगा, कुछ अखबार जिन्होंने खबर छापी वे अपनी पीठ थपथपा रहे होंगे। ज्यादातर पत्रकार इस मसले को महज एक खबर की तरह ले रहे होंगे। बहुत मुमकिन कि उनको इस बात का अहसास भी नहीं होगा।
दरअसल, हम पत्रकारों के लिए हर दर्द, हर खुशी महज एक खबर की तरह होती है। हम मौत का जश्न मनाते हैं। आपदा सबसे अच्छी खबर होती है। विनाश उससे भी बड़ी। सफलता बड़ी खबर के पैमाने पर छोटी खबर है। और हम सब इन खबरों से खेलकर अपने लिए सब्जबाग बुन लेते हैं। कुलीश, गोयनका और कुछ तो पुलित्जर तक के ख्वाब देख लेते हैं।
बस दुआ करता हूं कि तनु कम से कम तुम जीकर जीत पाओ। हारोगी, तो तुम्हें भी बहुत खलेगा और मुझे भी। न जाने क्यों, सच का हारना बहुत दुख देता है।