Tuesday, April 20, 2010

फिर पंख मैं चुनुँगा, परवाज मैं भरूँगा


तमन्ना भी साथ थी, कोशिश भी थी जवां,
राहें भी साथ थीं, मंजिल भी मेहरबां।
खुद में हौंसला, उसकी नेमत पे था यकीं ,
लौ जल रही थी अबकी, बाती भी थी बची।
फूंक के भी जर्रों, पर रोक थी लगी,
फिर भी वो बुझ गई, मायूस हो गई।
मैं देखता रहा, आंसू पोंछता रहा,
सॉरी बोलकर उसने, कर दिया विदा।
बेबसी में रोया, उस बरस का रतजगा॥
गिरेबां में झांक लेता, वो भी था ''मैं'' कभी,
आज वो न जाने किस माटी का बना।
मैं धरती से उठा था, धरती पे आ गिरा ,
नापने को फिर से सारा आकाश है पड़ा ।
फिर पंख मैं चुनुँगा, परवाज मैं भरूँगा,
आँधियों में भी लौ को, बुझने मैं दूंगा।
वक़्त भी कभी तो, हमसे रास्ते पूछेगा,
वो भी अपनी बाजुओं में, आंसू पोंछेगा॥

(माफ़ करना दोस्तों, क्या करूँ, कंट्रोल नहीं होता...दर्द है तो दर्द ही नजर आएगा न!)

Saturday, April 10, 2010

...अगर न मानें तो बहाइये खून कि नदियाँ



मेरी एक जिज्ञासा है। इसके पीछे कोई विचारधारा नहीं है. क्या जरूरी है आदिवासियों को जबरदस्ती विकसित किया जाये? जंगल और गाँव में रहना उन्हें पसंद है. वो वहां खुश हैं. क्या जरूरत है उन्हें शहरी विकास में धकेलने की? मिटटी को सोना बनाने से क्या फायदा होगा? जरूरी तो है नहीं कि हर किसी को विकसित होना ही चाहिए. दे दीजिये उन्हें उनके जंगल, उनकी जमीन. हटा लीजिये पुलिस, उन्हें मार काट करने में मजा थोड़े न आता होगा. जानता हूँ ये संभव नहीं है क्यूंकि निश्चित रूप से कुछ माओ और नक्सली ऐसे भी होंगे जो ऐसा कभी नहीं होने देंगे. फिर भी, एक पहल की जाये, अगर न मानें तो बहाइये खून कि नदियाँ.

जहाँ तक मेरी जानकारी है, ये संघर्ष नाक्साल्बरी से जमीन के विवाद को लेकर शुरू हुआ थाचारू, कानू और संथाल ने आवाज़ उठाई थी जमीदारों के खिलाफ जो आदिवासियों को दास समझते थेउनकी जमीन पर जो मन आता था करते थे, आज जब इन नक्सलियों के समर्थन में कुछ लिख रहा हूँ तो बार बार ये एहसास हो रहा है कि कहीं ये सिर्फ भावनात्मक लगाव तो नहीं है जिसे में आवेश में आकर लिख रहा हूँपर सोचता हूँ कि अगर मेरे एक छोटा भाई बदमाश होता और वो नालायकी पर उतारू होता तो क्या मैं उसे गोली मर देताया अगर मैं ऐसा ही होता तो क्या मेरे पिता जी मुझे जान से मार देतेतो इसी तरह समझदार पक्ष को पहल तो करनी ही होगीअगर उनकी नियति में ही मृत्यु लिखी है, और देश के भविष्य में भयंकर नरसंहार लिखा है तो उसे मेरा ये टुच्चा सा विचार क्या बदल पाएगा

आज एक दोस्त से आधा घंटा इसी मुद्दे पर बहस होती रहीमैं पूछता रहा कि ग्रीन हंट का क्या फायदा होगाऐसे ही जवान और नक्सली मरते रहेंगेये तो कारगिल युद्ध में तब्दील हो रहा हैसौलूशन है बात मेंमैं मानता हूँ कि नक्सलियों ने ऐसा किया क्यूंकि वो डरे हुए हैंमेरा दोस्त ये मानने को तैयार नहीं थाबहस होती रहीमैं भी जानना छह रहा था कि आखिर क्या कोई और रास्ता हैवो बहुत दूर की बात सोचकर शशंकित था कि अगर नक्सलियों को अधिकार मिल गए तो वे कल को देश के विकास में काफी बाधा खड़ी करेंगेउसके तर्क काफी हद तक सही थेपर फिर मेरा एक सवाल था, तो क्या लाखों आदिवासियों कि लाशों पर आप विकास करना चाहते हैंवो भोले भाले आदिवासी तो यही समझते हैं कि किसन जी और महतो जैसे लोग उनके शुभचिंतक हैंलेकिन क्या नक्सलवाद सिर्फ किसनजी, स्वर्गवासी कानू सान्याल, और उनके चंद प्रमुख कमांडर्स तक ही सीमित हैअगर ऐसा है तो मैं नहीं मान सकताइसके पीछे बड़ी मजबूत सत्ता हैमजबूत लोग हैं जो इनकी जड़ों में पानी डाल रहें हैंतो जीत नक्सलियों की हुई तो क्या लोकतंत्र हार जाएगा? सबसे बड़ा सवाल है कि क्या उनका उद्देश्य वही है जो मैं सोच रहा हूँ? जहाँ तक मैं सोच रहा हूँ? काश ऐसा ही हो

लेकिन, आज वो उत्तर प्रदेश में 'वी' गलियारा बना रहे हैं। कुल २० राज्य और २२० जिले प्रभावित हैंवो लगता बढ़ रहें हैं. कल किसी और प्रदेश में एक गलियारा बनाएँगे। और एक दिन हर राज्य उनसे अपने तरीके से लड़ रहा होगा। क्या हम वो दिन देखना चाहते हैं। २००० में सिर्फ ५० लोग मरे थे नक्सली हिंसा में। २००९ में १५००, २०१० में और ज्यादा होंगे। कैसे कम होगा ये? ये एक बहुत बड़ा आन्दोलन है, जिसे चींटी समझकर पैरों तले कुचलने के ख्वाब देखना बहुत बड़ी भूल होगीमैं वामपंथी या चरमपंथी नहीं हूँ, नक्सलवाद को समझने की थोड़ी सी कोशिश क़ी है और लगातार समझने की कोशिश कर रहा हूँथोड़ी सहानुभूति है, उनकी अनभिज्ञता पर, उनकी मजबूरी पर और उनकी सोच परयही सोचकर हमें उनसे निपटना है
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