कभी कभी मन में एक सवाल उठता है की इस दुनिया में सबसे ज्यादा दर्द किसे है। अपाहिज युवा को, बच्चों से हारे हुए एक बुजुर्ग को या किसी और को... दुनिया के हर कोने में गया, हर गरीब की आंखों में देखा और घर लौटते वक्त एक माँ से मिला। एहसास हो गया कि यही है वो जिसकी तलाश में मैं इधर उधर भटक रहा था। न जाने कितनों की आंखों में झाँका होगा मैंने पर वो दर्द नहीं दिखा जो उस माँ की आंखों में था। शुरुआत से अंत तक उसने सिर्फ़ दर्द ही तो सहे हैं...पहले बच्चे को ९ महीने कोख में रखा, उसे पला पोसा और दुनिया में अपना वजूद बनाना सिखाया और एक दिन उसी बच्चे ने कह दिया तुम तो गवांर हो...पति ने कह दिया कि तुमने मेरी ज़िन्दगी बरबाद कर दी...तुमसे शादी न की होती तो मैं चैन से रहता...माँ ने भी ख़ुद को कोसा...ख़ुद को मारा और आंसू बहाकर अगली सुबह फ़िर सबकी सेवा में जुट गई। बच्चे ने खाना नहीं खाया तो उसने भी खाना नहीं खाया...देर रात तक जगती रही की बच्चा पढ़ क्यों नहीं रहा है...पति क्यों नहीं आए....सास और ननद ने भी उसे फटकारा होगा...जिस बच्चे को चलना सिखाने के लिए उसने बिना थके मीलों का सफर तय किया होगा, आज उस बच्चे को माँ के साथ चलने में शर्म आती है...जिस बच्चे के लगातार एक ही सवाल पूछने पर माँ ने उसे गले से लगा लिया होगा वही बच्चा माँ के सवालों को सुनते भड़क उठता है...कहता है अपना काम करो... सुबह से लेकर रात तक उसने किचन में अच्छा खाना पकाने के लिए मेहनत की लेकिन पति ने कह दिया की तुम तो खाना बनाना ही भूल गई...उसकी ख़ुद की ख्वाहिशें बच्चों और पति तक सिमट कर रह गईं । उसे सबकी चिंता है पर उसकी चिंता किसे है...उसके बाल पकने लगें तो बच्चे कह देते हैं की अब तो तुम बूढी हो रही हो...उसकी एक अदद साड़ी की फरमाइश पति को बड़ी लगती है...वहीँ वो सबकी ख्वाहिशों को सीने से लगाती है...रोज़ दुत्कारी जाती है लेकिन ममता में जरा भी कमी नहीं दिखाती...किसे सबसे ज्यादा दर्द है...
कभी कभी हमें अपनी माँ की आंखों में उसकी ख्वाहिशें तलाशनी चाहिए...वो भी यही करती है...माँ का जरा सा ख्याल उसे ज़िन्दगी की तमाम खुशियाँ दे सकता है....क्योंकि वही दर्द बड़ा नहीं जो दिखता है...कुछ दर्द ऐसे भी होते हैं जो ज़िन्दगी भर सालते रहते हैं...
खो गया था दुनिया के झंझावातों में आइना देखता हूँ, पर खुद की तलाश है, मुसाफिर हूँ. ये अनकही खुली किताब है मेरी... हर पल नया सीखने की चाहत में मुसाफिर हूँ.. जिंदगी का रहस्य जानकर कुछ कहने की खातिर अनंत राह पर चला मैं मुसाफिर हूँ... राह में जो कुछ मिला उसे समेटता मुसाफिर हूँ... ग़मों को सहेजता, खुशियों को बांटता आवारा, अल्हड़, दीवाना, पागल सा मुसाफिर हूँ... खुशियों को अपना बनाने को बेक़रार इक मुसाफिर हूँ... उस ईश्वर, अल्लाह, मसीहा को खोजता मैं मुसाफिर हूँ...
Wednesday, November 25, 2009
Sunday, November 1, 2009
को एजूकेशन मिली होती तो....
बात जब भी लड़कियों पे पड़ने वाली निगाह कि होती है तो न जाने क्यों मेरे दिमाग में अपनी ज़िन्दगी के वो बारह साल फिर से गुजरने लगते हैं जो सरस्वती विद्या मंदिर बिताये. खूब संस्कार कि बात कि जाती थी वहां, हमने सीखे भी बहुत से. पर एक सवाल हमेशा सिर उठाने लगता है कि क्या ये सीख पाए कि एक लड़की क्या होती है. उससे कैसे बात कि जाती है...दोस्ती नाम कि भी एक चीज़ होती है. उन संस्कारों का क्या फायदा जब आप यही न जान पाएं कि दुनिया कि सबसे अनमोल चीज़ यानि स्त्री की विवेचना कैसे की जाये. मैं वो दिन कभी नहीं भूल सकता जब पहली बार हमारे टीचर्स ने बताया था की हाई स्कूल में को एजूकेशन होगी. हम ख़ुशी कम मना रहे थे, नर्वस ज्यादा थे. समझ नहीं आ रहा था कि कैसे रिअक्ट करेंगे. खैर, पढाई पूरी करने के बाद दुसरे स्कूल में दाखिला ले लिया, वहां भी को एजूकेशन नहीं थी. ख़ास फर्क नहीं पड़ना था क्यूंकि उन दो सालों में खासा मेहनत करनी थी. फिर लखनऊ विश्वविद्यालय में दाखिला लिया और सीखा कि लड़कियों से कैसे बात चीत की जाती है. पहले साल तो काफी दबे दबे से रहे. फिर कई बदलाव आये. खैर, विषय से भटक गया. आज भी जब पुराने दोस्तों से बात होती है तो एक बात सब कहते हैं..यार ज़िन्दगी में एक गर्ल फ्रेंड की कमी है बस...कुछ तो ये भी कह देते हैं...बनवा दो. मनो कोई दलाल हूँ. फिर सोचता हूँ कि भला उनकी क्या गलती है. घर वालों से कुछ कह नहीं सकते, मोहल्ले में किसी लड़की से नज़रें मिला नहीं सकते, सो सड़कों पर ही लड़कियों के पीछे घूमकर खुद को खुश कर लेते हैं. ये उनकी मजबूरी भी है और उनके आस पास का माहौल भी. कभी हद तक सोच के इस पिछडे होने कि वजह उनकी वो ग्रूमिंग है. जब तक ऐसा सिस्टम रहेगा, लोग यूँ ही नज़रों का इस्तेमाल करते रहेंगे. और ये हालत खासकर यूपी और बिहार जैसे प्रदेशों में ही है. जहाँ लड़कियों के साथ पढने से लड़के बर्बाद समझे जाते हैं और लड़कियों के साथ भी ऐसा ही है. इसीलिए जैसे ही आजादी मिलती है, लोग मुनेरका के मामले जैसी हरकतें करते हैं,
शायद ज़िन्दगी भर एक नॉन को एजूकेशन स्कूल में बिताने वालों के साथ ये स्थिति ज्यादा आती है. मैं उन दोस्तों से माफ़ी मांगते हुए ये बताना चाहता हूँ की कुछ तो वेश्याओं तक पहुँच चुके हैं, सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्हें एहसास नहीं हुआ की लड़की शारीरिक संतुष्टि के अलावा भी मायने रखती है...
शायद ज़िन्दगी भर एक नॉन को एजूकेशन स्कूल में बिताने वालों के साथ ये स्थिति ज्यादा आती है. मैं उन दोस्तों से माफ़ी मांगते हुए ये बताना चाहता हूँ की कुछ तो वेश्याओं तक पहुँच चुके हैं, सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्हें एहसास नहीं हुआ की लड़की शारीरिक संतुष्टि के अलावा भी मायने रखती है...
उन्हें एक ही नज़र से देखती है हर निगाह...
कस्बे में मुनेरका मामले पर हो रही बहस पर नजर पड़ी। दिमाग में वो तसवीरें घूमने लगीं जब मैं दिल्ली और मुंबई गया था। दोस्तों, लोगों की एक एक बात दिमाग में फ़िर दौड़ने लगीं। लिखते हुए शर्म आ रही है पर लड़कियों का जो चरित्र चित्रण यहाँ किया गया था वो वाकई शर्मनाक और एक बेहूदा सोच का परिचायक था। मैं दिल्ली पहली बार गया था, जानने की इच्छा भी थी कि आख़िर कैसा होता है रेड लाइट एरिया। और उससे जुड़े तमाम पहलुओं को जानने की इच्छा थी। लेकिन परवरिश कुछ ऐसी थी कि कभी किसी लड़की को उस निगाह से देखने की हिम्मत नहीं हुई न ही कभी ऐसे किसी एरिया में गया । मुझे अपनी सीमाओं का आभास था। पर मन में कहीं न कहीं वो इमेज जरुर थी जो मैं यूपी से लेकर वहां गया था। लोगों कि निगाहों में झांकता तो वो किसी लड़की के कपडों में झांकती मिलतीं। मैं ये नहीं कह सकता कि वो यूपी के थे या कहीं और के।
एक दिन बस से अपने रिश्ते दार के घर सरोजनी नगर जा रहा था तभी एक बुजुर्ग ने किसी लड़की को छूने कि कोशिश की, या शायद छू दिया था, वो लड़की बरस पड़ी। मेरी नजर पड़ी तो लड़की के कपड़े थोड़े तंग थे और बुजुर्ग उनके पीछे खड़े गलियां बक रहे थे। थोडी देर में हर निगाह लड़की पर थी और लड़की को बस से उतरना पड़ा। अगले दिन मैं सरोजनी नगर मार्केट में निकला तो कुछ लोगों ने बताया वहां जो लड़कियां खड़ी हैं वो चलने को तैयार हैं, कुछ इशारे होते हैं और मैंने कुछ लड़कों को उनकी तरफ़ इशारे करते देखा भी। मुनेरका में मेरे दोस्त रहते हैं, उनसे बात होती है तो वो भी कुछ ऐसा ही बताते हैं। उनकी बातों से भी नॉर्थ ईस्ट की लड़कियों की इमेज कुछ ऐसी ही मालूम पड़ी। सच मैं नहीं जनता पर ये जरुर जनता हूँ कि सारा खेल मर्द के हवस का है। हर लड़की को गन्दी निगाह से देखते हैं। काफी हद तक लड़कियां जानती भी हैं। इसके लिए वो किसी का सहारा लेती हैं तो वो टैक्सी कहलाती हैं। सच है। दोयम दर्जे की सोच का नतीजा है सब।
मुंबई में जो वाकया हुआ वो और भी शर्मनाक था। और ये हरकत एक पढ़े लिखे और समझदार व्यक्ति ने की थी। मैं किसी सिलसिले में कुछ लोगों से मिलने गया था। वहां यूपी के भी कुछ लोग थे। मेरी उनसे ठीक ठाक जान पहचान हो चुकी थी। थोडी देर वो कहीं गायब रहे। थोडी देर बार लौटे। उन्होंने जाने कब एक लड़की से होटल में साथ चलने की बात कह दी, और बड़े गर्व से कहानी बताई। उनके शब्द आज भी कानों में हैं, 'वो ऐसे देख रही थी जैसे...............मैंने पूछ लिया तो शरमा गई.' सोचा जा सकता है कि क्या हालत होती होगी उनकी हर दिन जब वो इस अरबों के देश में एक मुकाम कि तलाश में निकलती हैं....?
लड़की को पता नहीं क्या समझा जाता है यहाँ, मर्द की निगाह अगर गन्दी है तो वो नॉर्थ ईस्ट की हो या मुंबई और दिल्ली की, हर लड़की आवारा नजर आती है। अगर ऐसा न हो तो लोगों की हिम्मत न हो किसी लड़की को छूने की। पर ऐसा होता है। एक लड़का जब घंटों फ़ोन पर लगा रहता है तो मां बाप भी कुछ नहीं कहते पर वही काम जब एक लड़की करती है तो वो आवारा हो जाती है. मुझे तो इस पेशे से जुड़े उन लोगों पर भी शर्म आती है जिन पर सोशल रेस्पोंसिबिलिटी आम लोगों से कहीं ज्यादा है हर वो भी अपनी नजर का इस्तेमाल करने से नहीं चुकते... वो भी इस काम में जोर शोर से लगे हुए हैं... ज्यादा कहने कि जरुरत नहीं..सब समझदार हैं। उनका बस चले तो....जाने दीजिये..
एक दिन बस से अपने रिश्ते दार के घर सरोजनी नगर जा रहा था तभी एक बुजुर्ग ने किसी लड़की को छूने कि कोशिश की, या शायद छू दिया था, वो लड़की बरस पड़ी। मेरी नजर पड़ी तो लड़की के कपड़े थोड़े तंग थे और बुजुर्ग उनके पीछे खड़े गलियां बक रहे थे। थोडी देर में हर निगाह लड़की पर थी और लड़की को बस से उतरना पड़ा। अगले दिन मैं सरोजनी नगर मार्केट में निकला तो कुछ लोगों ने बताया वहां जो लड़कियां खड़ी हैं वो चलने को तैयार हैं, कुछ इशारे होते हैं और मैंने कुछ लड़कों को उनकी तरफ़ इशारे करते देखा भी। मुनेरका में मेरे दोस्त रहते हैं, उनसे बात होती है तो वो भी कुछ ऐसा ही बताते हैं। उनकी बातों से भी नॉर्थ ईस्ट की लड़कियों की इमेज कुछ ऐसी ही मालूम पड़ी। सच मैं नहीं जनता पर ये जरुर जनता हूँ कि सारा खेल मर्द के हवस का है। हर लड़की को गन्दी निगाह से देखते हैं। काफी हद तक लड़कियां जानती भी हैं। इसके लिए वो किसी का सहारा लेती हैं तो वो टैक्सी कहलाती हैं। सच है। दोयम दर्जे की सोच का नतीजा है सब।
मुंबई में जो वाकया हुआ वो और भी शर्मनाक था। और ये हरकत एक पढ़े लिखे और समझदार व्यक्ति ने की थी। मैं किसी सिलसिले में कुछ लोगों से मिलने गया था। वहां यूपी के भी कुछ लोग थे। मेरी उनसे ठीक ठाक जान पहचान हो चुकी थी। थोडी देर वो कहीं गायब रहे। थोडी देर बार लौटे। उन्होंने जाने कब एक लड़की से होटल में साथ चलने की बात कह दी, और बड़े गर्व से कहानी बताई। उनके शब्द आज भी कानों में हैं, 'वो ऐसे देख रही थी जैसे...............मैंने पूछ लिया तो शरमा गई.' सोचा जा सकता है कि क्या हालत होती होगी उनकी हर दिन जब वो इस अरबों के देश में एक मुकाम कि तलाश में निकलती हैं....?
लड़की को पता नहीं क्या समझा जाता है यहाँ, मर्द की निगाह अगर गन्दी है तो वो नॉर्थ ईस्ट की हो या मुंबई और दिल्ली की, हर लड़की आवारा नजर आती है। अगर ऐसा न हो तो लोगों की हिम्मत न हो किसी लड़की को छूने की। पर ऐसा होता है। एक लड़का जब घंटों फ़ोन पर लगा रहता है तो मां बाप भी कुछ नहीं कहते पर वही काम जब एक लड़की करती है तो वो आवारा हो जाती है. मुझे तो इस पेशे से जुड़े उन लोगों पर भी शर्म आती है जिन पर सोशल रेस्पोंसिबिलिटी आम लोगों से कहीं ज्यादा है हर वो भी अपनी नजर का इस्तेमाल करने से नहीं चुकते... वो भी इस काम में जोर शोर से लगे हुए हैं... ज्यादा कहने कि जरुरत नहीं..सब समझदार हैं। उनका बस चले तो....जाने दीजिये..
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