खो गया था दुनिया के झंझावातों में आइना देखता हूँ, पर खुद की तलाश है, मुसाफिर हूँ. ये अनकही खुली किताब है मेरी... हर पल नया सीखने की चाहत में मुसाफिर हूँ.. जिंदगी का रहस्य जानकर कुछ कहने की खातिर अनंत राह पर चला मैं मुसाफिर हूँ... राह में जो कुछ मिला उसे समेटता मुसाफिर हूँ... ग़मों को सहेजता, खुशियों को बांटता आवारा, अल्हड़, दीवाना, पागल सा मुसाफिर हूँ... खुशियों को अपना बनाने को बेक़रार इक मुसाफिर हूँ... उस ईश्वर, अल्लाह, मसीहा को खोजता मैं मुसाफिर हूँ...
Sunday, February 22, 2009
Saturday, February 7, 2009
यादों पे धूल जम गई थी, आज हटाई तो खूब निकले मेरे एहसास
आज फ़िर उस कस्बे की सैर की,
वहां अजीब सी रूमानियत और चुभन का एहसास हुआ।
वहां कुछ सवाल थे, मेरे जेहन में तुंरत कुछ पंक्तियाँ आने लगी।
शायद उस चुभन का जवाब...
पुरानी यादों में हर लम्हा तो खुशगवार नहीं था
हर दोस्त दिलदार तो नहीं था
मिले कई और बिछडे भी कई पर बचपने का अहसास कहीं खो सा गया था
एक मुकम्मल राह की तलाश में
न जाने कितने दोस्तों को खोया
उन्होंने नहीं समझा
हमारी मजबूरी ने समझने न दिया
फ़िर भी याद आते हैं वो दिन
वो वक्त जिसपे हमारा बस था
वो शामें जो खुश थी
मुस्कुराती थी
और हमारी हर ख्वाहिश समझ जाती थी
जिस वक्त की कोई मांग नहीं थी
न ही कोई दोस्ती किसी मतलब की मोहताज थी
याद आती हैं वो शामें
जब हम बिना कुछ कहे दोस्ती के लिए लड़ जाते थे
घर लौटते हुए खेलने के लिए मुड़ जाते थे
न सवाल थे और न जवाब पाने की हसरत
फ़िर आज
कितना बदला बदला सा है सब
एक पल कोई अपना लगता है
तो दूसरे पल उसी दोस्ती पर कोफ्त होती है
न जाने ऐसी क्यों हो गई दोस्ती
कहीं साफगोई खो तो नहीं गई?
या हम जरुरत से ज्यादा सोचने लगे
या यूँ समझिये
ज़िन्दगी में एक मुकम्मल राह और मुकाम की तलाश में
दोस्तों के बगैर
हमें बडबडाना आ गया है
शायद ये ज़िन्दगी की खेल है
उसे भी इस बहने अपना मन बहलाना आ गया है....
वहां अजीब सी रूमानियत और चुभन का एहसास हुआ।
वहां कुछ सवाल थे, मेरे जेहन में तुंरत कुछ पंक्तियाँ आने लगी।
शायद उस चुभन का जवाब...
पुरानी यादों में हर लम्हा तो खुशगवार नहीं था
हर दोस्त दिलदार तो नहीं था
मिले कई और बिछडे भी कई पर बचपने का अहसास कहीं खो सा गया था
एक मुकम्मल राह की तलाश में
न जाने कितने दोस्तों को खोया
उन्होंने नहीं समझा
हमारी मजबूरी ने समझने न दिया
फ़िर भी याद आते हैं वो दिन
वो वक्त जिसपे हमारा बस था
वो शामें जो खुश थी
मुस्कुराती थी
और हमारी हर ख्वाहिश समझ जाती थी
जिस वक्त की कोई मांग नहीं थी
न ही कोई दोस्ती किसी मतलब की मोहताज थी
याद आती हैं वो शामें
जब हम बिना कुछ कहे दोस्ती के लिए लड़ जाते थे
घर लौटते हुए खेलने के लिए मुड़ जाते थे
न सवाल थे और न जवाब पाने की हसरत
फ़िर आज
कितना बदला बदला सा है सब
एक पल कोई अपना लगता है
तो दूसरे पल उसी दोस्ती पर कोफ्त होती है
न जाने ऐसी क्यों हो गई दोस्ती
कहीं साफगोई खो तो नहीं गई?
या हम जरुरत से ज्यादा सोचने लगे
या यूँ समझिये
ज़िन्दगी में एक मुकम्मल राह और मुकाम की तलाश में
दोस्तों के बगैर
हमें बडबडाना आ गया है
शायद ये ज़िन्दगी की खेल है
उसे भी इस बहने अपना मन बहलाना आ गया है....
Subscribe to:
Posts (Atom)