Friday, September 26, 2014

एक मां को देखते हुए...


तस्वीर गूगल से साभार

क्यों पूजे वो तुम्हें?
जिसकी मांग का सिंदूर खुद न उतरा था
तुमने रगड़ दी थी बदकिस्मती
उसकी मांग पर
अंगड़ाई भी न टूटी थी
जिन मखमली रातों की
उनके ख्वाबों को क्यों रौंदा था तुमने
क्यों डाल दी थी सफेद मायूस चादर?
तुमने उसके बदन पर...

क्या दिया तुमने नेग में उसे
याद है?
लाल साड़ी की जगह तुमने
दिया था उसे मातम का चोला
याद करो, उसने कभी जो व्रत छोड़ा हो तुम्हारा
पूछो खुद से, क्या गुनहगार वो है या तुम

क्यों पूजे वो तुम्हें?
दो मासूमों की खातिर
डुपट्टे में हिम्मत बांधे कर रही है नौकरी
वो हर काम कर रही है,
जिसके बारे में उसने सोचा भी न था
कहती है, डांटना मत, मैं रो दूंगी
और फिर हंसते-हंसते रो देती है
वो मां, क्यों दस दफा फोन करती है
जानते हो...तुम?
अपने बच्चों की प‌र‌वरिश में
वो सिर्फ रात दे पाती है उन्हें
जब वे पलंग पर आंख मीज रहे होते हैं
तुम कितने बदनसीब हो सोचो
एक आस्‍था तोड़ी है तुमने
एक ममता छीनी है तुमने...

क्यों पूजे वो तुम्हें?
बीबी तो बन भी नहीं पाई थी वो
जब तुमने छीन लिए तुमने उसके दिन
वो दिन...
‌जिनके लिए उसने खुद को बचाकर रखा था
वो अहसास, जिसे हर स्‍त्री पोस नहीं पाती
बचाकर रखा था ‌उसने अपना सौंदर्य
वो चुंबन, वो आलिंगन
क्या उसके लिए तुमने सिर्फ दुश्वारियां लिखीं?
इसी के लिए उसने रखे थे वो
सोम, शुक्र और गुरु के व्रत अनंत
बिना नागा, भूखी रह लेती थी
क्या इसी दिन के लिए...
लाख की चूड़ी या खाली कलाइयों के लिए?


क्यों पूजे वो तुम्हें
जानते हो?
वो रोज मेरे बगल वाली सीट पर बैठती है
मैं देख पाता हूं उसके चेहरे की मायूसी
उसकी आंखों में गुस्सा

उसके असंख्य अरमानों की झुर्रियां
फोन पर सुनाई पड़ती है
उसकी मासूम बिटिया की आवाज
वो टीवी देखने की जिद पर उड़ती है
और ये मां आंसू ‌बहा देती है
मैं भी सोचता हूं
क्यों पूजे वो तुम्हें...

क्यों पूजे वो तुम्हें....
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